शाश्वत ज्ञान

कृष्ण के अद्भुत आयाम: प्रेम, भक्ति और धर्म

भारत की पौराणिक परंपरा के विशाल पटल पर कृष्ण जैसे अद्भुत व्यक्तित्व बिरले ही दिखाई देते हैं। वह ऐसे रहस्यमय व्यक्तित्व हैं जिनका जीवन भक्ति, प्रेम और धर्म का साक्षात प्रमाण था। गरीब सुदामा के साथ उनकी स्नेह भरी मित्रता से लेकर कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र पर निराश अर्जुन को दिए गए गहन मार्गदर्शन तक, कृष्ण का जीवन, जीवन की चुनौतियों के बीच ऐसे जीवन मूल्यों को दर्शाता है जो हमेशा प्रासंगिक हैं। यह आलेख कुछ प्रसंगों के माध्यम से कृष्ण के अद्वितीय ज्ञान और प्रेम और नेतृत्व करने की उनकी खूबी को सामने लाता है।

प्रेम को अपनाना, धर्म के माध्यम से नेतृत्व करना

सद्‌गुरु: कृष्ण को अपने आसपास के लोगों से बहुत अधिक प्रेम और प्रशंसा मिली। लेकिन साथ ही उन्होंने खतरे और निराशा के चरम क्षणों का भी सामना किया। वे इन सभी परिस्थितियों के बीच से ऐसे गुजरे मानो वे सहज हों। हालांकि वे ऐसी स्थितियों में रहे जो अधिकांश इंसानों को तोड़ देतीं। उन्होंने लोगों के प्रेम की हर अभिव्यक्ति को स्वीकार किया, लेकिन उन्होंने अपनी बात रखने का कोई अवसर नहीं छोड़ा।

कृष्ण ने हमेशा स्पष्ट किया कि वे सबसे अधिक किस चीज को महत्व देते थे। हालांकि वे राजाओं के बीच रहते थे और उन्हें लोग खुद अपना राज्य भेंट करने को तैयार भी थे, लेकिन उन्होंने कभी उन्हें स्वीकार नहीं किया। इसके बजाय, उन्होंने उन्हें अपने राज्यों में धर्म का पालन करना सिखाया। कृष्ण के लिए वह मायने नहीं रखता था जो उन्हें लोग भेंट करते थे, बल्कि उनके भीतर के भाव उनके लिए महत्वपूर्ण थे।

महलों की दावत बनाम गरीब का भोजन

ऐसी कई कहानियाँ हैं जो दर्शाती हैं कि उनके लिए सबसे अधिक मूल्यवान क्या था। आपने सुदामा या कुचेला के बारे में सुना होगा। जब कृष्ण संदीपनी के यहाँ अध्ययन कर रहे थे, तब उनके साथ एक सुदामा नाम का लड़का भी पढ़ता था। उसे लोग  कुचेला बुलाने लगे क्योंकि वह बहुत पतला था और फटे-पुराने कपड़े पहनता था। दरअसल वह एक बहुत गरीब परिवार से आया था। लेकिन वह एक प्रतिभाशाली लड़का था और कृष्ण ने तुरंत उसके गुणों को पहचान लिया। उनके बीच एक गहरा तालमेल विकसित हुआ।

कई वर्ष बीत गए, लेकिन कुचेला की स्थिति कभी नहीं सुधरी। वह बहुत ही गरीब बना रहा। उसकी पत्नी ने उससे अनुरोध किया, ‘आपके मित्र कृष्ण इतने महान व्यक्ति बन गए हैं। आप उनसे मदद के लिए क्यों नहीं कहते?’ कुचेला ने उत्तर दिया, ‘मेरा मित्र मेरे लिए बहुत प्रिय है। मैं जाकर उससे कुछ नहीं मांग सकता।’ लेकिन पत्नी ने जोर दिया। अंत में कुचेला ने सोचा, ‘कम से कम मुझे जाकर कृष्ण से मिलना चाहिए। इतने साल हो गए हैं।’ एक गृहस्थ के रूप में वह कृष्ण के लिए एक उपहार ले जाना चाहता था। उसके पास एक मुट्ठी भर चिड़वे(चिउड़ा) के अलावा कुछ नहीं था, इसलिए उसने उसे अपने कपड़े में बांधा और चल दिया।

