डिग्रियां नहीं, हुनर चाहिए
फिल्म कलाकार सिद्धार्थ के साथ बातचीत में सद्गुरु हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था पर बात कर रहे हैं। सद्गुरु हमें बता रहे हैं कि अगर कोई शिक्षा प्रणाली युवाओं में हुनर नहीं पैदा करती और केवल डिग्री प्राप्त लोग तैयार करती है, तो ऐसी शिक्षा प्रणाली से देश आगे नहीं बढ़ सकता...
फिल्म कलाकार सिद्धार्थ के साथ बातचीत में सद्गुरु हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था पर बात कर रहे हैं। सद्गुरु हमें बता रहे हैं कि अगर कोई शिक्षा प्रणाली युवाओं में हुनर नहीं पैदा करती और केवल डिग्री प्राप्त लोग तैयार करती है, तो ऐसी शिक्षा प्रणाली से देश आगे नहीं बढ़ सकता...
सिद्धार्थः मेरे और मेरे कई दोस्तों के लिए शिक्षा एक बड़ी चिंता का विषय है। इस देश में शिक्षा को, खासकर प्राइमरी शिक्षा को एक ऐसे स्तर तक ले जाने के लिए क्या किया जा सकता है, जहां वह हमारे जैसे देश का ज्यादा सम्मानपूर्ण तरीके से प्रतिनिधित्व कर सके?
सद्गुरु: देखिए, अगर आप 1 अरब 20 करोड़ लोगों को शिक्षित करना चाहते हैं तो शिक्षा के बारे में अपने विचार को बदलना होगा। हम देश में हुनर की बात कर रहे हैं क्योंकि देश की 50 फीसदी से भी ज्यादा आबादी 30 साल से कम उम्र की है जिसे हम युवा कहते हैं। अगर आप इन युवाओं को कोई हुनर नहीं सिखाएंगे तो समझ लीजिए आप इस देश को बर्बादी के रास्ते पर ले जा रहे हैं। युवा ही देश व मानवता का निर्माण करते हैं। किसी देश का युवाओं से भरे होने का मतलब है - वह देश निर्माण की ओर बढ़ रहा है। ऐसे देश को, यानी भारत को अगर आप हुनरमंद नहीं बनाएंगे तो आप उसे बर्बाद कर रहे हैं। तो जल्द ही, अगले पांच से दस सालों के बीच ही, यह सब करना जरूरी है, इसके लिए अगले सौ सालों तक इंतजार नहीं किया जा सकता।
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देश में आप इस तरह के लाखों युवा तैयार कर रहे हैं, जिनके पास कोई हुनर नहीं है, लेकिन पढ़े-लिखे लोगों जैसा रवैया है। ये लोग सरकारी नौकरियां और बाबूगिरी चाहते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि यह सब करें कैसे! इनमें से कइयों ने तो स्नातक तक की पढ़ाई कर ली। इन लोगों को रोजगार नहीं दिया जा सकता, क्योंकि आप एक अरब बीस करोड़ लोगों को शिक्षित तो कर रहे हैं, पर आपके पास उन्हें शिक्षित करने का जो बुनियादी ढांचा है वह अर्पयाप्त है और वह उनमें किसी रोजगार के लिए जरूरी क्षमता या योग्यता नहीं पैदा करता। हम ये क्यों नहीं देखते कि जब कोई पांच साल का बच्चा अपने पिता के साथ खेत पर जाता था, तो वह सिर्फ बाल श्रम नहीं था, शिक्षा भी थी।
इन्हीं तरीकों से हुनर एक से दूसरे तक पहुंचता है। बच्चा अपने पिता की दुकान पर बस यूं ही जाता था और बातों-बातों में बढ़ई का काम सीख जाता था। जब तक उसकी उम्र १५ साल की होती थी, उसके पास एक हुनर होता था।
सिद्धार्थः नब्बे के दशक में, मैं जब कॉलेज गया, मेरी तीन साल की कुल फीस करीब 75 अमेरिकी डॉलर थी, वह भी देश के एक सम्माननीय विश्वविद्यालय में। स्नातक पैदा करने के लिए दबाव बनाना, वह भी ऐसे स्नातक जो हुनरमंद न हों, क्या ज़रूरी है? गैर जरूरी उच्च शिक्षा और अपर्याप्त प्राइमरी शिक्षा वाली इस जटिल व्यवस्था का अंत कब होगा? इसमें कब और कहां जाकर बदलाव आएगा?
