देश के कई देवी मंदिरों में, ख़ास कर देवी काली के मंदिरों में जानवरों की बलि देने का रिवाज़ है। क्यों स्थापित किया गया था ये रिवाज़, क्या है इसका विज्ञान?


क्यों दी जाती है बलि?

प्रश्न : सद्‌गुरु, मैंने सुना है कि दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में जानवरों की बलि दी जाती है। बताया जाता है कि रामकृष्ण परमहंस के समय भी ऐसा होता था। उनके जैसा इंसान इसकी अनुमति कैसे दे सकता है?

सद्‌गुरु : तो रामकृष्ण पशु-बलि की अनुमति कैसे दे सकते थे? वैसे अनुमति देना या न देना उनके हाथ में नहीं था, फिर भी वह इसका विरोध कर सकते थे, जो उन्होंने नहीं किया। क्योंकि काली को बलि पसंद है। उन्हें जो पसंद है, वह वैसा ही करते थे।

काली को वह क्यों पसंद है, इसके लिए आपको समझना पड़ेगा कि ये देवी-देवता हैं क्या। यह इकलौती ऐसी संस्कृति है, जहां हमारे पास भगवान बनाने की, तकनीक है। बाकी हर जगह लोग यह मानते हैं कि ईश्वर सृष्टिकर्ता है और आप सृष्टि के एक अंग हैं। सिर्फ यही ऐसी संस्कृति है, जहां हम जानते हैं कि हम ईश्वर बना सकते हैं। हमने अलग-अलग मकसद के लिए अलग-अलग तरह के देवी-देवता बनाए। हमने उन्हें जीवित रखने और आगे बनाए रखने के लिए कुछ विशेष ध्वनियां उत्पन्न कीं और उनके साथ कुछ विधि-विधानों को जोड़ा।

बिना बलि के कुछ मंदिरों की ऊर्जा घट जाएगी

काली मंदिर में अगर आप बलि देना छोड़ देते हैं, तो इसका मतलब है कि आपने तय कर लिया है कि आपको काली की जरूरत नहीं है क्योंकि कुछ समय बाद उनकी शक्ति घटती जाएगी और फिर वह नष्ट हो जाएंगी, क्योंकि उन्हें इसी तरह बनाया गया है।

आप मूंगफली मुंह के अंदर डालते हैं, एक जीवन की बलि चढ़ती है, तो दूसरा जीवन बेहतर होता है। क्योंकि जीवन के अंदर एक जीवन, उसके अंदर एक जीवन होता है क्योंकि यहां जो है, बस जीवन है।
उन्हें रोजाना नए जीवन की जरूरत पड़ती है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह उसे खाना चाहती हैं। वह उनका जीवन है। अगर आप उसे वापस ले लें, तो यह ऐसा है मानो आपने अपनी बैट्री चार्ज नहीं कीं, वह धीरे-धीरे नष्ट हो जाएगी। इस बात को समझते हुए उन्होंने ऐसा होने दिया।

अगर कोई व्यक्ति वाकई बिना किसी रस्म, बिना किसी बलिदान के यूं ही चीजों को ऊर्जा प्रदान करने में समर्थ है, तो वह उसी तरह काली को सक्रिय रख सकता है। लेकिन आप इस बात की उम्मीद नहीं कर सकते कि विशेष क्षमताओं वाला कोई ज्ञानी पुरुष आकर यह सब करेगा। इसलिए यह परंपरा स्थापित हो गई है, जिसे कोई भी जारी रख सकता है।

क्या बलि देने से भगवान खुश होते हैं?

