सद्गुरु: केदारनाथ एक असाधारण स्थान है। यहाँ पर शिव ध्वनि का उच्चारण एक बिल्कुल नया आयाम और महत्व प्राप्त कर लेता है। यह एक ऐसा स्थान है जिसे इस खास ध्वनि के लिए विशेष रूप से तैयार किया गया है। जब हम ‘शिव’ शब्द का उच्चारण करते हैं, तो यह अनिर्मित का स्वातंत्र्य है, जो सृजित नहीं है उसकी मुक्ति है। ऐसा कहना सही नहीं है, लेकिन यह लगभग ऐसा है कि इस धरती पर ‘शिव’ की ध्वनि केदारनाथ से निकलती है। हजारों सालों से, लोगों ने उस स्थान को उस ध्वनि के स्पंदन के रूप में अनुभव किया है।
जब हम शिव कहते हैं, तो इसका मतलब एक और मूर्ति या भगवान बनाना नहीं है, जिनसे हम जीवन में और अधिक समृद्धि या बेहतर चीजें मांग सकते हैं। शिव शब्द का अर्थ है "वह जो नहीं है।" आज, आधुनिक विज्ञान हमारे लिए यह साबित कर रहा है कि सब कुछ शून्य से आता है और शून्य में वापस चला जाता है। अस्तित्व का आधार और ब्रह्मांड का मूल गुण विशाल शून्यता है। आकाशगंगाएँ बस एक छोटी सी घटना हैं - एक फुहार। बाकी सब विशाल खाली जगह है, जिसे शिव कहा जाता है।
एक पौराणिक कथा है कि कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद, पांडव बहुत दुखी थे, क्योंकि उन्होंने अपने ही परिजनों को - अपने ही भाइयों और रिश्तेदारों को मार डाला था। इसे गोत्रवध कहा जाता था। वे इस कृत्य के लिए दोषी और कलंकित महसूस कर रहे थे और खुद को इससे मुक्त करने का रास्ता तलाश रहे थे। तो वे शिव की तलाश में निकल पड़े।
शिव उन्हें इस भयानक कृत्य से अचानक मुक्त हो जाने का सुख नहीं देना चाहते थे, तो उन्होंने खुद को एक बैल के रूप में बदल लिया और भागने की कोशिश की। लेकिन उन्हें पकड़ने की कोशिश में पांडव उनका पीछा करने लगे । शिव जमीन में चले गए और जब वे ऊपर आए, तो शरीर के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग जगहों पर उभर आए। बैल का कूबड़ केदारनाथ है, आगे के दो पैर तुंगनाथ हैं, जो केदार के रास्ते में है। नाभि हिमालय के भारतीय भाग में मध्य-महेश्वर नामक स्थान पर प्रकट हुई जो एक बहुत शक्तिशाली मणिपूरक लिंग है, और शिव की जटाएँ कल्पनाथ नामक स्थान पर प्रकट हुईं। इस तरह, शरीर के अलग-अलग अंग अलग-अलग जगहों पर प्रकट हुए।
शरीर के अंगों का यह वर्णन सात चक्रों से संबंधित है। इन मंदिरों की स्थापना मानव शरीर के रूप में की गई थी। यह एक महान प्रयोग था - एक विशाल शरीर बनाने की कोशिश करना। ऐसा ही एक शरीर भारतीय हिमालय की दिशा में हुआ। ऐसा ही एक दूसरा शरीर पश्चिमी दिशा की ओर बढ़ गया जहाँ उन्होंने नेपाल को ही एक शरीर में बदलने की कोशिश की।
केदारनाथ ऊर्जाओं का एक बहुत ही मादक मिश्रण है। यह एक ऐसा स्थान है जिसने हर प्रकार के हजारों योगियों और दिव्यदर्शियों को देखा है। जब मैं कहता हूं हर प्रकार के, तो आप कल्पना नहीं कर सकते ऐसे प्रकार। ये ऐसे लोग थे जिन्होंने किसी को कुछ भी सिखाने का कोई प्रयास नहीं किया। दुनिया को भेंट करने का उनका तरीका था, अपनी ऊर्जाओं, अपने मार्ग, अपने कार्य - सब कुछ - को इन स्थानों में एक विशेष तरीके से छोड़ देना।
