डर एक जिद्दी मेहमान की तरह है, जो बिना बुलाए आता है, और जाने का नाम नहीं लेता है, जो हमारे मानसिक ढांचे को बदल कर हमारे अंदर की रोशनी को कम करता है। लेकिन क्या होगा अगर यह अवांछित मेहमान वास्तव में एक बाहरी घुसपैठिया न होकर हमारे अपने मन का एक काल्पनिक चरित्र हो? सद्गुरु बता रहे हैं कि हमारे सबसे गहरे डर, गलत पहचान के धागों से बुने गए हैं। इसलिए, डर को बाहर निकालने के लिए हमें दरवाजे खोलने की जरूरत है, न कि अपने आप को बंद करने की।
सद्गुरु: मुझे आपसे एक सवाल पूछना है: आपका सबसे गहरा डर क्या है? एक पल निकालकर सोचें कि यह क्या है और क्यों है।
आपने देखा होगा कि आपके जीवन के अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग चीज़ें आपको उत्साहित करती हैं। लेकिन आम तौर पर, आपका सबसे गहरा डर स्थिर रहता है। मनुष्य के निर्माण में डर की भूमिका उन चीज़ों से कहीं ज़्यादा होती है जो उसे उत्साहित करती हैं। ऐसा क्यों है, और हम इसके बारे में क्या कर सकते हैं? मनुष्य में सबसे विनाशकारी भावना डर है।
ज्यादातर लोगों के लिए, डर वह मूल भावना है जो उनकी प्रतिभा, गतिविधियों, प्रेम, खोज और आगे बढ़ने की इच्छा को प्रभावित करती है। उनका भगवान, स्वर्ग जाने की इच्छा, धर्म, और उनकी अधिकांश संस्कृतियाँ सभी डर में निहित हैं। डर मानव जीवन में एक बहुत बड़ी भूमिका निभाता है, जो नहीं होनी चाहिए।
एक ऐसा ही डर है कि कोई आपके जीवन को नियंत्रित कर सकता है और आपको नुकसान पहुँचा सकता है। यह विभिन्न चरणों में विभिन्न तरीकों से प्रकट होता है, चाहे वह स्कूल, कॉलेज, विवाह, नौकरी, आध्यात्मिक प्रक्रिया, या कोई दूसरी नई स्थिति में हो।
यह डर सभी में अलग-अलग स्तरों पर मौजूद है। कुछ लोगों में यह बहुत स्पष्ट और प्रमुख हो सकता है, तो दूसरों में, यह अचेतन हो सकता है।
आपके बारे में कई पहलुओं को पहले से ही दूसरों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है, जिसमें आपके सोचने, महसूस करने, समझने और जीवन को देखने का तरीका शामिल है। लोग डरते हैं कि उनके बॉस, सास, या जीवनसाथी उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं, या उनके बच्चे वृद्धावस्था में उन्हें नियंत्रित कर सकते हैं। यह कई रूपों में आता है, लेकिन यह आखिरकार वही डर है।
किसी और द्वारा नियंत्रित होने का डर इस चिंता से आता है कि जो आप अपने आप को मानते हैं, वह आपसे छिन सकता है। मूल डर यह है कि कुछ बदल सकता है। लोग किसी भी अनजान चीज़ से डरते हैं, भले ही वह जीवन का स्रोत या स्वर्ग ही क्यों न हो।
दरअसल जिसे आप पहले से जानते हैं जो आपके लिए आरामदायक है उसके अलावा आप किसी भी दूसरी चीज़ में कदम नहीं रखना चाहते।
विकास का मतलब लगातार अनजान क्षेत्र में कदम रखना है। विकास की इच्छा रखना लेकिन अनजान से डरना आत्म-पराजय है। मन हमेशा उसके अनुसार चलता है जिसे वह पहले से जानता है, लेकिन इस तरह से कुछ नया जानने का कोई तरीका नहीं होगा। यह स्थिति विशाल डर पैदा करती है।
