सद्‌गुरु: भारत में, साधारण बोलचाल में, कब्र को या मरे हुए व्यक्ति के स्मारक को समाधि कहते हैं। जब किसी को किसी जगह दफनाया जाता है या किसी का कहीं अंतिम संस्कार होता है और उस जगह पर किसी तरह का कोई चबूतरा या स्मारक बना दिया जाता है, तो उस जगह को उस व्यक्ति की समाधि कहते हैं। पर वास्तव में, समाधि मानवीय चेतना की वो सबसे ऊँची अवस्था है, जिस तक कोई व्यक्ति पहुँच सकता है।   

जब कोई मरता है और दफनाया जाता है तो उस जगह को उस व्यक्ति का नाम दे देते हैं। जब कोई किसी खास जगह पर कोई खास अवस्था पा लेता है तो उस जगह का नाम उस व्यक्ति के नाम के साथ जुड़ जाता है। यही कारण है कि बहुत से योगी किसी खास जगह के नाम से जाने जाते हैं। कुछ इसी तरह से श्री पलानीस्वामी को उनका नाम मिला क्योंकि वे समाधि की अवस्था में जिस जगह बैठे, उस जगह का नाम पलानी था। लोग उन्हें बस पलानीस्वामी कहते थे क्योंकि उन्होंने कभी, किसी को भी अपना परिचय नहीं दिया था। उन्होंने किसी को अपना नाम नहीं बताया क्योंकि उनका कोई नाम ही नहीं था। चूंकि वे उस जगह समाधि की अवस्था में बैठे तो लोग उन्हें पलानीस्वामी कहने लगे। बहुत सारे योगियों और ऋषियों के नाम इस तरह से पड़े।

समाधि किसे कहते हैं?

समाधि शब्द को ज्यादातर गलत समझा गया है। लोग समाधि को मौत जैसी कोई परिस्थिति मान लेते हैं। समाधि शब्द दो शब्दों से मिल कर बना है - ‘सम’ और ‘धी’। ‘सम’ का मतलब है एक जैसा होना, और ‘धी’ का मतलब बुद्धि है। अगर आप बुद्धि के एक समान स्तर पर पहुँच जायें, जहाँ आप बुद्धि से कोई फर्क नहीं करते, हरेक चीज़ को एक जैसा देखते हैं, तो उसे समाधि कहते हैं।

समाधि शब्द सम और धी को मिला कर बनता है। सम है - एक जैसा, और धी है - बुद्धि। जब आप बुद्धि के एक समान स्तर पर आ जाते हैं तो यह समाधि अवस्था होती है।

बुद्धि का मूल स्वभाव है अंतर बनाना, फर्क करना, दो चीजों को अलग-अलग देखना। आप एक व्यक्ति और एक पेड़ में इसीलिये फर्क कर सकते हैं क्योंकि आपकी बुद्धि काम कर रही है। ये फर्क करने का गुण हमारे जीवित रहने के लिये बहुत महत्वपूर्ण है। अगर आपको कोई पत्थर तोड़ना है तो आपको उस पत्थर और अपनी उंगली में फर्क समझना होगा, नहीं तो आप अपनी उंगली तोड़ लेंगे। फर्क करने का गुण वो साधन है जो आपके शरीर की हर कोशिका में मौजूद जीवित रहने की इच्छा को सहयोग देता है और उसे चलाता है।

अगर आप इस बुद्धि के परे चले जाते हैं तो आप समबुद्धि वाले हो जाते हैं। इसका मतलब ये नहीं है कि आपकी फर्क करने की काबिलियत खत्म हो जाती है। अगर ये खत्म हो जाये तो आप पागल हो जायेंगे। समाधि की अवस्था में भी आपकी फर्क करने वाली बुद्धि अपनी सही अवस्था में होती है पर साथ ही, आप इसके परे चले गये होते हैं। आप कोई फर्क, कोई अंतर नहीं कर रहे, आप बस वहाँ हैं और जीवन को उसका सही काम करते हुए देखते हैं। जिस पल में आप बुद्धि को छोड़ देते हैं या उससे परे चले जाते हैं, तो फिर कोई फर्क नहीं रह जाता।

