मिट्टी बचाओ

मिट्टी के लिए कानून क्यों है जरूरी?

मिट्टी के महत्व, हमारे जीवन पर इसके प्रभाव, मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए दुनिया भर की जा रही कोशिशों के बारे में आइए जानते हैं इस आलेख में। यहाँ सद्‌गुरु भूमि के अति आवश्यक आधार को सुरक्षित करने के लिए सतत योजनाओं की ज़रूरत पर प्रकाश डाल रहे हैं:

मिट्टी के साथ अपने रिश्ते को समझना

सद्‌गुरु: मिट्टी के प्रति मेरी रुचि मेरी पढ़ाई-लिखाई की वजह से नहीं है। मैं लोगों से पूछता रहा हूँ, ‘ऐसा कैसे हुआ कि  आपने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि मिट्टी के साथ क्या हो रहा है?’ आपका ध्यान न देना इस कारण नहीं है कि आप एक मृदा-वैज्ञानिक या पर्यावरणविद नहीं हैं - असली मुद्दा ये है कि आपने असल में कभी जीवन पर गौर ही नहीं किया। आप जीवन के बारे में बिना उस पर ध्यान दिए बस जानकारी इकट्ठी कर रहे हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारी शिक्षा व्यवस्था हमें ध्यान देने पर नहीं बल्कि अच्छी याद्दाश्त के लिए इनाम देती है।

अगर आप वास्तव में अपने जीवन पर ध्यान देते तो आप इस बात से अनजान कैसे रह सकते थे कि मिट्टी हमारे अस्तित्व का आधार है? आप बिना ये जाने इस धरती पर कैसे रह सकते हैं कि आप जो भी खाते हैं, आप जो भी इस्तेमाल करते हैं और आपका अपना शरीर भी मिट्टी, पानी, हवा और अन्य तत्वों से मिलकर बना है? आपको इसे समझने के लिए किसी वैज्ञानिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।

मैं इस धरती पर 6.5 दशक से अधिक समय से हूँ और जीवन को किसी दूसरे जीव की तरह ही अनुभव कर रहा हूँ। एक कीड़े की तरह मैं इस बात से प्रभावित होता हूँ कि मिट्टी में क्या हो रहा है। लेकिन बहुत लोगों ने ये संवेदनशीलता खो दी है क्योंकि वे अपने विचारों में बहुत ज्यादा डूब गए हैं।

किसान ये जान जाया करते थे कि मिट्टी में क्या हो रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से लगभग पिछले पचास सालों में किसानों ने भी मिट्टी से यह संपर्क खो दिया है। धरती को सुनने के बजाय उन्होंने प्रयोगशालाओं पर निर्भर रहना शुरू कर दिया है। प्रयोगशालाएं आविष्कारों के लिए उपयोगी हैं लेकिन ये याद रखना ज़रूरी है कि यह मिट्टी ही है, जहाँ सब कुछ घटित होता है।

जीवन का स्वाभाविक, सतत चक्र

ये पेड़ मिट्टी है। ये इमारत मिट्टी है। मैं मिट्टी हूँ। क्या आप यहाँ किसी ऐसी चीज़ को पहचान सकते हैं जो मिट्टी न हो? हर चीज़ चाहे वो रॉकेट हो, कंप्यूटर हो या केला, सब आख़िरकार मिट्टी ही हैं। मिट्टी से ही हम आते हैं, मिट्टी पर ही हम जीते हैं और इसमें ही वापस लौट जाते हैं। तो सार ये है कि जहाँ तक धरती की बात है, हम बस इसके पुनर्चक्रण (रीसायक्लिंग) प्रक्रिया का हिस्सा हैं। क्योंकि पृथ्वी जीवित है वह हमें रीसायकल कर देती है।

हम कई बार ये सोचते हैं कि हमारा जीवन अलग है लेकिन हम सभी इस रीसायक्लिंग का हिस्सा हैं। क्या कोई ऐसा है जो वापस मिट्टी में नहीं जाएगा? शायद हम अपना जीवन कुछ सालों के लिए बढ़ा सकते हैं, लेकिन आख़िरकार हममें से हर कोई धरती में वापस लौट जाएगा। ये समझ पुस्तकों या प्रयोगशालाओं के वैज्ञानिक ज्ञान से नहीं आई बल्कि बस अपने जीवन पर ध्यान देने से आई है। यदि हम सच में समझ जाएँ कि हम किस तरह बने हैं तो हम स्वाभाविक रूप से जीवन के स्रोत से सरोकार रखने लगेंगे।

चाहे भारत हो, चीन हो या अमेरिका या कोई और देश, सबके लिए मुद्दा एक ही है। पिछले 50 सालों में दुनिया भर के किसानों में रसायनों के उपयोग के प्रति उत्साह बढ़ा है। 1918 में एक जर्मन वैज्ञानिक ने रासायनिक खाद दी और जब लोगों ने अपने खेतों में इसका इस्तेमाल किया तो इसका काम जादू की तरह लगने लगा। और फिर हम मिट्टी की महत्ता को ही भूलते गए।