सद्गुरु: देखिए, हमें इस बात को समझने की जरूरत है कि एक अरब लोग किसी भी देश के लिए एक बड़ी आबादी हैं। शिक्षा के स्तर, हुनर के स्तर, उसकी जटिलताएं और ऐसी ही बाकी तमाम चीजों में आप रातोंरात बदलाव नहीं ला सकते। तो तमाम कानूनों को पश्चिम के मूल्यों के अनुसार पास करने के बजाय हमें धीरज रखना होगा। यह समझें कि जब कोई पिता अपने बेटे को खेत पर ले जाता था, तो वह बाल श्रम नहीं था और ना ही वह उसे श्रमिक की तरह देखता था। वह चाहता था कि बच्चा सब कुछ सीख ले। उसकी कोशिश होती थी कि जो काम मैं कर रहा हूं, मेरा बेटा उसमें महारत हासिल करे ताकि वह मुझसे ज्यादा अच्छी तरह से काम कर सके। यह एक तरह की शिक्षा थी। शिक्षा की इस प्रक्रिया में आपने काम भी किया और यह कोई गलत बात नहीं है।
अब आप सोचते हैं कि आप सभी किसानों को कृषि विश्वविद्यालय में भेज देंगे। ऐसा आप कब तक करने की सोच रहे हैं? इसे करने के लिए आपके पास कितने विश्वविद्यालय हैं? अगर आपने उन्हें विश्वविद्यालयों में भेजने का मन बना भी लिया तो क्या वे उनके लिए काफी होंगे? क्या ये संभव है कि खेती छोडक़र तीन साल की डिग्री लेने के बाद वे बड़े जानकार किसान बन कर लौटें। जिस चीज की जरूरत है, उसका हमारे पास कोई व्यावहारिक ज्ञान नहीं है। हमें हुनर की जरूरत है, शिक्षा की नहीं। किसी भी समाज में केवल 15 से 20 फीसदी लोग ही ऐसे होते हैं, जो पठन-पाठन प्रक्रिया के लिए उपयुक्त हैं। बाकी लोगों को हुनर की आवश्यकता होती है, वे अपनी आजीविका कमाना चाहते हैं। देश में आर्थिक खुशहाली तभी आ सकती है, जब यहां के लोग हुनरमंद होंगे। आज भारत में आपको एक नाभिकीय वैज्ञानिक तो मिल जाता है, लेकिन बढ़ई नहीं मिलता, क्योंकि किसी को प्रशिक्षित ही नहीं किया जा रहा है।
आपके पास एक आधुनिक विचार है, शिक्षण के काम को आप ज्यादा सुनियोजित तरीके से करना चाहते हैं। ठीक है इसमें कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन अगर आपके पास कोई विचार है तो उस पर अमल करने के लिए उसे व्यावहारिक भी तो बनाना होगा।
यह बड़ा महत्वपूर्ण है कि कुछ शिक्षकों को गांव-गांव भ्रमण करते हुए लोगों को पढ़ाने की आज़ादी दी जाए। आधा दिन आप बच्चे को खेती के बारे में पढ़ाएं, खेती के बारे में उन्हें कुछ वैज्ञानिक जानकारी दें, खेती के जो भी औजार उपलब्ध हैं, उन्हें समझाएं कि इन औजारों को बेहतर तरीके से कैसे प्रयोग करना है। बाकी के आधा दिन वह बच्चा अपने पिता के साथ काम करे। ऐसा करके आप अच्छे किसान पैदा कर सकेंगे। दूसरी तरफ आप बच्चे को स्कूल भेज दीजिए, नवीं क्लास तक हर दिन वह किसी कामचोर की तरह काम करेगा, वह घर, खेत और काम से बचेगा और बिना कुछ सीखे-समझे स्कूल में जाकर अपना वक्त बिताएगा। हां इतना जरूर होगा कि वह पैंट पहनने लगेगा और पिता से खुद को बेहतर समझने लगेगा। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है। एक अरब लोगों को डिग्रियां थमाकर आप क्या करेंगे! आपको ऐसे लोगों की जरूरत है जो यह जानते हों कि ज़मीन के साथ क्या किया जाता है, आपको ऐसे लोगों की जरूरत है, जिनके पास चीज़ों व सामग्रियों को लेकर कुछ करने की हुनर हो।