जब आप आध्यात्मिक मार्ग पर किसी के बारे में सोचते हैं, तो आप शायद उन्हें एक निश्चित प्रकार के व्यवहार, पोशाक या बोली के संदर्भ में एक निश्चित प्रकार के ढांचे के भीतर सोचेंगे। लेकिन यह केवल उस प्रकार के आध्यात्मिक व्यक्ति की भूमि नहीं है। आपकी समझ के तरीकों में फिट बैठें ऐसे लोग भी यहाँ रहे हैं। लेकिन ऐसे और भी बहुत से लोग रहे हैं जो पूरी तरह से जंगली हैं, जिन्हें आप कभी आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में नहीं पहचान सकते। लेकिन ये ऐसे लोग हैं जिन्होंने अस्तित्व के शिखरों को छुआ है। जब हम "एक योगी" कहते हैं, तो हमारा मतलब एक निश्चित व्यवहार या नैतिकता वाले व्यक्ति से नहीं होता। एक योगी जीवन के साथ पूरी तरह से सामंजस्य में होता है। इतना सामंजस्य कि वह जीवन को विघटित कर सकता है और फिर से जोड़ सकता है। मूलभूत जीवन जो आप हैं, अगर आप उसे पूरी तरह से विघटित कर सकते हैं और वापस जोड़ सकते हैं, तभी आप एक योगी हैं। ऐसे कई अद्भुत मनुष्य रहे हैं।
किसी ऐसे व्यक्ति के लिए जो किसी तरह के आध्यात्मिक उत्थान की तलाश में है, केदारनाथ एक वरदान है जिसकी विशालता की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। इसका क्या मतलब है, यह समझाना बहुत मुश्किल है। आखिरकार, यह सिर्फ चट्टान का एक उभार है। लेकिन जो बात बहुत बड़ा अंतर पैदा करती है, वो वह काम है जो यहाँ हज़ारों सालों से रहने वाले लोगों ने इस जगह पर किया है। यही वो जगह है जहाँ बहुत से योगियों ने अपने शरीर त्यागे हैं। यह कुछ ऐसी चीज है जिसे आपको जरूर अनुभव करना चाहिए। भारत में जन्म लेने के बाद, इससे पहले कि आप बहुत बूढ़े हो जाएँ और किसी चीज के लायक न रहें, आपको एक बार हिमालय जरूर जाना चाहिए।
आदिशंकराचार्य की बुद्धि असाधारण थी और वे भाषा के प्रकांड पंडित थे। अपने छोटे से जीवन के दौर में, उन्होंने इस देश की लंबाई और चौड़ाई चलकर नापी। शंकराचार्य कालाडी नामक एक गाँव से आए थे, जिसका शाब्दिक अर्थ है “पैरों के नीचे।” दक्षिण में, हम भारत माता के चरणों में हैं। भारत का मतलब है कि हमने हमेशा सीखा कि कैसे ईश्वर के चरणों में रहना है। ईश्वर के चरणों में रहकर, हम विकसित हुए और खिले। यह दिखावटी आडंबर की संस्कृति नहीं है, बल्कि स्वाभाविक धर्मपरायण संस्कृति है।
आदिशंकराचार्य ने कहा, “सब कुछ माया है।” माया का अर्थ भ्रम होता है, इस मायने में कि आप इसे उस तरह नहीं देख रहे हैं जैसा कि यह है। यहाँ आपका यह शरीर ठोस लगता है, लेकिन आप जो खाना खाते हैं, जो पानी पीते हैं, और जो हवा साँस लेते हैं, उससे आपके शरीर की कोशिकाएँ हर दिन बदलकर नई हो रही हैं। इसका मतलब है कि कुछ समय बाद, आपके पास एक बिल्कुल नया शरीर होगा। लेकिन आपके अनुभव में, ऐसा लगता है कि यह वही शरीर है - यही माया है। इसी तरह, जिस तरह से आप पाँच इंद्रियों के माध्यम से अस्तित्व को समझते हैं, वह पूरी तरह से गलत है - यह भ्रम है, माया है, जिसके बारे में शंकर ने बात की थी।
