सद्‌गुरु:

अगर आप खुद से ज्यादा महत्वपूर्ण किसी दूसरे को समझते हैं, तो स्वाभाविक रूप से आप स्वयंसेवी हैं। जब आप अपने बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं, तो आप स्वयंसेवी नहीं हो सकते।

स्वयंसेवी: पसंद नापसंद से परे 

आपको यह पसंद है, यह पसंद नहीं है, अगर ऐसा है तो आप एक संघर्षरत इंसान हैं। आप जहां भी होंगे, आप संघर्ष करेंगे।
इसीलिए अगर आप वास्तव में अच्छे स्वयंसेवक बनना चाहते हैं तो आपको किसी ऐसी जगह भेजा जाना चाहिए, जहां जाना आपको बिल्कुल पसंद नहीं है। आपसे ऐसी चीजें करवानी चाहिए, जिन्हें करने से आपको नफरत है। आपको ऐसे लोगों के साथ काम में लगाया जाना चाहिए, जिनके साथ आप खड़े होना तक पसंद नहीं करते- यह बात सबसे महत्वपूर्ण है। अगर आपने अपनी पसंद नापसंद से छुटकारा पा लिया तो समझ लीजिए कि आप स्वयंसेवी हैं। अगर आपको अपने जीवन का हर पहलू पसंद है तो आप स्वयंसेवी हैं। आपको यह पसंद है, यह पसंद नहीं है, अगर ऐसा है तो आप एक संघर्षरत इंसान हैं। आप जहां भी होंगे, आप संघर्ष करेंगे। आप जहां भी रहेंगे, वहीं कोई न कोई उल्टा-सीधा काम करेंगे, क्योंकि आप पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हैं, आप एक ऐसे शख्स हैं जिसने दुनिया को बांट रखा है।

इस जगत को बांटा नहीं जा सकता। अगर आप इस सृष्टि को गौर से देखें आपको पता चल जाएगा कि इसे बांटा नहीं जा सकता। कोई इसे कभी बांट ही नहीं सकता। कोई तरीका ही नहीं है। जब आप इस दुनिया को अपने मन में पसंद और नापसंद, इच्छा और अनिच्छा, प्रेम और नफरत के बीच बांट लेते हैं, तो आप किसी छोटी मोटी चीज का विरोध नहीं कर रहे हैं, आप इस सृष्टि और सृष्टिकर्ता के विरोध में खड़े हैं, क्योंकि जिसे आप सृष्टिकर्ता कहते हैं, वह तो सर्वव्यापक है, उसकी कोई पसंद नहीं है, कोई नापसंद नहीं है। आप जिसे गंदगी समझते हैं, वह किसी और के लिए पोषण हो सकता है। जो चीजें गंदगी से ही पोषण लेती हैं, वही आपको खुशबूदार और मीठी भी लगने लगती हैं। आपके अंदर ऐसी समझ होनी चाहिए कि आप गंदगी और भोजन को अलग अलग तरह से संभाल सकें, देख सकें। आपको दुनिया को गंदगी और भोजन के रूप में बांटने की जरूरत नहीं है।

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स्वयंसेवा: स्वर्ग की सीढ़ी

अगर आप कोई भी काम बिना इच्छा के करते हैं तो वह आपके लिए नर्क बन जाएगा और अगर आप कोई भी काम स्वेच्छा से करते हैं तो वही स्वर्ग हो जाएगा।
जीवन को बेहतरीन और खूबसूरत तरीके से संभालने में आपकी बुद्धि को आपकी मदद करनी चाहिए थी, लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि आप उसका इस्तेमाल इस दुनिया को बांटने में कर रहे हैं और कष्ट उठा रहे हैं। तो कम से कम जब आप यहां हैं, तो आपको गंदगी और फलों के बीच अंतर देखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। आप फल को प्लेट में रखकर खाएं, लेकिन आपके भीतर गंदगी को लेकर भी कोई नफरत न हो। अगर आपके मन में किसी चीज के प्रति आकर्षण और दूसरी चीज के प्रति नफरत पैदा हो गई तो इसका अर्थ है कि आपने इस दुनिया को बांट दिया। इस तरह के बंटवारे से कोई सेवा नहीं होती। इसका मतलब है कि आप जीवन की स्वैच्छिक प्रक्रिया नहीं हैं। अगर आप कोई भी काम बिना इच्छा के करते हैं तो वह आपके लिए नर्क बन जाएगा और अगर आप कोई भी काम स्वेच्छा से करते हैं तो वही स्वर्ग हो जाएगा।

