'श्रीकृष्ण और महिलाएं' श्रृंखला में आपने पिछले अंकों में पढ़ा, माता यशोदा, पहली पत्नी रुक्मणि और दूसरी पत्नी सत्यभामा के बारे में। इस श्रृंखला में इस बार पढ़िए शैब्या की कहानी:

शैब्या करावीरपुर के राजा श्रीगला वासुदेव की भतीजी थी। श्रीगला वासुदेव एक बेवकूफ और आडंबरप्रिय आदमी था। उसका मजाक उड़ाने के लिए एक बार लोगों ने उससे कहा - आप भगवान हो। चूंकि उसका दूसरा नाम वही था जो कृष्ण का था, इसीलिए लोगों ने उससे कहा कि जिन वासुदेव का जिक्र भविष्यवाणी में हुआ था, वह आप ही हो। इसके बाद उसने खुद को वास्तव में भगवान मानना शुरू कर दिया।

श्रीगला ने अपना धनुष थामा और तुरंत ही कृष्ण की ओर बाण छोड़ने लगा। इससे कोई खतरा नहीं था, क्योंकि बाण कभी सीधे जाते ही नहीं थे। वह चारों तरफ बिखर जाते थे।
उसके अंदर भगवान जैसी कोई बात नहीं थी, इसलिए उसने दिव्य दिखने के लिए देवताओं की तरह के कपड़े धारण कर लिए। या यूं कहिए कि वैसी पोशाक धारण कर ली, जैसी लोगों की सोच में देवताओं की पोशाक होती है, जैसे कैलंडर में भगवान दिखाए जाते हैं। उस राज्य के ऋषि-मुनि, ज्ञानी और विद्वान लोग उसकी इस बात से सहमत नहीं थे, इसलिए उसने उन सभी को पकड़कर कालकोठरियों और जेलों में बंद कर दिया और उनके आश्रमों में ताले जड़वा दिए। श्रीगला ने सब तरफ यह घोषणा करा दी कि मैं वासुदेव हूं, इसलिए मैं ही भगवान हूं।

बचपन से ही शैब्या के दिमाग में यह बात बैठा दी गई थी कि उसके चाचा भगवान हैं। शैब्या दिखने में सांवली और बेहद सुंदर होने के साथ-साथ बहादुर भी थी। वह पक्के तौर पर यह मानती थी कि उसके चाचा ही भगवान हैं। श्रीगला वासुदेव भी उसी यादव जाति का था, जिससे कृष्ण ताल्लुक रखते थे। अत: जब श्रीकृष्ण को मथुरा से भागना पड़ा, तो लोगों ने उन्हें श्रीगला वासुदेव के पास जाने को कहा। लोगों ने कहा कि वह ही आपको सहारा देंगे, लेकिन रास्ते में उन्हें परशुराम मिल गए, जो एक महान योद्धा और ऋषि थे। परशुराम ने कृष्ण से कहा कि 'वासुदेव एक आडंबरप्रिय आदमी है। उसमें बिल्कुल भी बुद्धि नहीं है। वह आपको किसी भी कीमत पर बेच सकता है। वैसे आपको कोई भी राजा किसी भी कीमत पर बेच सकता है। इन राजाओं और शासकों में से कोई भी विश्वसनीय नहीं है। वे बस अपना फायदा देखते हैं। वे आपकी जान भी ले सकते हैं। इसीलिए आप वहां न जाएं।'

इसके बाद परशुराम, कृष्ण और उनके साथियों को गोमांतक ले गए, जहां गरुड़ जाति के लोग रहते थे। इस जाति के लोगों ने कृष्ण की मरते दम तक सेवा की। वैंतेय नाम के अपंग लड़के को कृष्ण ने बिल्कुल ठीक कर दिया। वैंतेय अपनी आखिरी सांस तक उनके साथ खड़ा रहा।

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परशुराम के मना करने पर श्रीकृष्ण उस समय तो करावीरपुर नहीं गए, लेकिन बाद में वह वहां गए, क्योंकि श्रीगला वासुदेव अत्याचारी शासक जरासंध के साथ एक संधि कर रहा था। जरासंध बेहद महत्वाकांक्षी था और किसी को जीतने के लिए वह क्रूरता की किसी भी हद तक जा सकता था। जब कृष्ण करावीरपुर पहुंचे, तो उन्होंने अपने दूत को भेजकर वासुदेव से मिलने की इच्छा जताई। इस पर वासुदेव ने कहा- 'उसकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई? मैं भगवान हूं। क्या वह अब यहां खुद को भगवान साबित करने आ रहा है?' वासुदेव तो बेवकूफ था, लेकिन किसी तरह शैब्या जैसी बहादुर और समझदार लड़की इस झांसे में फंस गई थी कि वह भगवान है, और उसकी पूजा करने लगी थी! श्रीगला की ताकत को बढ़ाने के पीछे कई जगहों पर उसी का दिमाग था।