बुद्धि का उद्देश्य हर चीज़ को वैसा ही देखना है जैसी वह है। अगर आप हर चीज़ को वैसा ही देखेंगे जैसी वह है, तो आपके विचार और भावनाएँ आपके लिए महत्वपूर्ण नहीं होंगी। आप जिस तरह से काम करते हैं, अगर वह आपकी पहचान पर आधारित होता है, तो आप स्पष्ट रूप से नहीं सोच सकते।
जब आप डर में होते हैं, तो आप बहुत सी बेवकूफ़ी भरी चीज़ें करते हैं। आपको लग सकता है कि आप स्पष्ट रूप से सोच रहे हैं, लेकिन ऐसा सच में नहीं होता। आपके डर की जड़ यह है कि आप अपनी पहचान से चिपके हुए हैं।
कोई भी व्यक्ति वास्तव में क्या खो सकता है? आप अपना शरीर, अपना मन और वे सभी चीज़ें खो सकते हैं जिनसे आप पहचाने जाते हैं - और कुछ नहीं। ये सभी चीज़ें, वैसे भी आपने बाहर से ही इकट्ठा की हैं। इनमें से किसी के साथ आपकी जितनी गहरी पहचान होगी, आपका डर उतना ही गहरा होगा।
कुछ लोग इतने आत्म-संतुष्ट और आत्म-मुग्ध दिखते हैं, मानो वे सीधे आत्म-ज्ञान या स्वर्ग की ओर जा रहे हों। लेकिन अगर परिवार में बीमारी या मृत्यु जैसी कोई घटना घट जाती है, तो वे इतने टूट जाते हैं कि उन्हें ठीक करना मुश्किल हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उन्होंने किसी ऐसी चीज़ के आधार पर झूठी पहचान बना ली है जो वे नहीं हैं।
यह जीवन का एक तथ्य है कि लोग बीमार पड़ सकते हैं, मर सकते हैं, या अन्य कठिनाइयों का सामना कर सकते हैं। अगर एक गलत चीज़ होती है, और यह आपको नष्ट कर देती है, तो इसका मतलब है कि आप एक मूर्ख के बनाए स्वर्ग में रह रहे हैं। डर का बुनियादी आधार ख़ुद को वह मान लेना है जो आप नहीं हैं।
चाहे वह आपका पैसा हो, आपके माता-पिता हों, आपका घर हो, आपकी शिक्षा हो, आपके विचार हों, आपकी भावनाएँ हों, आपका शरीर हो, आपका पति, पत्नी, बच्चे हों या कुछ और - आप किसी ऐसी चीज़ से पहचान करते हैं जो आप नहीं हैं, यह मानते हुए कि आप वही हैं। एक बार जब आप किसी ऐसी चीज़ से पहचान कर लेते हैं जो आप नहीं हैं, तो आपके विचार बिना किसी नियंत्रण या स्पष्टता के अंतहीन रूप से चलते रहते हैं।
इस लगातार चल रही विचार प्रक्रिया का आधार गलत पहचान है। यदि आप इन पहचानों को हटा दें, तो कोई विचार नहीं होगा, सब कुछ स्पष्ट हो जाएगा।
इंसान जितना अधिक अपने विचारों से पहचान कर लेता है, उतना ही वह अपने भीतर उलझा और पीड़ित रहता है। विचारों की पूर्ण स्पष्टता के साथ, डर, हताशा, क्रोध या ऐसी किसी भी चीज़ का सवाल ही नहीं उठता। आप जीवन को वैसे ही देखेंगे जैसा वह है, और आपको इससे कोई समस्या नहीं होगी।
आपके आस-पास होने वाली हर चीज़ से आपको समस्या है क्योंकि आप कुछ चीज़ों से पहचाने जाते हैं, और जिस किसी चीज से आप पहचाने नहीं जाते, वह एक समस्या होती है। जो भी चीज़ इस पहचान को ख़तरे में डालती है, वह आपके लिए समस्या है। अगर आपके विचार बिल्कुल स्पष्ट हैं, तो आपके अंदर डर पैदा नहीं होता। चीज़ों को वैसे ही देखना एक वरदान है, जैसी वे हैं, न कि अपनी उम्मीद के अनुसार उन्हें देखना।
चाहे अपनी इच्छाओं से कम पाने का डर हो, अपनी सीमाओं से परे न जा पाने का डर हो, या किसी ऐसी चीज़ को खो देने का डर हो, जिसे आप अपनी ख़ुशहाली का आधार मानते हैं, आपके सभी डर एक ही चीज़ में निहित हैं - किसी ऐसी चीज़ के साथ गलत पहचान जो आप नहीं हैं।
