ध्यानलिंग

लिंग सेवा: ईश्वर में विलीन होना

भौतिकता पर अत्यधिक केंद्रित इस दुनिया में, भौतिक और लेन-देन से परे जाने की एक दुर्लभ संभावना के रूप में सद्‌गुरु ने ध्यानलिंग को प्राण-प्रतिष्ठित किया है। इस महीने इस शक्तिशाली ऊर्जा रूप के लोकार्पण के 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं। यहाँ, सद्‌गुरु लिंग सेवा पर प्रकाश डाल रहे हैं, जो ध्यानलिंग की उपस्थिति में पांच या आठ दिनों तक स्वयं को सराबोर करनेका एक अवसर है। जानिए वास्तव में इसकी ऊर्जा प्राप्त करके, बटोरने से विलीन होने तक कैसे जाएं।

प्रश्न: नमस्कार सद्‌गुरु। लिंग सेवा का क्या महत्व है, और स्वयंसेवक मंदिर में अपने आध्यात्मिक विकास के लिए इन सात दिनों का सर्वोत्तम उपयोग कैसे कर सकते हैं? और उस समय एक महिला या एक पुरुष को स्वयं को कैसे रखना चाहिए?  

सद्‌गुरु: यह अच्छा है कि आपने पुरुषों और महिलाओं दोनों की बात की, क्योंकि न केवल इस संस्कृति में बल्कि दुनिया भर में, हजारों वर्षों से, महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी। अब जब यह संभव है, आपको इस अवसर की सराहना करनी चाहिए और इसका उपयोग करना चाहिए। अतीत में यह लगभग असंभव था। 

आप ध्यानलिंग जैसे एक ऊर्जा रूप को छूने जा रहे हैं, और आप मुझसे लाभ के बारे में पूछ रहे हैं? एक तरह से, आप शिव को एक ऊर्जा रूप में छू रहे हैं। कोई भौतिक शरीर नहीं है, लेकिन बाकी सब कुछ वहाँ है। लाभ की मत सोचिए। बस इसमें विसर्जित हो जाना ही तरीका है।

एक तरह से, आप शिव को एक ऊर्जा रूप में छू रहे हैं।

सेवा का अर्थ है कि आप इसमें विसर्जित होना चाहते हैं। जब आप पूछते हैं, ‘मुझे क्या मिलेगा?’ तो आप इसे बाजार बना रहे हैं। ‘मैंने सात दिनों तक ध्यानलिंग की सफाई की, सद्‌गुरु। मुझे क्या मिलेगा?’ अगर आपको कुछ मिलता है, तो आप बेवकूफ हैं। आपको उन सात दिनों में स्वयं को खो देना चाहिए।

अगर आप कुछ पाना चाहते हैं, तो आप माला से कुछ फूल उठाकर अपनी जेब में रख सकते हैं, जब कोई नहीं देख रहा हो। लोग ऐसा करते हैं। कुछ तो सफाई के कपड़ों के टुकड़े फाड़कर अपनी जेब में रख लेते हैं। जो आप लेते हैं, वह आपकी गुणवत्ता नहीं है। जो आप बाहर छोड़ते हैं, वह आपके जीवन की प्रकृति है। 

भारतीय मंदिरों में प्रवेश करते समय कम से कम आधा शरीर खुला होना आवश्यक होता था। आज भी, कुछ मंदिरों में पुरुषों से ऐसा करने की उम्मीद की जाती है। लगभग 40 साल पहले तक, दक्षिण भारत में पुरुष और महिलाएँ मंदिरों में आंशिक रूप से नग्न होकर प्रवेश करते थे। वे बच्चे नहीं थे। बड़ों का इस पर उत्तेजित होने का मतलब है कि वे अभी भी मानसिक रूप से बच्चे हैं। 

इस इलाक़े के पुरुष और महिलाएँ कुछ दशकों पहले तक मंदिरों और सड़कों पर अपने ऊपरी शरीर को बिना ढँके जाते थे। आज भी, कुछ बूढ़े लोग गांवों में अपने ऊपरी शरीर को ढकते नहीं हैं। अगर गर्मी होती है तो वे कुछ नहीं पहनते। कोई इसे कामुक नहीं समझता था। इसे सामान्य माना जाता था। जैसे-जैसे लोग ‘सभ्य’ होते गए, वे और अधिक तंग, बुनियादी और बचकाने होते गए।

आप कुछ पाने के लिए लिंग सेवा करने नहीं जाते। आप वहाँ स्वयं को खोने के लिए जाते हैं।

मंदिर में अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को खुला रखकर प्रवेश करने के पीछे विचार यह है कि ऊर्जा और मनोवैज्ञानिक स्तर पर, आपके पास स्वयं की रक्षा या बचाव करने के लिए कुछ भी नहीं है। आप वहां मौजूद ऊर्जा के प्रति खुले रहना चाहते हैं और उसके द्वारा संचालित होना चाहते हैं। आप यह नहीं सोचते कि घर क्या ले जाना है।

अगर आपको ध्यानलिंग या देवी ने नहीं लिया, बल्कि आप वहाँ से कुछ घर ले जाने के लिए जाते हैं, तो आप नहीं जान पाएंगे कि वह क्या है। आपको थोड़ा सा लाभ मिल सकता है, लेकिन जहाँ एक महासागर उपलब्ध है, वहाँ से केवल एक कप लेना जीने का एक खराब तरीका है। 

सेवा का अर्थ है स्वयं को अर्पित करना। आप कुछ पाने के लिए लिंग सेवा करने नहीं जाते। आप वहाँ स्वयं को खोने के लिए जाते हैं। यही आपको करना चाहिए।