एक कहानी है कि कैसे काशी में एक बार, सुबह-सुबह स्नान के बाद आदिशंकर मंदिर में प्रवेश कर रहे थे। तभी एक चांडाल उनके रास्ते में आ गया। चांडाल एक खास जाति थी, जो श्मशान घाटों की देखभाल करती थी। उन्हें सबसे नीचा और अशुभ माना जाता था। ऐसी मान्यता थी कि अगर आप चांडाल को देख लेंगे, तो मृत्यु आ जाएगी। कोई भी उनसे कोई संबंध नहीं रखना चाहता था और उन्हें बहिष्कृत किया जाता था।
तो जब यह आदमी उनके सामने आया, तो शंकर ने कहा, "दूर हटो।" वह आदमी वहीं खड़ा रहा और पूछा, "कौन दूर हटे - मैं या मेरा शरीर?" इसे सुनकर शंकर बहुत प्रभावित हुआ। वह सबको यह सिखाते घूम रहे थे, "यह शरीर तुम नहीं हो, यह सब माया है।" अब जब उस आदमी ने यह सवाल पूछा, तो उन्हें बहुत आघात लगा। उसके बाद, उन्होंने फिर कभी एक शब्द नहीं बोला, कभी कोई शिक्षा नहीं दी। वे बस हिमालय में चले गए। केदारनाथ में, आज भी उनका एक स्मारक है - बस उनका हाथ और छड़ी संगमरमर पर उकेरी गई है, जो दीवार से बाहर उभरी हुई है। वह आखिरी जगह है जहाँ उन्हें देखा गया था। कहानी यह है कि वह चलकर ऊपर गए शिव में विलीन हो गए।
यह हमारे राष्ट्र और संस्कृति की मूल प्रकृति है - हम दूसरों को रास्ते से हटाकर ऊपर नहीं चढ़ते - हम विनम्रता से ऊंचा उठते हैं। चाहे वह देवता हो, पुरुष हो, महिला हो, बच्चा हो, जानवर हो, पेड़ हो या चट्टान हो - हमने हर चीज के आगे झुकना सीखा है। यही हमारी ताकत रही है, यही हमारा तरीका रहा है, यही हमारे विकास और आत्मज्ञान की प्रक्रिया और तरीका रहा है।
बद्रीनाथ हिमालय में लगभग 13700 फीट की ऊंचाई पर एक शानदार स्थान है। बद्रीनाथ के बारे में एक पौराणिक कथा है। यहीं पर शिव और पार्वती रहते थे। एक दिन शिव और पार्वती सैर पर निकले। जब वे वापस आए, तो उनके घर के प्रवेश द्वार पर एक छोटा बच्चा रो रहा था। इस बच्चे को फूट-फूटकर रोते देखकर पार्वती की मातृत्व जाग उठा और वह जाकर बच्चे को उठाना चाहती थीं। शिव ने उन्हें रोका और कहा, "उस बच्चे को मत छुओ।" पार्वती ने कहा, "कितने निर्दयी हैं आप। आप ऐसा कैसे कह सकते हैं?"
शिव ने कहा, "यह अच्छा बच्चा नहीं है। यह हमारे दरवाजे पर अकेले ही कैसे आ गया? आस-पास कोई नहीं है, बर्फ में माता-पिता के पैरों के निशान भी नहीं हैं। यह बच्चा नहीं है।" लेकिन पार्वती ने कहा, "वो सब मैं नहीं जानती! मेरे अंदर की माँ मुझे बच्चे को इस तरह रहने नहीं देगी," और वह बच्चे को घर के अंदर ले गईं। बच्चा बहुत आराम से उनकी गोद में बैठा था और शिव की ओर बहुत प्रसन्नता से देख रहा था। शिव को इसका परिणाम पता था, लेकिन उन्होंने कहा, "ठीक है, देखते हैं क्या होता है।"
पार्वती ने बच्चे को दुलारा और खाना खिलाया, और उसे घर पर छोड़कर शिव के साथ पास ही गर्म पानी के झरने में स्नान करने चली गईं। जब वे वापस आए, तो उन्होंने पाया कि दरवाजे अंदर से बंद थे। पार्वती हैरान रह गईं। "दरवाजा किसने बंद किया है?" शिव ने कहा, "मैंने तुमसे कहा था, इस बच्चे को मत उठाओ। तुम बच्चे को घर में ले आईं और अब उसने दरवाजा बंद कर लिया है।"
पार्वती ने कहा, “हम क्या करें?”