जिस क्षण आप किसी ऐसी चीज़ के साथ पहचान बनाते हैं जो आप नहीं हैं, खोने की संभावना हमेशा आपके जीवन की धुरी को ख़तरे में डालती है, और यह डर दुर्बल करने वाला और विनाशकारी होता है।
किसी रिश्ते, किसी उपलब्धि, एक निश्चित धनराशि या किसी और चीज़ को अपनी ख़ुशहाली का आधार बनाना, ख़ुशहाली के प्रति एक मूर्खतापूर्ण दृष्टिकोण है। पैसा, रिश्ते और दूसरी चीज़ें आपके जीवन को थोड़ा और शानदार और सुंदर बनाने के लिए सजावट के तौर पर जोड़ी जा सकती हैं, लेकिन वे कभी भी ख़ुशहाली का आधार नहीं बन सकतीं।
सच्ची ख़ुशहाली तभी पैदा होती है, जब आप किसी चीज़ से अपनी पहचान बनाने से परे जाते हैं।
इस परंपरा की सबसे मूल आध्यात्मिक प्रक्रियाओं में से एक है ‘नेति, नेति, नेति,’ जिसका अर्थ है ‘मैं वह नहीं हूँ, मैं वह नहीं हूँ, मैं वह नहीं हूँ।’ यह लगातार यह देखने के बारे में है कि आप क्या नहीं हैं।
आप जो हैं, उसे देखने में असमर्थ हैं, इसलिए आपने कई ऐसी चीजों के साथ पहचान बना ली है जो आप नहीं हैं। पहला कदम यह देखना है, ‘मुझे कुछ नहीं पता।’
आप आसानी से ‘मैं नहीं जानता’ पर नहीं पहुंचेंगे, क्योंकि आप बहुत सी चीज़ों से पहचाने जाते हैं। पहचान ही ज्ञान का एक खास भंडार है। किसी व्यक्ति के लिए ‘मैं कुछ नहीं जानता’ पर पहुंचने के लिए, उसे सौ प्रतिशत ‘नेति’ होना चाहिए, जिसने स्वयं को पूरी तरह से काटकर वह सब कुछ हटा दिया हो जो वह नहीं है।
यदि आप अपने मन में से उन सभी चीजों को निकाल देते हैं जो आप नहीं हैं, तो एक विशाल स्वतंत्रता का अनुभव होता है। फिर आप डर से मुक्त हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य और संन्यास की पारंपरिक प्रक्रियाएँ, वह सब कुछ निकालने के सर्जिकल तरीके हैं जो आप नहीं हैं।
वे अपने नए कपड़ों, पहचान और नाम से आसक्त हो सकते हैं, लेकिन इसे संभाला जा रहा है और इसके लिए जरूरी साधना है। ये सभी साधन उस चीज़ को निकालने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं जो आप नहीं हैं।
आप जिस चीज़ पर नज़र डालते हैं, अगर उसके साथ गहराई से जुड़ जाते हैं, तो यह आपके डर के आधार को बदल देगा - आपकी बनाई हुई पहचानें।
आप जिस तरह से सोचते और महसूस करते हैं, अगर उसकी बाधा हटा दी जाती है, तो आपको अपनी अंतिम संभावना को खोजने से कोई नहीं रोक सकता, चाहे वह कुछ भी हो।
यह तथ्य कि आपका मन डर पैदा करता है, यह दर्शाता है कि यह एक सीमा है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि यह आपका मन ही है जो डर पैदा कर रहा है। यह सिर्फ़ डर के लिए ही नहीं बल्कि कई चीज़ों के लिए भी सच है। चाहे वह गुस्सा हो, डर हो, हताशा हो या कुछ और, आपका मन वही बनाता है जो आप नहीं चाहते क्योंकि इसमें स्पष्टता नहीं है।