कृष्ण के लिए वह मायने नहीं रखता था जो उन्हें लोग भेंट करते थे, बल्कि उनके भीतर के भाव उनके लिए महत्वपूर्ण थे।

जब वह द्वारिका में महल के द्वार पर पहुंचा जहाँ कृष्ण रहते थे, तो द्वारपालों ने उसकी दशा और कपड़ों को देखकर उसे धक्का देकर भगाने की कोशिश की। लेकिन सुदामा ने कहा, ‘कृपया कृष्ण से कहिए कि सुदामा आया है। अगर वे मुझसे मिलना चाहते हैं, तो मैं रुकूँगा, नहीं तो मैं चला जाऊंगा।’

जैसे ही कृष्ण तक यह खबर पहुंची कि सुदामा आए हैं, कृष्ण दौड़कर द्वार पर आए। उन्होंने सुदामा को गले लगाया, उन्हें अंदर ले गए और उन्हें अपने ही आसन पर बिठाया, और आंसू बहाते हुए उसके पैर धोए। लोग यकीन नहीं कर पा रहे थे कि इस भिखारी जैसे दिखने वाले व्यक्ति के साथ कृष्ण इतने सम्मान का व्यवहार कर रहे थे।

फिर कृष्ण ने पूछा, ‘कुचेला, तुम मेरे लिए क्या लाए हो?’ वे जानते थे कि कुचेला खाली हाथ नहीं आया होगा। कुचेला बहुत हिचकिचा रहा था और महल में रहने वाले कृष्ण को यह मुट्ठी भर चिड़वा पेश करने में शर्मिंदा महसूस कर रहा था, लेकिन कृष्ण ने जोर दिया। तब अंत में कुचेला ने वह थोड़ा सा चिड़वा पेश किया जो वह लाया था। कृष्ण ने उसे बड़े आनंद से खाया और कहा, ‘यह मेरे जीवन का सबसे अच्छा भोजन है!’ ऐसी अनगिनत घटनाएं हैं।

कृष्ण के सिरदर्द के लिए गोपियों का आश्चर्यजनक उपचार

एक ऐसी ही घटना कृष्ण के जन्मदिन पर हुई। नृत्य, संगीत और उत्सव के साथ एक बड़े जश्न की तैयारियां की गई थीं, और बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा हुए थे। लेकिन कृष्ण बस घर में बैठे हुए थे, उत्सव में भाग लेने के लिए तैयार नहीं थे। आमतौर पर वे किसी भी तरह के जश्न के लिए हमेशा तैयार रहते थे, लेकिन उस दिन किसी वजह से वे तैयार नहीं थे।

रुक्मिणी ने उनसे पूछा, ‘स्वामी आपको क्या हो गया है? आप उत्सव में भाग क्यों नहीं ले रहे हैं?’ कृष्ण ने कहा, ‘ओह, मुझे सिरदर्द है।’ हम नहीं जानते कि उन्हें वास्तव में सिरदर्द था या वे सिर्फ बहाना कर रहे थे। रुक्मिणी ने कहा, ‘वैद्य को बुलाते हैं।’ वैद्य आए। उन्होंने दवाओं का सुझाव दिया, लेकिन कृष्ण ने कहा, ‘नहीं, इनमें से कोई भी चीज काम नहीं करेगी।’ तब तक बहुत से लोग इकट्ठा हो गए थे, जिनमें सत्यभामा, नारद और कई दूसरे भी शामिल थे।

जब उन्होंने सुना कि कृष्ण को सिरदर्द है, तो वे चिंतित हो गए और उनसे पूछा, ‘हमें क्या करना चाहिए?’ कृष्ण ने कहा, ‘जो कोई मुझसे सच्चा प्रेम करता है, वह अपने पैरों से थोड़ी सी धूल लेकर मेरे सिर पर लगा दे। फिर यह ठीक हो जाएगा।’ सत्यभामा ने कहा, ‘क्या बकवास है! मैं आपसे प्रेम करती हूँ, लेकिन मैं अपने पैरों की धूल आपके सिर पर किसी भी तरह नहीं लगाऊंगी।’ रुक्मिणी रोते हुए बोलीं, ‘यह अपवित्र है। हम ऐसा नहीं कर सकते।’