कोई भी इंसान जो अपने जीवन में कभी स्वयंसेवी रहा है, उसने स्वर्ग जैसा महसूस किया होगा, क्योंकि वह उस काम को अपनी इच्छा से कर रहा है। अगर उसी काम को आप बेमन करेंगे तो वही काम आपको नर्क जैसा एहसास देगा। इस तरह स्वयंसेवा को हम स्वर्ग की सीढ़ी कह सकते हैं। नहीं, सीढ़ी पर चढ़ना तो मुश्किल होता है, यह तो स्वर्ग की ओर जाती एक ढलान की तरह है, क्योंकि ऐसा लगता है कि आप नीचे जा रहे हैं, लेकिन वास्तव में आपके अनुभव में जीवन बेहतर से बेहतर होता जाता है। आप जितना ज्यादा स्वेच्छा से काम करेंगे आपका काम उतना ही अधिक शानदार होता जाएगा। तो अगर आप स्वयंसेवी नहीं हैं तो आप या तो एक पीड़ित जीवन होंगे या आप किसी पीड़ा या परेशानी के आ जाने के भय में जी रहे होंगेे। आपको आनंद के मौके बहुत कम मिलेंगे, लेकिन हमेशा उनके साथ कष्ट और परेशानियों का भय जुड़ा होगा। आप देखेंगे कि बहुत से लोग अपनी खास पसंद और नापसंद पैदा कर लेते हैं। जैसे-जैसे कोई इंसान सफल होता जाता है, वैसे-वैसे उसके अंदर इस तरह की पसंद-नापसंद ज्यादा प्रबल होती जाती है। दरअसल, ऐसे लोगों को लगने लगता है कि अगर चीजों को लेकर उन्होंने अपनी खास पसंद-नापसंद नहीं बनाई तो उनका कोई व्यक्तित्व ही नहीं रहेगा।

स्वयंसेवी: है हरदम तैयार

सवाल यह नहीं है कि आप कितनी सेवा कर रहे हैं। आप कितनी इच्छापूर्वक हर सांस लेते हैं, हर कदम बढ़ाते हैं और जीते हैं -यही आपको स्वयंसेवी बनाता है।
अगर आपमें पसंद-नापसंद का स्पष्ट और दृढ़ अहसास नहीं हैं, तो लोग सोचेंगे कि आपका कोई व्यक्तित्व ही नहीं है। अगर आपमें इस अंतर का अहसास मजबूत है तो आपका व्यक्तित्व तो होगा पर आपकी कोई मौजूदगी नहीं होगी, आप खाली ही रह जाएंगे। अगर आप स्वयंसेवी बन जाते हैं तो आपका कोई व्यक्तित्व नहीं होगा, एक व्यक्तित्व का बोझ आपको अपने साथ नहीं ढोना होगा, लेकिन आपकी उपस्थिति हमेशा शानदार होगी। तो जब लोग कामयाब या अमीर हो जाते हैं तो पसंद और नापसंद के बारे में उनकी सोच बड़ी पुख्ता होती जाती है। जैसे-जैसे पसंद-नापसंद को लेकर उनकी सोच पुख्ता होती है, वैसे-वैसे उनके कष्टों में बढ़ोत्तरी होती जाती है। पैसे की वजह से उन्हें कष्ट नहीं होता है, वे परेशानी इसलिए उठाते हैं, क्योंकि उन्होंने दुनिया को इतने जबर्दस्त तरीके से बांट रखा है, कि यह सृष्टि और सृष्टा दोनों उनके खिलाफ  काम करने लगते हैं। ऐसे जीवन में कोई ईश्वरीय कृपा नहीं होती, जरा भी नहीं।

तो स्वयंसेवी होने का मतलब है सहर्ष प्रस्तुत होना, तैयार रहना। अगर आप तैयार ही नहीं हैं तो कृपा आप तक कैसे आएगी? कृपा आपके इर्द गिर्द होगी, लेकिन आपको स्पर्श नहीं करेगी, बस यही समस्या है। तो स्वयंसेवा आपसे काम निकलवाने का कोई तरीका नहीं है। अगर आप एक बतख की दुम की तरह नहीं बनना चाहते जो पानी में तो रहती है, लेकिन कभी गीली नहीं होती, अगर आप सूप में पड़ी उस चम्मच की तरह नहीं बनना चाहते, जो सूप का स्वाद नहीं चख पाती, तो एक ही रास्ता है और वह है सच्चे सेवक बनिए। सवाल यह नहीं है कि आप कितनी सेवा कर रहे हैं। आप कितनी इच्छापूर्वक हर सांस लेते हैं, हर कदम बढ़ाते हैं और जीते हैं- यही आपको स्वयंसेवी बनाता है। समाज के लिए यह सब कैसे किया जाए इसके लिए हम कई तरीके ईजाद कर रहे हैं। आपको अपने आस-पास के जीवन के बारे में महसूस करना पड़ेगा, केवल तभी आप एक स्वयंसेवी बन सकते हैं।

यह लेख ईशा लहर अप्रैल 2014 से उद्धृत है।

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