अगर आपका मन साफ होता, तो वह वही बनाता जो आप चाहते हैं, और आपको दुनिया में एक भी समस्या नहीं होती। जीवन में आपकी सारी समस्याएँ बाहरी होतीं, कभी स्वयं से नहीं होतीं। अगर आपका मन वह बनाता है जो आप नहीं चाहते, तो आपकी आकांक्षाएँ पूरी होने की संभावनाएँ बहुत कम हैं। इस दुनिया में बिना क़ीमत चुकाए और बिना कोशिश किए कुछ भी नहीं होता।
ज़्यादातर लोग संयोग से जीते हैं। पचास प्रतिशत सफल होना आसान है, लेकिन इतनी सफलता-दर के साथ, आप ज़्यादा कुछ नहीं कर सकते। अगर आपकी खुशी और खुशहाली की आकांक्षाओं में से सिर्फ़ पचास प्रतिशत ही पूरी होती हैं, तो आप एक डरा हुआ और निराश जीवन जीएँगे।
आपके अंदर की सारी उथल-पुथल - आपका डर, गुस्सा, हताशा और बाकी सब - आपके मन का काम है। कोई स्पष्टता नहीं है, आपका मन बावला हो गया है। पचास प्रतिशत समय, यह आपके लिए काम कर सकता है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। अगर पचास प्रतिशत समय आप गहरे अवसाद में हैं, तो आप निश्चित रूप से अच्छा नहीं कर रहे हैं।
आपका मानक दुनिया के औसत से ऊँचा होना चाहिए। आपको कोशिश करनी चाहिए कि आपका एक पल भी क्रोध, डर, हताशा या इसी तरह की भावनाओं में नहीं बीते। अगर आप इन चीज़ों से मुक्त रहने का आनंद जानते हैं, तो आप जान जाएँगे कि यह कितना मूल्यवान है।
सामाजिक रूप से जो होता है, वह तो होगा ही, लेकिन आपके भीतर जो होता है, वह जीवन के लिए महत्वपूर्ण है। अस्तित्व में मौजूद सभी चीज़ों में से, क्या आपका जीवन आपके अनुभव के दृष्टिकोण से दुनिया की सबसे कीमती और महत्वपूर्ण चीज़ नहीं है? फिर इसे आपका जरूरी ध्यान क्यों नहीं मिलता?
लोग अपने कपड़ों पर तो बहुत ध्यान देते हैं, लेकिन इस बात पर वे कितना ध्यान देते हैं कि वे अपने अंदर कैसे हैं? आप अपने स्वभाव के बारे में क्या जानते हैं? आप सिर्फ़ उस बिगड़े रूप को जानते हैं जो आपने ख़ुद के लिए बनाया है।
अगर आप अपने अस्तित्व की आनंदमयता को जानना चाहते हैं, तो जीवन में पहला कदम आपको यह उठाना होगा कि अपने मन की सारी बकवास बातों से स्वयं को न जोड़ें। आपका मन जो कुछ भी कहता है, वह सिर्फ़ आपके सामने आई बातों का संग्रह है। इसका जीवन में कोई महत्व नहीं है।
आप कैसे बोलते हैं और क्या करते हैं, यह सामाजिक रूप से प्रासंगिक है, इनका जीवन के स्तर पर कोई महत्व नहीं है। अगर आप अपने जीवन को किसी तरह का महत्व देते हैं, तो आपको अपने विचारों और भावनाओं को कोई महत्व नहीं देना चाहिए।
बुद्धि एक चाकू की तरह है - अगर आप इसे साफ और सुव्यवस्थित रखते हैं, तो यह सब कुछ काट सकती है, वह सब कुछ हटा सकती है जो आप नहीं हैं, और आपको पूरी तरह से प्रकट कर सकती है। आपकी बुद्धि तभी अधिक तीक्ष्ण होगी जब वह किसी भी चीज़ से अपनी पहचान न बनाए। जैसे ही वह पहचानों से घिर जाती है, वह किसी भी चीज़ को काट नहीं सकती।
आपके डर चाहे जो भी हों, उनकी जड़ हमेशा एक ही होती है: आप स्वयं को किसी ऐसी चीज़ से पहचानते हैं और मानते हैं जो आप नहीं हैं।
एक बार जब आप अपने मन से इस विश्वास को हटा देते हैं, तो डर के लिए कोई जगह नहीं रह जाती। एक बार जब डर नहीं रहता, तो दुख का डर भी नहीं रहता। जिस व्यक्ति को दुख का कोई डर नहीं होता, वह एक शानदार जीवन जिएगा।