हर चीज़ एक हो जाती है, पूर्ण बन जाती है, जो एक वास्तविकता है। इस तरह की अवस्था आपको अस्तित्व की एकात्मकता का, यानी हर चीज़ के एकीकरण का अनुभव देती है।

आध्यात्मिकता का पूरा पहलू मात्र जीवित रहने के भाव के परे जाना है, जो सिर्फ जीवन की भौतिकता के लिये ही मायने रखता है। समाधि, सम होने की, हर परिस्थिति में एक जैसा होने की, हर चीज़ को एक जैसा देखने की वो अवस्था है, जिसमें बुद्धि अपने फर्क करने के समान्य काम के परे चली जाती है। इसके कारण व्यक्ति अपने शरीर से थोड़ा छुटा हुआ, थोड़ा अलग पड़ जाता है। आपका शरीर, और, आप जो हैं, उसमें अंतर आ जाता है।

इस अवस्था में कोई समय या स्थान नहीं रहता। समय और स्थान ये आपके मन की रचनायें हैं। जब आप मन की सीमितता के परे चले जाते हैं तो समय और स्थान, आपके लिये, अस्तित्व में ही नहीं रहते। जो यहाँ है, वो वहाँ है। जो अब है, वो तब भी था। आपके लिये कोई भूत या भविष्य नहीं रह जाता, सब कुछ यहीं है, इसी पल में। आपको लग सकता है कि कोई व्यक्ति तीन दिनों से समाधि में है, पर, उनके लिये, ये बस कुछ ही पलों की बात है - ये इसी तरह से गुज़र जाता है। जो है और जो नहीं है, ये उनके लिये दो बातें नहीं रह जातीं, वे इससे परे चले जाते हैं। वे सीमा से परे चले गये हैं और उन्होंने उस स्थिति का अनुभव कर लिया है जो नहीं है - जिसका कोई आकार, रूप, परिचय, गुण नहीं है, कुछ भी नहीं है।

सारा अस्तित्व, सृष्टिरचना के कई सारे प्रकार तभी तक हाज़िर हैं, जब तक फर्क करने वाली बुद्धि है। जिस पल आप अपनी बुद्धि को विसर्जित कर देते हैं, सब कुछ उस एक में ही लीन हो जाता है।

वह, जो नहीं है

अस्तित्व दो चीजों से मिल कर बना है - 'वह, जो है', और, 'वह, जो नहीं है'! 'वह जो है' उसमें आकार, रूप, गुण और सुंदरता है पर 'वह जो नहीं है', उसमें इनमें से कुछ भी नहीं है पर ये स्वतंत्र है। 'वह, जो नहीं है' वो कभी-कभी, यहाँ-वहाँ 'वह जो है' में पनप उठता है और जैसे-जैसे 'वह, जो है' ज्यादा जागरूक होता जाता है, तो वो 'वह, जो नहीं है' बनने के लिये ज्यादा इच्छुक हो जाता है। हालांकि हम 'वह, जो है' के आकार, रूप, परिचय, गुण और सुंदरता से बहुत लगाव रखते हैं, फिर भी, पूरी स्वतंत्रता की अवस्था पा लेने की जीव की इच्छा अनिवार्य और टाली न जा सकने वाली हो जाती है। तो, बस ये समय का ही सवाल रह जाता है। समय और स्थान का बंधन भी 'वह, जो है' का एक भ्रम ही है। 'वह, जो नहीं है' न तो समय और स्थान को समझता है, क्योंकि वे असीमित और अनंत हैं, न ही समय और स्थान की सीमितताओं में जकड़ा होता है।

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जब अस्तित्व की एकदम मूल प्रक्रिया से पूरी तरह मुक्त होने की इच्छा जगती है तो मन और भावनाओं का डरपोक स्वभाव समझता है कि वे नष्ट होने वाले हैं। सोचने वाले मन के लिये, आध्यात्मिक प्रक्रिया कुछ और नहीं पर अपनी इच्छा से की गयी आत्महत्या ही है। पर, ये आत्महत्या नहीं है - ये उससे कहीं ज्यादा है। अपने आपको खत्म करने की इच्छा का एक खराब तरीका आत्महत्या है। मैं इसे खराब कहता हूँ क्योंकि ये असफल ही होता है। ये काम नहीं करता। पर हमारी इस संस्कृति में ऐसे लोग हैं, जो उसको उस ढंग से करते हैं, जिससे ये वाकई में काम करता है - वह होती है आध्यात्मिक प्रक्रिया।

