कल्पवृक्ष के तरह अपने मन को स्थिर कैसे करें
योग में, एक अच्छी तरह से स्थापित, स्थिर मन को कल्पवृक्ष कहते हैं। कल्पवृक्ष अर्थात हर इच्छा को पूरा करने वाला वृक्ष। यहाँ सदगुरु समझा रहे हैं कि अगर आप अपने शरीर, मन, भावनाओं और ऊर्जा को एक ही दिशा में लगाते हैं तो निर्माण करने की आप की योग्यता अद्भुत होगी।
कल्पवृक्ष का अर्थ
हमने इस धरती पर जो कुछ भी बनाया है, वह पहले मन में बनाया गया था। मनुष्य ने जो कुछ भी कार्य किया है - उत्तम और घृणित, दोनों ही - वे सब पहले मन में ही किये गये, बाद में बाहरी दुनिया के सामने प्रकट हुए। यौगिक परंपराओं में एक अच्छी तरह से स्थापित, स्थिर मन को कल्पवृक्ष कहते हैं। ‘कल्पवृक्ष’, अर्थात वह वृक्ष जो आप की हर इच्छा को पूरा करता है।आप अगर अपने मन को एक खास स्तर पर संयोजित कर लें तो यह आप के पूरे सिस्टम को व्यवस्थित कर देता है - आप का शरीर, आप की भावनायें और उर्जायें, सभी उसी दिशा में संयोजित हो जाते हैं। अगर ये होता है तो आप स्वयं ‘कल्पवृक्ष’ हो जाते हैं। आप जो भी चाहते हैं, वह हो जाता है।
आप क्या चाहते हैं, इसके बारे में सावधान रहें !
यौगिक कथाओं में एक सुंदर कहानी आती है। एक व्यक्ति घूमने को निकला और चलते-चलते, अचानक ही स्वर्ग पहुँच गया। लंबी दूरी चलने के कारण वह थोड़ा थक गया था, तो उसको विचार आया, "क्या ही अच्छा होता अगर मैं आराम कर सकता"? तो उसे एक सुंदर वृक्ष दिखायी दिया जिसके नीचे सुंदर कोमल घास थी। वह वहाँ जा कर वृक्ष के नीचे घास पर सो गया। कुछ घंटों बाद, अच्छी तरह से आराम कर के वह उठा। फिर उसने सोचा, "अरे, मुझे भूख लगी है। क्या ही अच्छा हो यदि मुझे कुछ खाने को मिले"। उसने बहुत सी अच्छी चीजों के बारे में सोचा जो वह खाना चाहता था और वे सब चीजें उसके सामने आ गयीं। पेट भर खा कर उसे प्यास लगी और उसने सोचा, "क्या ही अच्छा हो अगर कुछ पीने को मिल जाये"। उसने कुछ अच्छे पेय पदार्थों के बारे में सोचा तो वे सभी उसके सामने आ गये।
योग में मानव मन को ‘मर्कट’ अर्थात बंदर कहा गया है, क्योंकि इसका स्वभाव ही है भटकते रहना। 'बंदर' शब्द नकल करने का पर्यायवाची भी हो गया है। यदि हम कहते है कि कोई बंदर बन गया है, तो इसका मतलब ये है कि वह किसी की नकल उतार रहा है। आप का मन हर समय यही करता रहता है। अतः अस्त व्यस्त, अस्थिर मन को बंदर कहते हैं।
तो स्वर्ग में गये हुए व्यक्ति के अंदर जब ये बंदर सक्रिय हो गया तो उसे विचार आया, "यहाँ ये सब क्या हो रहा है? मैंने जो खाना चाहा वो खाने को मिल गया, जो पीना चाहा वो पीने को मिल गया! यहाँ जरूर कोई भूत हैं!" जैसे ही उसने ये सोचा, वहाँ भूत आ गये। तब वह बोला, "अरे, यहाँ वाकई भूत हैं, ये मुझे सतायेंगे!" तो भूतों ने उसे सताना शुरू कर दिया। तब वो दर्द से कराहने लगा और चिल्लाने लगा, "ये भूत मुझे सता रहे हैं, शायद ये मुझे मार डालेंगे!" और वह मर गया।
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समस्या ये थी कि वो इच्छा पूरी करने वाले कल्पवृक्ष के नीचे बैठा था। तो वह जो भी सोचता था, वह बात पूरी हो जाती थी। आप को अपने मन का विकास उस सीमा तक करना चाहिये कि वो कल्पवृक्ष बन जाये, पागलपन का स्रोत नहीं। एक अच्छी तरह से स्थापित मन को कल्पवृक्ष कहते हैं। इस मन में आप जो कुछ भी चाहते हैं, वह वास्तविकता बन जाता है।
ड्राइवर सीट पर कौन है?
