नैतिकता थोपने की बजाय, मानवता को निखारें
समाज में एक न्याय पूर्ण व्यवस्था स्थापित करने के लिए क्या कदम उठाने जरुरी हैं? सही और गलत का फैसला कैसे किया जा सकता है जब अच्छे और बुरे की सबकी समझ अलग है?
समाज में एक न्याय पूर्ण व्यवस्था स्थापित करने के लिए क्या कदम उठाने जरुरी हैं? सही और गलत का फैसला कैसे किया जा सकता है जब अच्छे और बुरे की सबकी समझ अलग है?
पूर्व आईएएस अधिकारी डॉक्टर जयप्रकाश नारायण ने सद्गुरु से मुलाकात के दौरान उन्होंने देश, समाज और प्रजातंत्र जैसे मसलों पर कई सवाल उनके सामने रखे। देखिए सद्गुरु ने किस तरह उनकी जिज्ञासा शांत की:
डॉ. जयप्रकाश नारायण: सद्गुरु, मेरे लिए बड़े सौभाग्य और सम्मान की बात है कि मुझे आपसे बातचीत करने का मौका मिला है। बहुत सारे मामलों में हम दोनों के बीच बहुत बड़ा अंतर है।
सद्गुरु: कम से कम देखने में तो हम अलग-अलग हैं ही!
अच्छे और बुरे की बहस अंतहीन है
डॉ. जयप्रकाश नारायण: आप धार्मिक व्यक्ति हैं। आपने जीवन से संबंधित तमाम नियम बताए हैं। मसलन क्या सही है और क्या गलत, क्या करें और क्या नहीं, लेकिन सामान्य जीवन में ज्यादातर लोगों के लिए, खासकर सार्वजनिक क्षेत्र में अच्छे और बुरे लोगों के बीच अंतर कर पाना मुश्किल होता जा रहा है। मैंने हमेशा माना है कि अगर मेरे व्यक्तिगत फायदे का टकराव सार्वजनिक भलाई के साथ हो रहा है तो यह बुरी बात है और अगर इन दोनों के बीच सामंजस्यता है तो यही अच्छी बात है। ऐसे में आम लोगों और समाज के बीच होने वाले साधारण लेन देन में अच्छे और बुरे के बारे में आपके विचार क्या हैं?
सद्गुरु: अच्छा क्या है और बुरा क्या, इस मसले पर जब आप बहस करना शुरू करते हैं, तो बिना किसी नतीजे पर पहुंचे यह वाद विवाद हमेशा चलता रहता है। अपने भीतर और आसपास के लोगों के साथ आपने बरसों इस मसले पर बहस की है, लेकिन आज तक कोई नतीजा नहीं निकला। यहां तक कि लोग हजारों साल से इस पर बहस कर रहे हैं, लेकिन नतीजा कोई नहीं निकलता। ऐसा क्यों है? आमतौर पर यह सब परिवार के अंदर शुरू होता है। अगर आप ध्यानपूर्वक देखें तो बात जो निकलकर आती है, वह यह है-‘मैं जो करता हूं, वह अच्छा है। आप जो करते हैं, वह बुरा है।’ यही बात परिवार से निकलकर समाज तक, राजनीति और तमाम दूसरी चीजों पर लागू होती है।
जो लोग सत्ता में हैं, उनका प्रभुत्व भी होता है। भले ही वे अशिष्ट तरीके से इसे जताएं न, लेकिन कई तरीकों से वे आपको बता ही देते हैं कि मैं जो करता हूं, वह अच्छा है और आप जो करते हैं, वह बुरा। ऐसे में नतीजा यह निकलता है कि जो कोई भी लाभ या बढ़त की स्थिति में है, वह सही है और जो प्रतिकूल परिस्थितियों में है, वह गलत है। दुनिया में जितना भी शोषण है और जितनी भी बुरी चीजें हैं, उन सभी का बुनियादी सिद्धांत यही है। ऐसे में क्या अच्छा है और क्या बुरा, इस पर बहस करने के बजाय हमें यह सोचने की जरूरत है कि हमारे वक्त के लिए, समाज के लिए, अस्तित्व के लिए और आर्थिक स्थिति के लिए क्या उचित है और क्या नहीं।
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उदाहरण के लिए अगर आप भारत और अमेरिका की तुलना करें तो वहां जो सही है, हो सकता है यहां सही न हो, क्योंकि दोनों जगह की परिस्थितियां एक जैसी नहीं हैं। लोगों की जिंदगी एक जैसी नहीं हैं, उनकी आवश्यकताएं, पसंद, नापसंद एक जैसी नहीं हैं। इसीलिए जो वहां सही है, वह यहां पूरी तरह से गलत हो सकता है और जो यहां सही है, वह वहां पूरी तरह गलत हो सकता है। देश के भीतर हम सोचते हैं कि हम सभी भारतीय हैं, लेकिन यहां हर किसी की अपनी सोच है। यहां एक भी ऐसा शख्स नहीं है, जिसकी अपनी सोच न हो, जो भारत के संविधान के मुताबिक चलता हो। हर किसी की अपनी सोच है और सही व गलत की भी हर किसी की अपनी परिभाषा है।