शिव के पास दो विकल्प थे: एक तो अपने सामने मौजूद हर चीज़ को जला देना। दूसरा, बस कोई दूसरा रास्ता ढूँढ़कर चले जाना। तो उन्होंने कहा, “चलो कहीं और चलते हैं। क्योंकि यह तुम्हारा प्यारा बच्चा है, मैं इसे छू नहीं सकता।”
इस तरह शिव ने अपना घर खो दिया और शिव और पार्वती “अवैध विदेशी” बन गए! वे रहने के लिए एक आदर्श स्थान की तलाश में इधर-उधर भटकते रहे और आखिरकार केदारनाथ में बस गए। आप पूछ सकते हैं कि क्या उन्हें नहीं पता था। आप बहुत सी बातें जानते हैं, लेकिन फिर भी आप उन्हें होने देते हैं।
शिव को हमेशा एक बहुत शक्तिशाली आत्मा के रूप में देखा जाता है, साथ ही साथ वे दुनिया के साथ इतने चतुर भी नहीं हैं। तो शिव के एक रूप को भोलेनाथ के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वे बाल-सुलभ हैं। ऐसा नहीं है कि वे मूर्ख हैं, लेकिन वे उन सभी घटिया तरीकों से बुद्धि का उपयोग करने की परवाह नहीं करते।
यह केवल चतुर और निम्न स्तर की बुद्धि ही है जो लगातार यह सोचती रहती है कि किसी से बेहतर कैसे बनें। बुद्धिमत्ता और चतुराई दो अलग-अलग चीजें हैं। चतुर हमेशा किसी दूसरे से तुलना में होता है। बुद्धिमत्ता किसी दूसरे से तुलना में नहीं होती, यह बस अपनी ही प्रकृति से होती है। बुद्धिमत्ता महत्वपूर्ण है क्योंकि बुद्धिमत्ता कभी प्रतिस्पर्धा में नहीं होती, यह बस जीवन की अभिव्यक्ति है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार, शिव और पार्वती कांतिसरोवर के तट पर रहते थे, और केदार में कई योगी रहते थे, जिनके पास वे आते थे। कांतिसरोवर वह झील है, जो 2013 की बाढ़ के दौरान फूटकर केदार में आ गई थी। आज, इसे गांधी सरोवर कहा जा रहा है। यह वास्तव में कांतिसरोवर है। कांति का अर्थ है कृपा, सरोवर का अर्थ है झील। यह कृपा की झील है। योग संस्कृति में, शिव को भगवान के रूप में नहीं देखा जाता। वे एक ऐसे प्राणी थे जो इस धरती पर घूमे और वे योग परंपराओं के मूल स्रोत हैं। वे आदियोगी या पहले योगी हैं, और आदि गुरु यानी पहले गुरु भी हैं। योग विज्ञान का यह पहला संचार कांतिसरोवर के तट पर हुआ, जहाँ आदियोगी ने अपने पहले सात शिष्यों के लिए इस आंतरिक तकनीक की व्यवस्थित व्याख्या शुरू की, जिन्हें आज सप्तर्षि के रूप में जाना जाता है।
कई साल पहले, मैं हर साल एक या दो महीने के लिए हिमालय में अकेले यात्रा करता था। उस समय मैं सिर्फ स्थानीय बस से ही जाता था। आम तौर पर मैं बस की छत पर बैठकर जाता था क्योंकि मैं पहाड़ों से चूकना नहीं चाहता था। ये बसें अजीब थीं! वे सुबह 4 या 4:30 बजे हरिद्वार से चलती थीं और सीधे गौरीकुंड या बद्रीनाथ जाती थीं। वे लोगों को बैठाने और उतारने के अलावा कहीं नहीं रुकती थीं - खाने के लिए भी नहीं। उन्हें भूख हड़ताल बसें कहा जाता था। ड्राइवर के पास अपना चपाती का रोल होता था जिसे वह गाड़ी चलाते समय खाता रहता था जबकि आप वहीं बैठकर दोपहर के खाने के बारे में सोचते रहते थे!