अपने पूरे जीवन में, जब भी उन्हें अवसर मिला, कृष्ण ने हमेशा दिखाया कि उनके लिए सबसे कीमती क्या था।

नारद ने यह कहकर मना कर दिया कि, ‘आप स्वयं भगवान हैं। मैं नहीं जानता कि आप ऐसा क्यों कह रहे हैं। यह क्या मायाजाल है? अगर मैं अपने पैरों की धूल आपके सिर पर लगाऊं, तो शायद मैं हमेशा के लिए नरक में जलूंगा। मैं ऐसा काम नहीं कर सकता।’ यह बात फैल गई। हर कोई भयभीत था, ‘हम ऐसी चीजें नहीं करने जा रहे हैं। हम उनसे प्रेम करते हैं, लेकिन हम ऐसा करके नरक में नहीं जाना चाहते।’

हर कोई कृष्ण के बाहर आने का इंतजार कर रहा था, लेकिन वे वहाँ सिरदर्द के साथ बैठे थे। जब यह खबर वृंदावन पहुंची और गोपियों को पता चला कि कृष्ण को सिरदर्द है और ठीक होने के लिए उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति के पैरों की धूल की जरूरत है जो उनसे प्रेम करता है, तो राधा ने अपनी साड़ी का किनारा जमीन पर रख दिया और सभी गोपियां उस पर जोर से नाचीं। फिर उन्होंने धूल भरे कपड़े को नारद को दिया ताकि वे उसे कृष्ण के पास ले जा सकें। कृष्ण ने उसे अपने सिर पर बांध लिया और ठीक हो गए।

अपने पूरे जीवन में, जब भी उन्हें अवसर मिला, कृष्ण ने हमेशा दिखाया कि उनके लिए सबसे कीमती क्या था।

निराशा से धर्म की ओर

कुरुक्षेत्र का युद्ध होना तय हो गया था और उपमहाद्वीप में लगभग हर कोई दोनों पक्षों में से किसी एक के साथ जाना तय कर चुका था। यह एक अंतिम लड़ाई जैसा था। कृष्ण ने युद्ध को टालने के लिए हर संभव प्रयास किया था, लेकिन जब इसे टाला नहीं जा सका तो वे पूरी तरह से शामिल थे।

अर्जुन, जो घृणा और क्रोध से जल रहे थे, अपने साथ हुए सभी अन्यायों का बदला लेना चाहते थे, युद्ध के मैदान में आकर हताश हो गए। वह अपने सामने खड़े लोगों की कतार को देखकर बिल्कुल निराश हो गए – उनके चचेरे भाई, चाचा, गुरु, ताऊ, सबसे सम्माननीय पितामह भीष्म, इतने सारे दोस्त, और राज्य की जनता। जब उन्हें देखा तो अर्जुन का दिल बैठ गया, ‘मैं इन सभी लोगों को कैसे मार सकता हूँ? मेरा क्या होगा?’

कृष्ण ने युद्ध को टालने के लिए हर संभव प्रयास किया था, लेकिन जब इसे टाला नहीं जा सका तो वे पूरी तरह से शामिल थे।

दूसरी ओर दुर्योधन, पांडवों की तुलना में बहुत बड़ी सेना इकट्ठा करने के बावजूद भी अकेला था। यह जानते हुए कि उन सबके गुरु द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म पांडवों से बहुत प्यार करते थे और उसके पक्ष के कई अन्य लोगों के भी उनके साथ गहरे संबंध थे, दुर्योधन गहराई से चिंतित था कि ये लोग युद्ध के महत्वपूर्ण क्षण में उसे छोड़ सकते हैं। इसलिए दुर्योधन एक तरह की उथल-पुथल और निराशा में था। अर्जुन एक अलग तरह की निराशा में था।

गीता का उपदेश दोनों पक्षों की इस पूर्ण निराशा और हताशा के क्षण में दिया गया था। अगर आप गीता की जटिलताओं को जानना चाहते हैं, तो इस संदर्भ को समझना महत्वपूर्ण है।