एक अरब बीस करोड़ लोग। उनमें से हर किसी की अपनी सोच है। कोई भी दो लोग इस बात पर एकमत नहीं हो सकते कि सही क्या है और गलत क्या है। इसलिए सही और गलत के चक्कर में पडऩे की बजाय हम ये सोचें कि उस वक्त और परिस्थिति के हिसाब से क्या वाजिब है।
धर्मोपदेशों से समाज का भला नहीं हो सकता
डॉ. जेपी: सद्गुरु, आप कह रहे हैं कि जिस सांस्कृतिक परिवेश में हम रहते हैं, सही का फैसला करने में उसका महत्व है और यह समय-समय पर और पीढ़ी दर पीढ़ी बदलता रहता है। लेकिन हमें एक सांसारिक पैमाने की जरूरत है, हमें एक संस्थागत व्यवस्था चाहिए, जिससे हम यह फैसला कर सकें कि हां, यह सही है और यह गलत। यह पैमाना थोड़ा सार्वभौमिक किस्म का हो, जो समाज के साथ हमारे व्यवहार को दिशा दे सके। धर्मोपदेशों से हटकर हम लोगों को ऐसा पैमाना कैसे उपलब्ध करा सकते हैं? हम खाली दस ईश्वरीय आदेशों के आधार पर तो चल नहीं सकते, यह सोचकर कि ये आदेश खुद ईश्वर की तरफ से आए हैं। हम गीता के आधार पर नहीं चल नहीं सकते, क्योंकि खुद विष्णु ने उन तरीकों को सुझाया है।
सद्गुरु: जीवन को हम नैतिकता के आधार पर ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं। यह तरीका कभी काम नहीं करता। यहां तक कि दस ईश्वरीय आदेश जिनका आप बार-बार जिक्र कर रहे हैं, वे भी कभी काम नहीं आते। वे बस पत्थरों पर ही खुदे हैं। कभी भी किसी ने उनका कड़ाई से पालन नहीं किया। जो लोग कहते हैं, तुम्हें हत्या नहीं करनी चाहिए, वे ही लगातार हत्याएं कर रहे हैं। मानव समाज को नैतिकता के आधार पर ठीक करने की कोशिश ज्यादा से ज्यादा छल कपट ही लाएगी।
यानी आपकी पहचान आपकी मूलभूत पहचान से उस पहचान की ओर खिसक रही है जो आपने खुद बनाई है। यह कुछ खास मकसदों को पूरा कर सकती है। हम एक देश हैं, क्योंकि हमें खुद को राजनैतिक रूप से संभालना पड़ता है। यह कोई ईश्वरीय वाक्य नहीं है कि यह देश ऐसा ही है। हम लोगों ने ही सीमा रेखाएं खींची है और अब हम मानने लगे हैं कि चीजें ऐसी ही हैं। कुछ व्यावहारिक चीजों को लेकर हमने रेखाएं खींचीं, लेकिन यह असली नहीं है। कहने का मतलब यह है कि इंसान की पहचान एक इंसान के तौर पर ही होनी चाहिए, उसके धर्म, प्रजाति, संप्रदाय, राष्ट्रीयता आदि के आधार पर नहीं। अगर वह इंसान के तौर पर जीता है तो आप देखेंगे कि उसे नैतिकता की जरूरत ही नहीं है और समाज को यही चीज चाहिए - मानवता को निखारना, नैतिकता को नहीं।
मूल रूप से हम बस मानव हैं, बाकी सब गढ़ा हुआ है
डॉ. जेपी: यह जबर्दस्त संदेश है सद्गुरु। मूल रूप से आप कह रहे हैं, वैयक्तिकता या निजता से आगे निकलो, मत और संप्रदाय से आगे जाओ और मानवता को अपनाओ। ऐसा कर लिया तो आप गलत कामों से बचे रहेंगे।