समाधि के आठ प्रकार

समाधि के अलग-अलग प्रकार हैं। मनुष्य को आठ प्रकार की समाधियाँ उपलब्ध हैं। इनमें से, मोटे तौर पर जिन्हें सविकल्प कहा गया है, उनमें गुण हैं - वे बहुत सुखद, आनंदपूर्ण और उल्लासपूर्ण हैं और वे जिन्हें निर्विकल्प कहा गया है, वे सुखद और दुखद अवस्थाओं से परे हैं, उनमें कोई गुण या गुणवत्ता नहीं हैं।

आत्मज्ञान पाने की दृष्टि से समाधि की अवस्था का कोई खास महत्व नहीं है

जो निर्विकल्प समाधि की अवस्था में जाते हैं, उन्हें हमेशा सुरक्षित वातावरण में रखना पड़ता है क्योंकि अपने शरीर के साथ उनका संपर्क बहुत ही कम रहता है। छोटी सी भी गड़बड़ी, जैसे कोई आवाज़ या सुई का चुभोना भी उन्हें उनके शरीर से अलग कर सकता है। ऐसी अवस्थायें कुछ खास समय तक रखनी पड़ती हैं जिससे उनमें और उनके शरीर में अंतर, अलगाव बना रहे। किसी के आध्यात्मिक विकास में ये एक महत्वपूर्ण कदम है, पर ये अंतिम अवस्था नहीं है। आत्मज्ञान पाने की दृष्टि से समाधि की अवस्था का कोई खास महत्व नहीं है।

गौतम बुद्ध के कई शिष्य लंबे समय तक ध्यान करते थे। कई-कई सालों तक वे बाहर नहीं आये। पर खुद बुद्ध ने ऐसा कभी नहीं किया क्योंकि उन्होंने जान लिया था कि ऐसा करना ज़रूरी नहीं था। अपने आत्मज्ञान से पहले उन्होंने आठों तरह की समाधियों का अनुभव लिया था, और फिर उन्हें छोड़ दिया था। उन्होंने जान लिया कि इनसे वे आत्मज्ञान के पास नहीं पहुँचेंगे। ये सिर्फ अनुभव के ज्यादा ऊँचे स्तर पर जाना ही है और आप इसमें ज्यादा फँस सकते हैं क्योंकि यह अवस्था आपकी अभी की वास्तविकता से ज्यादा सुंदर होती है। अभी, जब आप ध्यान में बैठते हैं तो, कम से कम, आपके पैरों में होने वाला दर्द आपको अभी की वास्तविकता की याद कराता है। समाधि की अवस्था में, आपको याद कराने के लिये, कोई दर्द नहीं होता, और ये एक तरह से ज्यादा खतरनाक है।

एक अस्थायी व्यवस्था

किसी खास तरह की समाधि का अनुभव होने का ये मतलब नहीं है कि आप अस्तित्व से बाहर आ गये हैं। ये अनुभव का सिर्फ एक नया स्तर है। ये वैसे ही है जैसे कि, जब आप बच्चे थे, तब आपके अनुभव एक स्तर के होते थे। जब आप वयस्क हो गये, तो आपके अनुभव एक नये स्तर के हैं। अपने जीवन के अलग अलग समय पर एक ही बात का एकदम अलग तरह से अनुभव होता है। समाधि कुछ ऐसी ही होती है। आप अनुभव के एक स्तर से दूसरे स्तर के अनुभव पर ज्यादा महत्वपूर्ण, ज्यादा गहरे ढंग से जाते हैं, पर फिर भी, आखिर तो ये, बस, अनुभव का एक और स्तर ही होता है।