मान लीजिये, आप कार चला रहे हैं और अचानक स्टीयरिंग ढीला हो जाये! बाकी सब ठीक हो, गाड़ी नियंत्रण में हो, एक समान गति से जा रही हो पर स्टीयरिंग ढीला हो जाये, तो क्या आप वहाँ शांति से बैठ सकेंगे? नहीं, आप परेशान हो जायेंगे। अधिकतर लोगों की यही दशा है क्योंकि उनका स्टीयरिंग उनके हाथों में नहीं है। अगर आप का शरीर, मन और ऊर्जा आप के नियंत्रण में नहीं हैं तो वे अपनी विवशताओं से ही काम करेंगे। जब वे अपने ही ढंग से काम कर रहे होंगे तो कल्पवृक्ष एक बहुत दूर की चीज़ होगी।
सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात ये है कि आप को यह स्पष्ट होना चाहिये कि वह क्या है जो आप चाहते हैं? अगर आप को नहीं मालूम कि आप चाहते क्या हैं, तो उसे बनाने का सवाल ही नहीं उठता। आप जो चाहते हैं, हर मनुष्य जो चाहता है, उसकी ओर यदि आप देखें तो वह आनंदपूर्वक और शांतिपूर्वक रहना ही तो चाहता है। रिश्तों के बारे में बात करें तो हर किसी को वे प्रेमपूर्ण और स्नेहपूर्ण ही चाहियें। दूसरे शब्दों में, हर मनुष्य जो चाहता है, वह है सुखद अवस्था - स्वयं उसके लिये भी और उसके आसपास भी!
सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात ये है कि आप को यह स्पष्ट होना चाहिये कि वह क्या है जो आप चाहते हैं? अगर आप को नहीं मालूम कि आप चाहते क्या हैं, तो उसे बनाने का सवाल ही नहीं उठता।
ये सुखद अवस्था अगर हमारे शरीर में होती है तो हम उसे अच्छा स्वास्थ्य और सुख कहते हैं। यदि वो हमारे मन में होती है तो हम उसे शांति और आनंद कहते हैं। ये अगर हमारी भावनाओं में होती है तो हम इसे प्रेम और करुणा कहते हैं। जब ये हमारी ऊर्जा में होती है तब हम इसे उल्लास एवं परमानंद कहते हैं। मनुष्य को यही सब चाहिये। जब वो काम करने के लिये अपने कार्यालय जा रहा हो, तो वो धन कमाना, अपना पेशा बढ़ाना, अपना परिवार अच्छी तरह से चलाना चाहेगा। अगर वो शराबखाने में बैठे या मंदिर में बैठे तो भी बस एक ही चीज़ चाहेगा - अपने अंदर भी सुखद अवस्था और आसपास भी सुखद अवस्था।
आप को बस यही करने की आवश्यकता है कि आप इस सुखद अवस्था को बनाने के लिये प्रतिबद्ध हो जायें। यदि हर सुबह आप अपने दिन की शुरुआत अपने मन में इस सरल विचार से करें, "आज मैं जहाँ भी जाऊँगा, मैं एक शांतिपूर्ण, प्रेमपूर्ण और आनंदपूर्ण दुनिया बनाऊँगा", तो फिर अगर आप दिन में सौ बार भी गिर जायें तो भी उससे क्या फर्क पड़ेगा? एक प्रतिबद्ध व्यक्ति के लिये असफलता नाम की कोई चीज़ नहीं होती। अगर आप सौ बार गिर जाते हैं तो सौ पाठ सीख सकेंगे। अगर आप अपने आप को वह करने के लिये प्रतिबद्ध करते हैं जिसकी आप बहुत परवाह करते हैं, तो आप का मन संयोजित होता जायेगा।
अनुभूति कोई यंत्र नहीं है
ऐसे साधन और तकनीकें हैं जिनसे इस सिस्टम को इस तरह से संयोजित किया जा सकता है कि कोई मनोवैज्ञानिक गड़बड़ी बनने की बजाय आप का मन एक कल्पवृक्ष बन जाये। आप के जीवन के प्रत्येक क्षण में, वह, जो इस सृष्टि का स्रोत है, आप के अंदर कार्यरत है। प्रश्न केवल इतना है कि आप ने उस आयाम तक अपनी पहुँच बनायी है या नहीं? अपने जीवन के चार मूल तत्वों को संयोजित करने से आप की पहुँच वहाँ बन जायेगी। वह सम्पूर्ण विज्ञान एवं तकनीकें - जिन्हें हम योग के नाम से जानते हैं - बस यही हैं। आप, जो सृष्टि का एक टुकड़ा हैं, उससे परिवर्तित कर के आप को सृष्टिकर्ता बना देना, यही योग है।
