सद्‌गुरुकई लोग आध्यात्मिकता की राह पर चलने के लिए कई तरह की किताबों का सहारा ले लेते हैं और फिर अलग-अलग तरीक़े से अपनी साँस को रोकने का अभ्यास करने लगते हैं। क्या यह सही है?

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प्रश्न : सद्‌गुरु, पहले मैं कीगौंग(एक चीनी साधना) का अभ्यास करता था और वे कहते थे कि मुझे हर सांस के बाद अपनी ऊर्जा को मणिपूरक के आसपास रोकना चाहिए। तो मुझे इसी तरह अपनी साँस को रोकने का अभ्यास हो गया। अब शांभवी महामुद्रा सीखने के बाद, मैं इन दो अभ्यासों को आपस में मिला बैठता हूँ। आप इस बारे में क्या सलाह देना चाहेंगे?

सद्‌गुरु : आपने एक प्राचीन विवाद को फिर से खोल दिया है। लंबे अरसे तक, बौद्ध धर्म में दो पंथ रहे। उनमें से एक सदा यही चाहता था नाभि को भीतर की ओर रखते हुए, छाती से साँस ली जाए। दूसरे पंथ वाले मानते थे कि पेट से साँस लेनी चाहिए। अगर आप बुद्ध की अलग-अलग मूर्तियों को देखें तो इस अंतर को साफ़ देख सकते हैं। भारत से आने वाली प्रतिमाओं में, वे पेट को भीतर की ओर किए हुए हैं और बलिष्ठ दिखाई देते हैं। अगर आप सुदूर-पूर्व एशियाई देशों की मूर्तियाँ देखें तो आपको उनका बड़ा सा पेट दिखेगा। यह इस बात का संकेत है कि ये दोनों पथ किस तरह श्वास ले रहे हैं। ऐसा क्यों किया गया, इसके भी कुछ निश्चित उद्देश्य रहे।

गौतम बुद्ध का सपना मानवता को मुक्त करने का था

आपके लिए इस बात को पचाना थोड़ा कठिन होगा, लेकिन गौतम बुद्ध एक तरह से मानव जाति को ख़त्म  कर देना चाहते थे - वे उन्हें मारना नहीं चाहते थे, उनकी इच्छा थी कि वे पूरे मानव समुदाय को भिक्षु बना दें।

पेट को अन्दर खींचकर साँस लेना या पेट से साँस लेना, आपको इन दोनों की जरूरत नहीं है। आपको बस सांस लेनी है और हवा जिस जगह जाना चाहे, उसे जाने देना है।
इसका अर्थ होगा कि वे एक ही पीढ़ी में समाप्त हो जाएँगे। क्योंकि उन्होंने ऐसा अनुभव किया और आज भी बौद्ध संस्कृतियों में यह माना जाता है कि सदेह(शरीर में होते हुए) की तुलना में विदेह(शरीर से बाहर जाने के बाद) रूप से मोक्ष पाना कहीं सरल होगा। अगर सभी भिक्षु होंगे, तो कुछ को मोक्ष मिलेगा, और कुछ को देह नहीं मिलेगी। जिनके पास देह नहीं होगी, उन्होंने सोचा कि वे उन्हें चुटकियों में मुक्त कर देंगे। उन्होंने अपने जीवनकाल में लगभग चालीस हजार लोगों को भिक्षु बनाया लेकिन ये संख्या पूरा दुनिया तो थी नहीं । दूसरे लोग संतानें पैदा करते रहे और हम सब लोग आ गए। उनका सपना पूरा नहीं हो सका।

इसीलिए उन्होंने अभ्यास साधुओं के लिए ही बनाए

तो बुनियादी तौर पर, उन्होंने जो ध्यान पद्धति और अभ्यास दिए, वे साधुओं और भिक्षुओं के लिए थे, जो लोग यौगिक पथ पर चल रहे थे। आज बदकिस्मती से, कोई भी किताब लिख देता है और लोग भी बिना कुछ सोचे अभ्यास किए जा रहे हैं। लेकिन ये अभ्यास योग के पथ पर चलने वालों के लिए बने थे। मिसाल के लिए, अगर आप ईशा योगा सेंटर आएँ तो हमारे पास बहुत अलग-अलग तरह के अभ्यास हैं। जो संन्यासी करते हैं, उसे कोई दूसरा नहीं कर सकता। अलग-अलग लोगों के लिए, उनके जीवन की अलग अवस्थाओं, उनके जीवन की प्रकृति के अनुसार, अभ्यास और पद्धतियाँ दी गई हैं।

किसी ख़ास तरीके से सांस लेने के मायने

पेट को अन्दर खींचकर साँस लेना या पेट से साँस लेना, आपको इन दोनों की जरूरत नहीं है। आपको बस सांस लेनी है और हवा जिस जगह जाना चाहे, उसे जाने देना है। उसे यहाँ-वहाँ ले जाने की कोशिश मत कीजिए। क्योंकि ये आपको कई तरह की संभावनाओँ की ओर ले जाएगा। यह कुछ ऐसा ही होगा मानो आपको सागर के बारे में कुछ पता नहीं और आपने अपनी नाव सागर में उतार दी। यह सागर में उतरने का अच्छा तरीक़ा नहीं है। अगर आपको समंदर में जाना है तो आपको उसके बारे में सब पता होना चाहिए वरना आपके लिए किसी स्वीमिंग पूल में तैरना ही बेहतर होगा।

बस सांस लीजिए

इसलिए बस सहज भाव से साँस लीजिए। इसे किसी भी तरह से रोकने की कोशिश मत कीजिए।

अगर आप साँस लेते हैं तो हवा जानती है कि उसे किस ओर जाना है - उसे जाने दीजिए।
ऐसा करना ज़रूरी नहीं है क्योंकि ये सब अलग-अलग तरह के भिक्षु संप्रदायों और पंथों के लिए बने थे। इन्हें दूसरे आयामों  को पाने के लिए रचा गया था। लेकिन अगर आपने अपने जीवन तंत्र(सिस्टम) में बदलाव लाए बिना इनका अभ्यास किया तो ये आपसे जीवन के दूसरे पहलू छीन लेंगी। केवल एक दिशा में अभ्यास करने से आप अपने लाभ की बजाए ज्यादा नुकसान करवा लेंगे। तो कृपया सहज भाव से साँस लें। किसी खास तरह से साँस लेने की अपनी पुरानी आदतों को तोड़ें। अगर आप साँस लेते हैं तो हवा जानती है कि उसे किस ओर जाना है - उसे जाने दीजिए।