ध्यान का अभ्यास करने वाले ध्यान के बाद अलग अलग तरह के अनुभव साझा करते हैं। ऐसा कौन सा अनुभव है जो आध्यात्मिक प्रगति को दर्शाता है? क्या ध्यान में होने वाले अनुभव हमारी आध्यात्मिक प्रगति को रोक भी सकते हैं?

प्रश्‍न:

सद्‌गुरु, पिछले कुछ सालों में कई गहरे आध्यात्मिक अनुभव हुए हैं। जैसे ही मैं आंखें बंद करता हूं, मुझे चीजें दिखनी शुरू हो जाती हैं।

सद्‌गुरु:

क्या फरिश्ते या देवता आपसे मिलने आ रहे रहे हैं?

सवाल:

अरे नहीं, ऐसा कुछ नहीं है...

सद्‌गुरु:

तो क्या सिर्फ शैतान आते हैं....?

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सवाल:

नहीं, उस दौरान चीजों या चेहरों की उर्जाओं के रेखाकृतियां मेरे सामने आती हैं, जिन पर मेरा कोई जोर नहीं चलता।

सद्‌गुरु:

दरअसल, आपके मन की प्रकृति ही ऐसी है कि यह आपको वो सब कुछ दिखा सकता है, जो आप देखना चाहते हैं। यह अपने आप में एक शानदार उपकरण है, जिसके कई सारे स्तर और आयाम हैं। यह आपको ऐसी चीजें भी दिखा सकता है, जिनके बारे में आपने चेतनावस्था में कभी सोचा भी नहीं होगा, क्योंकि हर तरह की छाप वहां बनी हुई है।

अपने सारे भीतरी अनुभव और दृश्यों के आभास, खासकर दृश्यों के आभास आप मुझ पर छोड़ दें। मुझ पर छोड़ने का मतलब है कि आप इन अनुभवों या दृश्यों के आभासों का - विश्लेषण, निष्कर्ष, औरों के साथ साझा करना या इन पर विचार करना - जैसा कुछ भी नहीं करेंगे।
इससे पहले कि आप अनुभव के किसी ऐसे धरातल पर पहुंचे, जो आपके आस-पास मौजूद भौतिकता से परे हो, इसके लिए यह जरूरी है कि आप मन के लिए एक बेहतर नींव तैयार करें, जिससे आपके मन का तार्किक आयाम, यानी आपकी बुद्धिमत्ता उस स्थिर नींव पर टिक सके

अगर आप अपनी बुद्धिमत्ता के स्थिर हुए बिना अनुभव चाहते हैं तो उस स्थिति में आप अपना मानसिक संतुलन खो सकते हैं। उसके बाद उस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं रहेगा। फिर आप हर तरह की चीज की कल्पना कर सकते हैं। क्या आप जानते हैं कि कल्पना वास्तविकता से ज्यादा असरदार होती है? अगर आप कभी किसी मानसिक तौर पर अस्वस्थ व्यक्ति के संपर्क में आए हैं तो आपने देखा होगा कि उनकी कल्पनाएं वास्तविकता से ज्यादा असरदार और शक्तिशाली होंगी। खुली आंखों से चीजें आपको इतनी स्पष्ट और चमकदार नहीं दिखतीं, जितनी कि आपको बंद आखों से दिखती हैं।

मूल रूप से आपकी आंखों में पलकें इसलिए होती हैं, अगर आप अपनी आंखों को बंद कर लें तो फिर आपको कुछ और नहीं दिखना चाहिए। जरा ऐसा करने की कोशिश करके देखिए। मेरे साथ तो यह होता है कि जैसे ही मैं अपनी आंखें बंद करता हूं, मेरे लिए दुनिया गायब हो जाती है। पलकें होने का कारण यही है। जैसे ही आप अपनी आंखें बंद करें, दुनिया आपके लिए अदृश्य हो जानी चाहिए। हां, अगर अपनी आंखें बंद करने पर आपको यह दुनिया या कोई और दुनिया नजर आती है तो फिर मन कहलाने वाली इस जटिल मशीन में कुछ न कुछ भावुकता जरूर हावी हो रही है। तो किसी भी साधक या व्यक्ति के लिए पहली साधना यह होनी चाहिए कि जब वह अपनी आंखें बंद करे तो उसे बिल्कुल कुछ भी नजर नहीं आना चाहिए। अगर आपका दिमाग इतना स्थिर हो जाता है और फिर आपको इन दो आंखों से परे कुछ दिखाई देता है तो वह अवलोकन या आभास कहलाता है, वर्ना तो वह पागलपन कहलाएगा।