सद्गुरु: मैं नहीं कहता कि मानवता को अपनाओ। मैं कहता हूं कि आप मानव हैं। मुझे आपको इंसान होना सिखाने की जरूरत नहीं है। आप तो इंसान हैं ही। समस्या यह है कि किसी और ने आपको यह सिखा दिया है कि आप कुछ और हैं। किसी ने आपको बताया है कि आप भारतीय हैं। किसी और ने आपको यह बताया है कि आप हिंदू हैं। किसी ने कहा कि आप मुस्लिम हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि आप इंसान हैं। अगर आप थोड़ा और आगे जाएं तो कह सकते हैं कि आप जीवन का एक अंश हैं। अगर आप यहां जीवन के अंश के तौर पर बैठते हैं, तो क्या इस जगत में मौजूद जीवन के किसी दूसरे अंश से आपको कोई समस्या हो सकती है? यहां बैठ कर हम चाहे जो करें वास्तविकता तो यही है कि हम जीवन के एक अंश के रूप में स्पंदित हो रहे हैं। यही असलियत है, बाकी सब कुछ हमारी अपनी रचना है।
अगर आप यहां जीवन के एक अंश के रूप में बैठे हैं तो आपको इस बात का तुरंत अहसास हो जाएगा कि जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसके साथ आप जुड़े न हो। लेकिन अगर आप यहां एक भारतीय के रूप में बैठे हैं और आपके पास बैठा शख्स पाकिस्तानी है, तो समस्या है। अगर आप यहां एक हिंदू के तौर पर बैठे हैं और दूसरा शख्स मुस्लिम है तो समस्या है। बस इसी तरह यह चलता रहता है, कहीं भी रुकता नहीं। एक के बाद एक विभाजन आते रहते हैं। इसलिए आध्यात्मिक प्रक्रिया का आवश्यक पहलू यह है कि आप सभी झूठी बातों के साथ अपनी पहचान को खत्म करें। आपको यहां जीवन के अंश के रूप में बैठना सीखना है।
कुछ साल पहले मैंने कहा था कि तमिलनाडु के 33 फीसदी हिस्से को हरा भरा करने के लिए हमें 11.4 करोड़ पेड़ लगाने की जरूरत है। इस पर लोगों ने कहा, ‘सद्गुरु, आप जानते हैं 11.4 करोड़ का मतलब? इतने पेड़ लगाना क्या किसी के लिए संभव है?’ मैंने उनसे कहा, ‘तमिलनाडुु की जनसंख्या 6.2 करोड़ है। अगर हममें से हरेक एक पेड़ लगाए, दो साल तक इसकी देखभाल करे और फिर एक और पेड़ लगा दे, तो हिसाब लगाओ कि कितने पेड़ हो जाएंगे। इसलिए यह काम मुश्किल नहीं है।’ मैं तो कहता हूं कि एक भिखारी भी पेड़ लगाने योग्य है। समस्या बस यही है कि लोगों को इस बारे में महसूस होना चाहिए। मैंने उनसे चिंता न करने को कहा। मैं गांव-गांव घूमा। किसानों की संस्थाओं को एक साथ बुलाकर बात की। मैंने उन्हें एक सामान्य सी बात बताई। मैंने कहा, ‘बैठ जाइए। अब आप कहां बैठना पसंद करेंगे, धूप में या किसी पेड़ के नीचे?’ जाहिर है, हर कोई पेड़ के नीचे बैठना पसंद करता है।
इसके बाद मैंने कहा, ‘क्या आप लोग सांस ले रहे हैं? मैं चाहता हूं कि आप यह समझें कि आप सांस के जरिए जो बाहर निकाल रहे हैं, उसे ये पेड़ अंदर ले रहे हैं। और जिसे ये बाहर छोड़ते हैं उसे आप अंदर ले रहे हैं। यहां बैठिए और महसूस कीजिए। ऐसा हो रहा है। आपके फेफड़ों का आधा हिस्सा वहां लटक रहा है। सांस लेने के आपके उपकरण यहां पूरे नहीं हैं। यहां सिर्फ आधा हिस्सा है, बाकी का आधा हिस्सा वहां लटक रहा है।
क्रमिक विकास का सिद्धांत बताता कि कुछ समय पहले हम सब बंदर थे। ऐसा मैं नहीं कहता, चाल्र्स डार्विन कहते हैं। आपको पता है कि आपके और चिम्पैंजी के बीच कितना अंतर है? यह समझ लीजिए कि आपका डीएनए एक चिम्पैंजी के डीएनए से बस 1.23 प्रतिशत ही अलग है। यह कोई खास अंतर नहीं है। आखिर अब भी वे आपके रिश्तेदार हैं। जब आप अपने कुछ रिश्तेदारों को पसंद नहीं करते तो वे आपको ऐसे ही दिखते हैं। किसी ऐसी चीज की कल्पना करने से जो सच नहीं है, जीवन को जीवन के तौर पर अनुभव करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। यही चीज मानव समाज के साथ नहीं हो रही है। वे यहां एक जीवन के रूप में नहीं बैठे हैं, वे यहां ऐसी तमाम चीजों के रूप में बैठे हैं जो वे हैं ही नहीं। इस बात का अहसास उन्हें सिर्फ तब होता है, जब उनकी मौत होती है।