कलारीपयट्टू की शुरुआत - भारतीय माशर्ल आर्ट
पिछले सप्ताह हमने जाना कि अगस्त्य मुनि ने कलारी की रचना की थी। इस बार हम जानेंगे कि क्यों और कैसे इसकी रचना की गई।
पिछले सप्ताह हमने जाना कि अगस्त्य मुनि ने कलारी की रचना की थी। इस बार हम जानेंगे कि क्यों और कैसे इसकी रचना की गई।
सद्गुरु कहते हैं:
मौलिक रूप से माशर्ल आर्ट दक्षिण भारत में विकसित हुई। अगस्त्य मुनि एक छोटी कद-काठी के साधारण से दुबले व नाटे इंसान थे, लेकिन वे हरदम भ्रमण करते थे। उनहोंने मार्शल आर्ट की रचना खास तौर पर जंगली जानवरों से लड़ने के लिए की थी। उस समय इस क्षेत्र में काफी तादाद में शेर घूमा करते थे। अब तो हम उनकी गिनती भी कर सकते हैं। आज हमारे यहां ग्यारह सौ शेर हैं। लेकिन एक समय ऐसा भी था, जब अपने यहां शेरों की संख्या हजारों में थी और उनके साथ कई तरह के हिंसक व खतरनाक जंगली जानवर भी पाए जाते थे। इसलिए अगस्त्य मुनि ने जंगली जानवरों से लड़ने का एक तरीका विकसित किया। मान लीजिए आपके सामने एक शेर आ गया तो आप उससे कैसे निपटेंगे।
अगस्त्य मुनि ने कलारीपयट्टू बनाई
अगर आप गौर से देखें तो कलारी ने अपना स्वरूप अभी तक वैसा ही रखा हुआ है। यह इंसानों से लड़ने की कला नहीं है। इंसान के साथ लड़ने की बात तो इसमें बाद में जुड़ गई। उन्होंने यह मार्शल आर्ट कुछ गिने-चुने लोगों को सिखाई, ताकि वे लोग भ्रमण या यात्रा के दौरान जंगली जानवरों से निपट सकें। लेकिन वह कला आज तक जीवित है। आज भी कुछ स्कूल अगस्त्य मुनि को अपना आदर्श मानते हैं, और उनकी परम्परा से खुद को जोड़ते हैं।
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जब भारत से लोग चीन जाने लगे तो हिमालय लांघते ही उनका सामना ऐसे जंगली लोगों से हुआ, जो यात्रियों पर हमला करने की ताक में रहते थे। ऐसे में उन्होंने जंगली पशुओं के हमलों से निपटने के लिए जो कला सीखी थी, उसका प्रयोग जंगली मनुष्यों के विरुद्ध लड़ने में किया। एक बार जब उन्होंने इस कला का इस्तेमाल मनुष्यों के खिलाफ लड़ने में करना शुरू कर दिया तो फिर आप देखेंगे कि उस सामरिक कला में खासा बदलाव आना शुरू हो गया। भारत से चीन और उसके आगे दूसरे दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में इसका रूप बदलता गया। भारत में जहां यह झुककर या दुबक कर लड़ी जाने वाली कला थी, वहीं चीन जाते-जाते इसने सीधे खड़े होकर लड़ने वाली कला का रूप ले लिया।
इस तरह से कलारी वहां एक अलग तरह की रूपरेखा के साथ विकसित हुई। जब आप मनुष्य से लड़ते हैं तो मरने या मारने की नौबत आ जाती है क्योंकि दोनों में से कोई भी रुकने वाला नहीं। जबकि जंगली पशुओं के साथ ऐसा नहीं है। वह आप पर इसलिए हमला करते हैं कि उन्हें लगता है कि आप उनका भोजन हैं। लेकिन जब आप उन्हें इस बात का अहसास कराते हैं कि आपको पाना मुश्किल है तो वह दूर चला जाएगा। वह किसी आसान भोजन की खोज में चला जाएगा। इसी वजह से आप को किसी का भोजन बनने से बचाने वाली यह मार्शल आर्ट अपने आप इस हद तक रूपांतरित हुई कि किसी की हत्या की जा सके। इस बदलाव को आप कलारी से कराटे तक के सफर में साफ देख सकते हैं।
कलारीपयट्टू और कराटे
कुछ समय बाद भारत में भी इंसान से लड़ने के लिए इस कला का उपयोग होने लगा, बावजूद इसके इस कला में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ। बस समय के साथ इसमें हथियारों का इस्तेमाल होने लगा। अगर आप गौर से देखें तो मनुष्यों से लड़ने के लिए कलारी कराटे से बेहतरीन कला नहीं हो सकती, क्योंकि कराटे में दोनो पैरों पर खड़ा होना पड़ता है। कलारी में आप झुककर नीचे देखने का प्रयास करते हैं। दरअसल, हमने कलारी को मनुष्य से लड़ने के साधन के रूप में नहीं, बल्कि जंगली पशुओं से सुरक्षा करने के साधन के रूप में देखा था।
हमें आजकल अगस्त्य-प्रणाली के अच्छे शिक्षक मिल नहीं रहे, इसलिए हम परशुराम-प्रणाली को अपना रहे हैं। लेकिन हमें आशा है कि हम उस प्रणाली को भी धीरे-धीरे विकसित कर लेंगे, ताकि कुछ समय बाद हम अगस्त्य मुनि को सम्मानित करने के लिए उनकी प्रणाली को अपना सकें। यह मानवता के प्रति उनके योगदान के लिए कृतज्ञता जताने का एक तरीका होगा, क्योंकि उन्होंने जो किया, वह अद्भुत है। जिस तरह से उन्होंने अध्यात्म को सर्वसुलभ करवाया, वैसा आजतक कहीं भी किसी और इंसान ने नहीं किया।