जब कृष्ण ने श्रीगला वासुदेव के पास अपना दूत भेजा तो उसने दूत के संदेश को अस्वीकार कर दिया और उसे बंदी बना लिया। इसके बाद वह अपने चार पहियों वाले आकर्षक रथ पर सवार हुआ और यह कहता हुआ चल पड़ा कि मैं कृष्ण को मजा चखाकर आता हूं। आमतौर पर लड़ाई में काम आने वाले रथ में दो पहिए होते थे। ये पहिए छोटे होते थे ताकि उन्हें युद्ध के मैदान में आसानी से घुमाया जा सके। वह आराम के हिसाब से नहीं बनते थे, बल्कि उन्हें तेज चाल और दक्षता के लिए बनाया जाता था। लेकिन वासुदेव के पास चार पहियों वाला एक बहुत बड़ा सुनहरे रंग का रथ था, जिसमें बैठकर वह लड़ने को निकला था। उसने अपनी जिंदगी में कभी कोई युद्ध नहीं किया था। उसका रथ बहुत भारी था, जो केवल उसे नगर में घुमाने के लिए ही अच्छा था। रथ में चढ़कर वह किले के बाहर जाकर चिल्लाया - 'कहां है कृष्ण? मैं उसे मारने जा रहा हूं।'

वह समझता था कि उसके पास दिव्य शक्तियां हैं, जो जरूरत पड़ने पर उसका साथ देंगी। श्रीगला वासुदेव को अपनी ओर आता देख कृष्ण को लगा कि वह उनका स्वागत करने के लिए उनके पास आ रहा है, इसलिए कृष्ण भी अपना रथ ले उसकी ओर चल दिए। श्रीगला ने अपना धनुष थामा और तुरंत ही कृष्ण की ओर बाण छोडऩे लगा। इससे कोई खतरा नहीं था, क्योंकि बाण कभी सीधे जाते ही नहीं थे।

चूंकि उसका दूसरा नाम वही था जो कृष्ण का था, इसीलिए लोगों ने उससे कहा कि जिन वासुदेव का जिक्र भविष्यवाणी में हुआ था, वह आप ही हो। इसके बाद उसने खुद को वास्तव में भगवान मानना शुरू कर दिया।
वह चारों तरफ बिखर जाते थे। इस बीच कृष्ण लगातार उसे संकेतों से समझाने की कोशिश कर रहे थे कि हमें बात करनी है। लड़ने की तो कोई बात ही नहीं है, मैं आपके राज्य के लिए नहीं आया हूं, बल्कि आप जो गलत संधि करने जा रहे हैं, मैं उसके बारे में बात करने आया हूं। लेकिन श्रीगला लगातार उन पर बाण चलाता रहा और वे दोनों एक दूसरे के और पास आते गए।

कृष्ण के रथ के दोनों घोड़ों ने अपने आगे के दोनों पैर ऊपर उठा लिए और झटके से श्रीगला के घोड़ों को धक्का दिया। श्रीगला का रथ अचानक बेकाबू होकर घूम गया। श्रीगला फिर घूमकर कृष्ण के सामने आया, लेकिन तब भी कृष्ण ने उसे बाण न चलाने को कहा, लेकिन वह नहीं रुका। इसी बीच एक बाण कृष्ण के मुकुट में लगा और उनका मुकुट गिर गया। श्रीकृष्ण को यह अच्छा नहीं लगा। मोर पंख और ये सब चीजें उन्हें बहुत लुभाती थीं। लोग उन्हें चाहे कितना ही भला-बुरा कह लें या उनके शरीर को किसी भी तरह का नुकसान पहुंचा लें, उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगता था, लेकिन उन्हें यह कतई पसंद नहीं था कि कोई उनके मोरपंख या मुकुट को छुए। कृष्ण ने अपना चक्र निकाला और श्रीगला का सिर पल भर में जमीन पर गिर पड़ा। उसके अंत के साथ ही लोगों के मन से उसके भगवान होने का भ्रम भी टूट गया। वे विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि एक देवता इस तरह बिना कोई जोर लगाए बिखर गया और चक्र के केवल एक ही वार से वह मर गया।

श्रीगला को मारने के बाद कृष्ण जब नगर में पहुंचे तो लोगों को लगा कि वे राजा को मारकर अब राज्य को हथियाने आए हैं। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि कृष्ण ने श्रीगला के बेटे सहदेव को वहां का राजा बना दिया। चूंकि सहदेव की उम्र अभी कम थी, इसलिए कृष्ण उस नौजवान बालक की राज्य पर पकड़ बनने तक वहीं रुक गए। इन सब के बीच शैब्या को अपनी नफरत जताने और कृष्ण को मारने की मंशा पूरी करने का भरपूर मौका मिल गया। उसकी नफरत की आग कृष्ण के मन बहलाव का जरिया बन गई थी।

 

आगे पढ़िए: एक तरफ शैब्या तो कृष्ण के नफरत की आग में जल रही थी, दूसरी तरफ कृष्ण के दो मित्र – श्वेतकेतु और उद्धव, शैब्या के प्रेम में पागल थे। तो फिर क्या अंजाम हुआ इस प्रेम-त्रिकोण का? किसकी हुई शैब्या?