खाद को शुरू में एक पूरक की तरह इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन धीरे-धीरे हमने जीवन रहित मिट्टी में फसल उगाने के लिए इस पर ही निर्भरता बढ़ा दी। ये याद रखना बहुत ज़रूरी है कि सिर्फ जीवन ही जीवन को जन्म दे सकता है। मिट्टी की जीवन्तता बहुत सारे जीवन को जन्म दे रही है, जिसे हम भोजन के रूप में देखते हैं। चाहे आप एक गाजर लें, केला लें, चूजा लें या कुछ और – ये सब जीवन है। हम अपने जीवन को बनाए रखने के लिए दूसरे जीवन का उपभोग करते हैं। और आख़िरकार इस जीवन का उपभोग भी दूसरे जीवनों द्वारा किया जाएगा। जीवन की प्रकृति यही है – एक स्वाभाविक, सदा चलते रहने वाला चक्र।

रसायनों पर निर्भरता का परिणाम

चूंकि हमने कुछ रासायनिक साधन इकट्ठे कर लिए जो हमें परिणाम देते हैं, इससे हम बहुत उत्साहित हो गए। 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हमने दुनिया के कई देशों में अकाल देखे हैं। इसलिए जब रासायनिक खाद का आविष्कार हुआ तब इसे अकाल की स्थिति से निपटने के लिए सबसे अच्छा साधन माना गया, क्योंकि इससे उत्पादन कई गुना बढ़ जाता था। दरअसल रसायन अपने आप में कोई परेशानी नहीं थे।

मुद्दा ये है कि हम इस बात से अनजान हैं कि मिट्टी एक जीवित तत्व है – सबसे बड़ा जीवित तत्व, न केवल इस धरती पर बल्कि पूरे ज्ञात ब्रह्मांड में। हम इसे समझ पाने में नाकाम रहे हैं। ये कुछ ऐसा है कि मान लीजिए आप अच्छा खाना खाते हैं, आप स्वस्थ हैं, लेकिन जब आप डॉक्टर के पास जांच के लिए गए तो डॉक्टर ने कहा कि आपमें आयरन का स्तर ठीक नहीं है। फिर डॉक्टर ने आपको आयरन की गोली दी। आप वह गोली खाते हैं और आप बहुत अच्छा महसूस करने लगते हैं। फिर आपने सोचा कि चलो सौ गोलियां खा लेते हैं और खाना खाना बिलकुल बंद कर देते हैं।

यही हमने भूमि के साथ किया। हमने कुछ रसायन डाले जिससे बेहतर नतीजे मिले। फिर हम भूल ही गए कि मिट्टी चूँकि जीवित है, इसीलिए रसायनों ने उसे बेहतर किया। लेकिन समय के साथ उन्हीं रसायनों के भरोसे अच्छे परिणाम की उम्मीद लगाकर मिट्टी को मारना शुरू कर दिया। दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसियां साफ़ तौर पर ये कह रही हैं कि धरती पर मात्र 50-55 साल के लिए ही खेती योग्य मिट्टी बची है। उसके बाद यहाँ खेती नहीं हो सकेगी, क्योंकि हर जगह मिट्टी उस मुश्किल हालत में पहुँच गई है।

मिट्टी में जैविक तत्वों की कमी

शीतोष्ण और ऊष्णकटिबंधीय जलवायु में जैविक तत्वों की ज़रूरत की मात्रा अलग-अलग होती है। ऊष्ण कटिबंधीय जलवायु में कम जैविक तत्वों में भी हम अधिक भोजन पैदा कर सकते हैं। लेकिन जैसे ही आप ऊपरी अक्षांशों की और बढ़ते हैं उसी परिणाम को पाने के लिए अधिक जैविक तत्वों की आवश्यकता होती है। आंकड़ों में और अधिक जाए बिना, ये जान लेने की ज़रूरत है कि ये समस्या पूरी दुनिया की है जो हर एक देश को प्रभावित कर रही है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसियों ने बताया है कि हर वो क्षेत्र जहां जैविक तत्वों की मात्रा 1% से कम है वहां मिट्टी रेत में बदल रही है। सबसे ज्यादा जैविक तत्व पश्चिमी और उत्तरी यूरोप के देशों में 1.42% है, दक्षिण यूरोप में ये 1.1% जबकि अमेरिका में ये 1.25 % है। अफ्रीका में जैविक तत्वों की औसत मात्रा 0.3% है।

भारत में 62% भूमि में जैविक तत्व 0.5% से कम है, यहाँ तक कि ऐतिहासिक उपजाऊ नदी के तराई वाले इलाक़े भी अब मिट्टी के क्षरण से जूझ रहे हैं।

मिट्टी की बेहतर सेहत के लिए दुनिया भर में प्रयास

अच्छी बात ये है कि इसे सही करने की दिशा में काम किए जा रहे हैं। भारत सरकार ने 13 मुख्य नदियों को मिट्टी और पेड़ आधारित हस्तक्षेप से पुनर्जीवित करने के लिए 19,000 करोड़ का बजट घोषित किया है और 10 राज्यों ने मिट्टी बचाओ अनुबंध पत्र (MoU) पर हस्ताक्षर किए हैं। चीन की सरकार ने मिट्टी का सर्वे शुरू किया है।