कोई एक खास तरह की समाधि की अवस्था में जा सकता है और उसमें कई साल तक रह सकता है, क्योंकि इसमें बहुत मजा आता है। स्थान या समय की कोई बात ही नहीं होती, कोई शारीरिक समस्या नहीं आती। कुछ हद तक, उसने अपनी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रुकावटों को तोड़ दिया है। पर, ये अस्थायी है। जैसे ही वो बाहर आता है, उसे फिर से भूख लगती है, उसे सोना पड़ता है और हर चीज़ वापस आ जाती है।

समाधि के निश्चित तौर पर लाभ हैं। किसी व्यक्ति को देने के लिये, इसके पास बहुत सारी चीजें हैं, पर, ये आपको आत्मज्ञान के पास बिल्कुल भी नहीं ले जाती। किसी व्यवस्थित आदमी की तुलना में, थोड़े पिये हुए आदमी के अनुभव का स्तर अलग होता है, पर किसी समय पर तो उसे व्यवस्थित होना ही पड़ता है। मैं तो कहूँगा कि किसी भी प्रकार की समाधि, एक तरह से, कोई बाहरी नशा लिये बिना थोड़ा बहका हुआ होने की अवस्था ही है। इन अवस्थाओं में जाने से आपके लिये एक नया आयाम खुलता है, पर, इससे, आप में कोई बड़ा बदलाव नहीं आता। आप किसी नयी वास्तविकता में नहीं पहुँचते। बात बस ये है कि उसी एक वास्तविकता में आपके अनुभव का स्तर ज्यादा गहरा हो गया है। आपने उसी चीज़ का अनुभव ज्यादा गहराई में लिया है। आप अपने मन से मुक्त नहीं हुए हैं।

अपने ही संसार में फँस जाना

बहुत से योगियों ने अपने ही अलग संसार बनाये हैं और इस तरह, वे ऐसी वास्तविकताओं में फँस गये हैं। मैं अब उस क्षेत्र में जा रहा हूँ जो सांध्यकालीन समय जैसा है (जिसमें हर चीज़ स्पष्ट नहीं होती), पर ऐसे बहुत से योगी हैं जिन्होंने अपने चारों तरफ अपने ही संसार बना लिये हैं। कोई योगी किसी गुफा में जा कर रहता है और वास्तव में, वो वहीं अपना ब्रह्मांड बना लेता है। ये कोई मजाक नहीं है। वो जो भी चाहता है, वो सब बना लेता है - अपनी ही तरह के ग्रह, अपनी धरती, हर चीज़ उसकी अपनी ही तरह की - और वो वहाँ बड़ी खुशी से रहता है। गुफा के अंदर पूरा ब्रह्मांड होता है। आप चाहें तो एक परमाणु जितनी जगह में भी पूरा ब्रह्मांड बना सकते हैं, क्योंकि, 'यहाँ और वहाँ', 'अब और तब', 'इतना और उतना', ये सब मन की ही तो रचनायें हैं।

ऐसे बहुत से योगी हैं पर वे किसी भी तरह से आप से ज्यादा आत्मज्ञान के नज़दीक नहीं हैं। वे एक अलग दुनिया में रहते हैं, बात बस इतनी ही है। शायद आप से ज्यादा वे फँसे हुए हैं क्योंकि वे उस ब्रह्मांड के रचनाकार भी हैं। उन्होंने सृष्टिरचना की कला सीख ली है। पर ये अंतिम मुक्ति नहीं बन पाती। ये अलग तरह का काम बन जाता है, चीजें करने का एक अलग ढंग।

कोई चित्रकार कैनवास पर एक नया संसार बना देता है। कोई योगी वास्तव में इसे बनाता है। चित्रकार की रचना दो आयामों वाली होती है जब कि योगी की कृति तीन आयामी होती है। ये ज्यादा धोखा देने वाली बात है। कोई कलाकार जो दुनिया बना रहा है उसमें वो इतना ज्यादा शामिल हो जाता है कि वो उसे सच मानने लगता है और उसके लिये ये सच ही होता है। एक कवि को यकीन होता है कि जो कुछ वो लिख रहा है, वही सच है। इसी तरह से, कोई चित्रकार जो कुछ भी बना रहा है, उसमें वो इतना ज्यादा तल्लीन हो जाता है कि उसको यकीन हो जाता है कि वही सच है। जब दो आयामी चीजें ऐसी हैं तो, अगर आप अपने चारों ओर तीन आयामी चीजें बना लें तो निश्चित ही, आप उनमें कहीं ज्यादा फँस जाते हैं।