उदाहरण के लिये, 100 साल पहले, अगर मैं मोबाईल फोन जैसे किसी यंत्र को उठा कर दुनिया के दूसरे कोने में बैठे किसी व्यक्ति से बात करने लगता तो आप को यह एक चमत्कार जैसा ही लगता। मैं कोई देवदूत या भगवान का बेटा या शायद भगवान ही लगता। पर आज, ये बस एक यंत्र है जो हममें से हर कोई ले कर घूमता है और उसका उपयोग करता है। आज, अगर बिना इसका उपयोग किये मैं दुनिया के किसी अन्य भाग में बैठे किसी व्यक्ति से बात कर लूँ तो आप के लिये यह एक चमत्कार होगा। यह यंत्र इसलिये बन पाया क्योंकि किसी मानव मन की यह इच्छा थी कि ऐसा यंत्र बने। 100 वर्ष पहले, किसी ने ऐसा नहीं सोचा था कि ऐसा कभी संभव भी होगा। पर आज ये एक सामान्य वस्तु है। इसी तरह से, बहुत सारी चीजें, जो हमारी अनुभूति में नहीं हैं, वे भी हमारी अनुभूति में लायी जा सकती हैं और हमारे जीवन का निर्माण करने की हमारी योग्यता बहुत बढ़ायी जा सकती है।
आप ही सृजनकर्ता हैं
एक बार जब आप का मन संयोजित हो जाता है - आप वैसा ही सोचते हैं, जैसा महसूस करते हैं - तो आप की भावनायें भी संयोजित हो जायेंगी। एक बार जब आप के विचार और आप की भावनायें संयोजित हो जायेंगे तो आप की उर्जायें भी उसी दिशा में संयोजित होंगीं। जब आप के विचार और आप की भावनायें तथा उर्जायें संयोजित हो जायेंगे तो आप का शरीर भी संयोजित हो जायेगा। जैसे ही ये चारों एक ही दिशा में संयोजित हो जायेंगे तो आप जो चाहते हैं, उसे निर्माण और प्रकट करने की आप की योग्यता अद्भुत होगी।
मैं चाहता हूँ कि आप अपने जीवन के स्वभाव को देखें। अगर आप एक केला खाते हैं तो चार घंटों में यह केला एक मनुष्य बन जाता है। आप के अंदर कुछ है - जीवन निर्माण करने की प्रक्रिया - जो यह शरीर बनाती है। इस शरीर का निर्माता आप के अंदर ही है। आप उसको एक केला देते हैं, वो इसका एक मनुष्य बना देता है। एक केले को मनुष्य बना देना कोई छोटी बात नहीं है। ये एक अद्भुत घटना है। बात बस ये है कि ये अद्भुत घटना आप के अंदर अचेतन रूप से हो रही है। यदि आप इस केले को मनुष्य बनाने की प्रक्रिया को सचेतन रूप से प्रकट कर सकें तो आप स्वयं ही निर्माता हैं। आप उससे कुछ भी कम नहीं हैं।
जैसा कि विकास का सिद्धांत बताता है, एक बंदर को मनुष्य बनने में लाखों वर्ष निकल गये। आप तो एक दोपहर में ही, एक केले को, एक रोटी को या जो कुछ भी आप खाते हैं, उसे मनुष्य बना देते हैं। अतः, सृष्टि का मूल स्रोत ही आप के अंदर कार्य कर रहा है। यदि आप मन, भावना, शरीर और ऊर्जा, ये चार आयाम एक ही दिशा में संयोजित कर लेते हैं, तो सृष्टि का स्रोत आप के साथ होगा, आप ही सृष्टिकर्ता होंगे। आप जो कुछ भी बनाना चाहते है, आप के लिये तो वे बिना प्रयत्न के ही हो जायेंगे। जैसे ही आप इस तरह संयोजित हो जायें, तो आप अस्तव्यस्त नहीं रहेंगे। आप स्वयं में एक कल्पवृक्ष होंगे। आप जो चाहें वो बनाने की शक्ति आप में होगी।
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A version of this article was originally published in Isha Forest Flower January 2020. Click here to subscribe to the print version.