जब मैं गौरीकुंड से लंबी यात्रा करके केदार पहुंचा, तो मैंने कांतिसरोवर के बारे में सुना, तो एक दोपहर, मैं लगभग 2 या 2:30 बजे निकल पड़ा और एक घंटे से भी कम समय में वहां पहुंच गया। वहां झील और उसके चारों ओर बर्फ से ढके पहाड़ थे। प्रकृति के लिहाज से, यह शानदार स्थान है - बिल्कुल शांत पानी की यह विशाल झील, कोई पेड़-पौधे नहीं और पूरी तरह से शांत पानी में प्रतिबिंबित होने वाली बर्फ से ढकी चोटियां। यह एक अद्भुत जगह थी।
मैं बस वहां बैठा रहा, और शांति, मौन और पवित्रता मेरी चेतना में समा गई। उस जगह की चढ़ाई, ऊंचाई और निर्जन सुंदरता ने मुझे श्वासहीन कर दिया। उस निश्चलता में मैं एक छोटी चट्टान पर अपनी आंखें खोले बैठा था और अपने आस-पास के हर रूप को आत्मसात कर रहा था। आसपास का वातावरण धीरे-धीरे अपना रूप खो रहा था और केवल नाद मौजूद था । पहाड़, झील और मेरे शरीर सहित पूरा वातावरण अपने सामान्य रूप में मौजूद नहीं था। हर चीज सिर्फ ध्वनि थी। मेरे भीतर एक गीत उठा: "नाद ब्रह्म विश्व स्वरूप।"
नाद ब्रह्म विश्वस्वरूप
नाद ही सकल जीवरूप
नाद ही कर्म नाद ही धर्म
नाद ही बंधन नाद ही मुक्ति
नाद ही शंकर नाद ही शक्ति
नादं नादं सर्वम नादं
नादं नादं नादं नादं
मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो हमेशा संस्कृत भाषा सीखने से बचता रहा है। हालाँकि मुझे यह भाषा बहुत पसंद है और मैं भाषा की गहराई को जानता हूँ, लेकिन मैंने इसे सीखने से परहेज किया क्योंकि जैसे ही आप संस्कृत सीखते हैं, आप हमेशा शास्त्रों को पढ़ने लगते हैं। मेरी अपनी दृष्टि ने मुझे कभी किसी चीज में एक पल के लिए भी निराश नहीं किया, तो मैं खुद को शास्त्रों और इन सभी परंपराओं से उलझाना नहीं चाहता था। तो मैं संस्कृत से बचता रहा था।
जब मैं वहाँ बैठा हुआ था, तो मेरा मुँह निश्चित रूप से बंद था और मेरी आँखें खुली थीं, और मैंने इस गीत को बड़े पैमाने पर, अपनी आवाज में सुना। यह मेरी आवाज गा रही थी, और यह एक संस्कृत गीत था। मैंने इसे स्पष्ट रूप से, जोर से सुना। इतना जोर से कि ऐसा लगा जैसे पूरा पहाड़ गा रहा हो। मेरे अनुभव में, सब कुछ ध्वनि में बदल गया था। तभी मुझे यह गीत समझ में आया। मैंने इसे बनाया नहीं था, मैंने इसे लिखा नहीं था - यह बस मुझ पर उतर आया। पूरा गीत संस्कृत में बह निकला। वो अनुभव अभिभूत करने वाला था।
धीरे-धीरे, कुछ समय बाद, सब कुछ अपने पहले वाले रूप में वापस आ गया। मेरी चेतना के गिरने ने - नाद से रूप में गिरने ने - मेरी आँखों को आँसुओं से भर दिया।
नाद ब्रह्म का सीधा मतलब है दुनिया को एक ध्वनि के रूप में अनुभव करना, न कि एक रूप की तरह। आधुनिक विज्ञान भी कहता है कि हर ध्वनि के साथ एक रूप जुड़ा होता है, और हर रूप के साथ एक ध्वनि जुड़ी होती है। यह एक वैज्ञानिक हकीकत है। और आज जहाँ तक विज्ञान का सवाल है, हम यह भी जानते हैं कि पदार्थ जैसी कोई चीज नहीं होती। जहाँ स्पंदन है, वहाँ ध्वनि अवश्य होगी। तो योग में, हम कहते हैं कि पूरा अस्तित्व ध्वनि है।
अगर आप खुद को उस गाने में झोंक दें, तो उसमें एक तरह की शक्ति है। अगर आप वाकई खुद को उसमें झोंक देते हैं, तो उसमें किसी व्यक्ति को विलीन करने की शक्ति है।