अपना मकसद तय करना

जब आप अपनी ही चेतना से परे जाना चाहते हैं, तो आपके पास जो कुछ भी है, उस हरेक चीज़ की ज़रूरत आपको पड़ती है। अलग-अलग अवस्थाओं में जाना महत्वपूर्ण नहीं है, ये आपको मुक्ति की तरफ नहीं ले जायेगा। बहुत से लोगों को समाधि की अवस्था में ले जाने के लिये हमारे पास पर्याप्त ऊर्जा है। अगर आप तीन या छः महीनों के लिये उसमें जाना चाहते हैं तो ये संभव है। पर, उससे हासिल क्या होगा? ये आपको विसर्जित नहीं करेगा। ये बस एक और तरह का कर्म बंधन ही है।

अगर आपने अपना मकसद तय कर लिया है, अगर आपके जीवन में सबसे बड़ी प्राथमिकता मुक्ति ही है, तो कोई भी चीज़, जो आपको मुक्ति के एक कदम नज़दीक न ले जाये, वो बेकार है। कोई आदमी जो माउंट एवरेस्ट पर चढ़ना चाहता है, वो एक कदम भी इधर उधर, सही रास्ते से अलग नहीं रखता, जब तक ये बिल्कुल ही ज़रूरी न हो। उसकी ऊर्जा की छोटी से छोटी मात्रा भी सिर्फ शिखर तक जाने के लिये ही खर्च होती है। जब, आप अपनी ही चेतना से परे जाना चाहते हैं तब आपके पास जो कुछ भी है, उस हरेक चीज़ की ज़रूरत आपको पड़ती है।

महासमाधि

महासमाधि वो आयाम है जिसमें आप फर्क करने की योग्यता के परे जाते हैं - सिर्फ अनुभव की दृष्टि से ही नहीं, पर अस्तित्व की दृष्टि से भी।

जब तक आप शरीर में हैं, जो भी मुक्ति आप पा लें, आपका शरीर तो एक सीमितता रहेगा ही। ये पूरी मुक्ति नहीं होती। जब कोई अपना शरीर पूरी जागरूकता में छोड़ता है, तो हम उसे महासमाधि कहते हैं क्योंकि उसने अपना शरीर भी छोड़ दिया है।

महासमाधि वो आयाम है, जिसमें आप फर्क करने की योग्यता के परे जाते हैं - सिर्फ अनुभव की दृष्टि से ही नहीं, पर अस्तित्व की दृष्टि से भी! आप हैं और कोई अन्य है, ऐसी कोई बात नहीं रहती। अभी तो आप हैं और कोई दूसरा है, ये वास्तविकता आपको पता है। समाधि की अवस्था में आप उस फर्क के परे चले जाते हैं और अपने अनुभव में आप अस्तित्व की एकरूपता को देख सकते हैं।

महासमाधि का मतलब है कि न केवल आप उसे उस तरह से देखते हैं, बल्कि आप पूरी तरह से वैसे ही हो गये हैं - फर्क खत्म हो गया है। आपके लिये सब कुछ एक ही है। व्यक्तिगत अस्तित्व खत्म हो गया है। "आप कौन हैं", ये बात अब है ही नहीं। अभी जो जीवन व्यक्तिगत जीवन की तरह चल रहा है, वह पूरी तरह से ब्रह्मांडीय या असीमित हो जाता है। अगर इसे पारंपरिक रूप से कहा जाये तो आप ईश्वर के साथ या हर चीज़ के साथ एक हो गये हैं।