इसी तरह यूरोपियन यूनियन ने एक परामर्श की प्रक्रिया शुरू की है। अमेरिका ने पहले से ही इस काम के लिए धन का निवेश कर दिया है, ब्रिटेन भी कुछ कर रहा है और राष्ट्रमंडल (कॉमनवेल्थ) देश भी साथ आ रहे हैं। ये एक आगे बढ़ता हुआ अभियान है। मुझे अब संदेह नहीं है कि ये होगा कि नहीं। हम निश्चित रूप से मिट्टी को फिर से जीवित करेंगे। महत्वपूर्ण है – काम की रफ़्तार। क्या हम इसे सही समय में कर लेंगे?

औसतन हर वर्ष 27000 प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं। इस दर से अगले लगभग 20 से 25 सालों में हम ऐसी स्थिति में पहुँच जाएंगे जहां मिट्टी को फिर से जीवित करना बहुत कठिन हो जाएगा। आप पाएंगे कि  मानव स्वास्थ्य - शारीरिक और मानसिक दोनों – बड़े पैमाने पर प्रभावित होगा। सूक्ष्म जीवों की क्रियाओं के बिना हमारा स्वास्थ्य पूरी तरह चौपट हो जाएगा। हम इसके बिना शारीरिक या मानसिक किसी भी तरह से स्वस्थ्य नहीं रह पाएंगे।

मिट्टी के क्षरण और विश्व में भोजन त्रासदी पर बात

हालाँकि यहाँ हमेशा ही कुछ संवेदनशील लोग होते हैं जो समझदारी भरे काम करते हैं, फिर भी इसे सरकारी नीति का हिस्सा बनाना बहुत ज़रूरी है। इससे ये पक्का हो जाएगा कि न केवल आज बल्कि 100 या 500 साल बाद भी, लोग नीति को जानेंगे और मानेंगे। उदाहरण के लिए यदि आपके पास कृषि भूमि है तो आपको जैविक तत्वों का स्तर कम से कम 3% रखना ही होगा। इसे लागू करने की ज़रूरत है।

कुछ नियम शहरों के लिए हैं जो शहरों में निर्माण को नियंत्रित (रेगुलेट) करते हैं। लेकिन कृषि भूमि के लिए कोई ऐसा नियम नहीं है। यदि किसी के पास 100 एकड़ भूमि है और वे उसे 10 सालों में रेगिस्तान में बदल दें तो कोई उनसे सवाल नहीं पूछेगा। इसे अपराध नहीं माना जाता।

जैविक तत्वों में बढ़त का प्रयास पहले तो सरकार के द्वारा प्रोत्साहन पर होना चाहिए, लेकिन एक बिंदु के बाद इसमें भी दूसरे नियमों की तरह सजा का प्रावधान होना चाहिए। ये पूरी दुनिया में होना चाहिए। दूसरा पहलू ये है कि भोजन वहीं पैदा  होना चाहिए जहाँ लोग रहते हैं। दुर्भाग्य से आज भोजन एक जगह उगाया जाता है जबकि आबादी कहीं और रहती है । इससे हमेशा ही अकाल का खतरा बना रहेगा। 

वर्तमान में अफ्रीका के सात देश अकाल की स्थिति झेल रहे हैं, लेकिन इसका मीडिया पर कोई व्यापक प्रचार नहीं है। यदि कोई मुद्दा देखा नहीं जाता तो यह मान लिया जाता है कि ऐसा कुछ हुआ ही नहीं। लेकिन जो भोजन की कमी के कारण मरते हैं उन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। ऐसा अनुमान है कि अकेले अफ्रीका में ही इस साल 3,00,000 से  3,60,000 बच्चे पोषण की कमी से मर जाएँगे। हम अपनी आँखें बंद कर सकते हैं और मान सकते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ लेकिन मनुष्य की यह पीड़ा कई रूपों में वापस आएगी।

मिट्टी के लिए एकजुटता

किसानों का व्यक्तिगत रूप से सस्टेनेबल कृषि को अपनाना और बढ़ावा देना काफी नहीं है। नीति में बदलाव बहुत ज़रूरी है, जिसकी शुरुआत प्रोत्साहन से करके इसे धीरे-धीरे हर देश में एक नियम की तरह लागू करना होगा। हम भारत, यूरोप और अमेरिका में इस बदलाव पर काम कर रहे हैं जिसका उद्देश्य है कि इसे भी शहरी क्षेत्रों के भवन-निर्माण कानूनों की तरह लागू किया जा सके। उदाहरण के लिए यदि आपके पास कृषि भूमि है तो आपको जैविक तत्वों का स्तर कम से कम 3% रखना ही पड़ेगा।

राजनीतिक रूप से देश अलग विचार रख सकते हैं लेकिन जब मिट्टी की बात आती है तो हम एक मानव जाति हैं, और एक जीवन हैं। एक धरती, एक परिवार, एक भविष्य - यही आगे की राह है।