एक चीज समझने की कोशिश कीजिए कि समझदारी और पागलपन के बीच एक महीन सा फर्क है। कोई भी व्यक्ति जो पूरी तरह से समझदार और संतुलित है, अगर वह खुद को जबरदस्ती तीन दिनों तक इस ओर धकेलता है तो वह आसानी से पागल या उन्मादी बन सकता है, क्योंकि दोनों के बीच फर्क की रेखा बहुत बारीक है। कोई भी व्यक्ति अगर इस दिशा में कोशिश करे तो वह अपना संतुलन खो सकता है। यही वजह है कि जब कोई कहता है कि उसे कोई अनुभव हुआ है तो हम हमेशा उसके द्वारा अनुभव होने की बात को नकारते रहते हैं या खारिज करते रहते हैं।  यहां तक कि अगर हमें लगता है कि वह जो कह रहा है, वह सच कह रहा है तो भी मैं उसे खारिज कर दूंगा, क्योंकि अनुभव की कोई जरुरत नहीं है, और न ही उससे कोई मकसद हासिल होता है। मान लीजिए कि आपने पेड़ से लटकते हुए कोई चीज देखी। हो सकता है कि यह कोई लुभावनी चीज हो, लेकिन फिर भी आखिर इससे क्या मकसद पूरा होता है? आखिर इससे आपकी प्रगति और कल्याण का कोई मकसद तो सफल नहीं होता।

इसलिए अनुभव की तलाश या चाह मत कीजिए। सबसे पहली और जरूरी चीज है कि इस शरीर और दिमाग को स्थिर बनाइए। अगर यह स्थिर हो गए तो आपके सामने भगवान भी आए जाए तो आप उन्हें सहज रूप से देख सकेंगे। अगर कोई शैतान आए तो उसे भी आप सहज रूप से देख सकें और फरिश्ता आने पर भी सहज तौर पर देख सकें। अगर आप इतने स्थिर हो जाते हैं कि आप ईश्वर, शैतान, फरिश्तों, भूत सबको अनेदखा कर सकते हैं तो फिर आपके कुछ देखने में कोई हर्ज नहीं है।

हां, अगर अपनी आंखें बंद करने पर आपको यह दुनिया या कोई और दुनिया नजर आती है तो फिर मन कहलाने वाली इस जटिल मशीन में कुछ न कुछ भावुकता जरूर हावी हो रही है।
वर्ना तो वहीं देखना बेहतर है, जिसे आप अपनी खुली हुई दो आंखों से देख सकते हैं। मैं इस पर बहस करना नहीं चाहता कि आपने कुछ देखा या नहीं, मैं तो बस इतना कह रहा हूं कि आप अपने शरीर और दिमाग को इस हद तक संतुलित कर लें कि जब आप अपनी आंखें बंद करें तो दुनिया आपके सामने से गायब हो जानी चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर आपको कुछ नहीं देखना चाहिए। सबसे पहले अपनी पलकों का इस्तेमाल कीजिए। इन पलकों का मकसद ही यह है कि जैसे ही आप इन्हें बंद करें, दुनिया आपके लिए गायब हो जानी चाहिए। अगर आप अपने कान बंद कर लें तो फिर आपको सुनाई नहीं देना चाहिए।

अगर आंखें बंद करने पर भी आपको चीजें दिखाई देती हैं, अगर कान बंद करने पर आपको सुनाई देता है या मुंह बंद होने पर भी आपको लगता है कि आप बोल रहे हैं तो आप कतई ऐसा मत समझिए कि आप आध्यात्मिक प्रक्रिया में आगे बढ़ रहे हैं। अगर आपके साथ ऐसा हो रहा है तो इसका मतलब है कि एक बेहतरीन यंत्र – मन  पर से अपना नियंत्रण खो रहे हैं। नियंत्रण से बाहर होने पर यह शानदार यंत्र घातक साबित हो सकता है।

अपने सारे भीतरी अनुभव और दृश्यों के आभास, खासकर दृश्यों के आभास आप मुझ पर छोड़ दें। मुझ पर छोड़ने का मतलब है कि आप इन अनुभवों या नजारों का - विश्लेषण, निष्कर्ष, औरों के साथ साझा करना या इन पर विचार करना - जैसा कुछ भी नहीं करेंगे। बस आप इन्हें मुझ पर छोड़ दीजिए। मेरा एकमात्र मकसद आपको निखारने का और पल्लवित होने देने का है। अगर आप इसे महसूस न करके खोजना चाहते हैं, तो आपको मेरे साथ जुड़कर काम करना होगा। यह संभावना तभी फलीभूत होगी, जब आप अपनी सारी पसंद व नापसंद जैसे तमाम विकल्प एक तरफ रखकर, अपने संतुलन और स्थिरता पर काम करेंगे।

Love & Grace