जब मैं कहता हूँ, "ईश्वर के साथ एक", तो इसका मतलब किसी के साथ कहीं जा कर मिलना नहीं है। बात बस ये है कि अब आपका व्यक्तिगत बुलबुला नहीं रहा। अगर कोई उदाहरण देना हो तो अभी आपका अस्तित्व बस एक बुलबुले की तरह है। एक बुलबुला, जो इधर-उधर भटक रहा है, वह एकदम वास्तविक है, पर, अगर आप उसे फोड़ दें तो उसके अंदर की हवा कहाँ जाती है? ये बस वातावरण के साथ मिल जाती है, पूरी तरह से उसमें लीन हो जाती है। हम जब कहते हैं, "हर चीज़ के साथ एक" तो यही मतलब है, वहाँ कुछ भी नहीं होगा, आप भी नहीं होंगे। हम जब कहते हैं, 'मुक्ति' तो इसका मतलब है कि आप अस्तित्व से मुक्त हैं। मैं अस्तित्व को किसी मात्रा के रूप में नहीं देख रहा कि जिससे आप मुक्त हैं। आप अपने खुद के अस्तित्व से मुक्त हैं - आप का अस्तित्व खत्म हो गया है।

निर्वाण - अस्तित्व के परे जाना

महासमाधि वो अवस्था है, जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छा से अपना शरीर छोड़ देता है। जीवनचक्र पूरा हो जाता है। अब पुनर्जन्म का कोई सवाल ही नहीं उठता। ये पूरी तरह से विसर्जन है। आप कह सकते हैं कि ये व्यक्ति वास्तव में अब नहीं है।

हम जब मुक्ति, निर्वाण या मोक्ष की बात करते हैं, तो यही होता है - अस्तित्व के बोझ से ही मुक्ति। वो आखिरी आज़ादी है, अंतिम मुक्ति, क्योंकि जब तक आपका अस्तित्व है, तब तक आप एक या दूसरी तरह से बंधे हुए होते हैं। अगर आप भौतिक रूप से, शारीरिक रूप से हैं, तो ये एक तरह का बंधन है। अगर आप भौतिक शरीर छोड़ देते हैं और किसी दूसरी तरह से रहते हैं तो ये फिर भी दूसरी तरह का बंधन है। हर वो चीज़ जो अस्तित्व में है, वो किसी न किसी नियम से बंधी है। मुक्ति का मतलब है कि आपने सभी नियमों को, कायदों को तोड़ दिया है, और सभी नियम तभी तोड़े जा सकते हैं जब आपका अस्तित्व ही नहीं रहता।

निर्वाण ज्यादा सही, ज्यादा उपयुक्त शब्द है क्योंकि निर्वाण का मतलब है - अस्तित्व न होना। जब कोई अस्तित्व ही नहीं है तब आप आज़ादी से, मुक्ति से भी मुक्त हैं क्योंकि मुक्ति भी एक तरह का बंधन है। तो आप अपने अस्तित्व से ही मुक्त हो जाते हैं। "आप क्या हैं" और "आप क्या नहीं हैं", इनके बीच का सारा फर्क ही खत्म हो जाता है।

अगर किसी को यह करना है - अपने शरीर को कोई नुकसान या चोट पहुँचाये बिना अपने जीवन को शरीर से बाहर फेंक देना - तो उसके लिये बहुत सारी, जबर्दस्त ऊर्जा चाहिये। महासमाधि वो अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छा से अपना शरीर छोड़ देता है। जीवनचक्र पूरा हो जाता है। अब पुनर्जन्म का कोई सवाल ही नहीं उठता। ये पूरी तरह से विसर्जन है। आप कह सकते हैं कि ये व्यक्ति वास्तव में अब नहीं है।

जीवन बस एक स्तर से दूसरे पर पहुँच जाता है। वास्तव में मौत नाम की कोई चीज़ नहीं है। मौत सिर्फ उनके लिये है जिन्हें जीवन के बारे में कोई जागरूकता नहीं है। यहाँ बस जीवन है, जीवन है और जीवन ही है। पर, महासमाधि का मतलब है वास्तविक अंत। ये हरेक आध्यात्मिक जिज्ञासु का मकसद है। आखिर तो, वे स्त्री हों या पुरुष, वे अस्तित्व के परे जाना चाहते हैं।

 

संपादकीय टिप्पणी: "मिस्टिक्स और मिस्टेक्स". से जानिये, सद्‌गुरु दिव्यदर्शी आयाम के बारे में क्या कहते हैं?