यहां तक कि आज भी अधिकांश काली-मंदिरों में रोजाना बलि दी जाती है। क्या यह क्रूरता नहीं है? लोग वैसे भी मांस खा रहे हैं। किसी कसाईघर में उन्हें मारने के बजाय आप उस जीवन-ऊर्जा को एक खास तरीके से इस्तेमाल करके अपने बनाए गए देवता को और शक्तिशाली बना रहे हैं।

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अब, सबसे पहले यह समझते हैं कि यह बलिदान क्या है। मैं चाहता हूं कि आप ठीक नजरिये से इसे देखें। मैं पशु-बलि या मानव-बलि की बात नहीं कर रहा हूं, बलि कैसी भी हो, मैं सिर्फ यह बता रहा हूं कि उसके पीछे वजह क्या होती है।

यहां तक कि आज भी अधिकांश काली-मंदिरों में रोजाना बलि दी जाती है। क्या यह क्रूरता नहीं है? लोग वैसे भी मांस खा रहे हैं।
दुनिया के हर हिस्से में पशुओं और यहां तक कि इंसान तक की बलि देने का रिवाज कभी न कभी जरूर रहा है। दुनिया का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है, जहां बलि की प्रथा नहीं थी।

एक जीवन को मारने का मकसद क्या है? क्या इससे कोई भगवान खुश होगा? इसका भगवान से कोई लेना-देना नहीं है। इसका मकसद है शरीर को नष्ट करके, जीवन-ऊर्जा को बाहर निकालना और इस ऊर्जा का एक खास मकसद के लिए इस्तेमाल करना। बस वह एक थोड़ी असभ्य टेक्नोलॉजी थी लेकिन फिर भी वह एक टेक्नोलॉजी थी।

नारियल फोड़ना भी बलि है

आप नारियल तोड़ते हैं, वह भी एक बलि है। क्योंकि मंदिर में नारियल तोडऩे या नीबू काटने का उद्देश्य बस नई ऊर्जा को मुक्त करना और उसका लाभ उठाना है। किसी बकरे या मुर्गे या किसी भी चीज को काटने का उद्देश्य भी यही है।

कुछ अतिवादी उदाहरणों में लोगों ने अपने बच्चों तक की बलि दे दी है। तांत्रिक जीवन-शैली में लोगों ने खुद की बलि भी दी है।
बलि के लिए हमेशा इस तरह के जीवन को चुना जाता है, जो ताजा और पूरी तरह जीवंत हो। जब मानव-बलि दी जाती थी, तो हमेशा युवा लोगों को चुना जाता था। यही बात पशु बलि पर लागू होती है, कोई भी बूढ़े बकरे की बलि नहीं देता। जवान और जीवंत बकरे को चुना जाता है।

लेकिन लोग सिर्फ गर्दन और नारियल तोड़ते हैं। उसका लाभ कैसे उठाना है, यह उन्हें मालूम नहीं है, वह तकनीक काफी हद तक नष्ट हो चुकी है। बहुत कम जगहों पर लोगों को इसकी जानकारी है। बाकी जगहों पर वे बस रस्म की तरह उसे करते हैं और सोचते हैं कि इससे देवी-देवता खुश होंगे। वैसे भी नारियल या मुर्गा या जिस भी चीज की आप बलि देने वाले हैं, आपको ही खाना है। कोई देवी-देवता उसे खाने नहीं आएंगे।

अलग-अलग तरह की बलि देने की प्रथाएं

इस बलि ने बहुत से रूप अपना लिए हैं। इसने कई सूक्ष्म रूप भी लिए हैं। कुछ अतिवादी उदाहरणों में लोगों ने अपने बच्चों तक की बलि दे दी है। तांत्रिक जीवन-शैली में लोगों ने खुद की बलि भी दी है। ऐसे मंदिर भी रहे हैं, जहां पशु-बलि या मानव-बलि की जगह किसी और चीज का इस्तेमाल किया गया है।

एक जीवन को मारने का मकसद क्या है? क्या इससे कोई भगवान खुश होगा? इसका भगवान से कोई लेना-देना नहीं है।
आप ऐसा सोच भी नहीं सकते, क्योंकि आप उसे पवित्र स्थान की तरह देखते हैं, लेकिन वे एक स्त्री के मासिक स्राव का इस्तेमाल करते थे, क्योंकि वह जीवन है। किसी शिशु को मारने की जगह वे बस उस स्राव का इस्तेमाल करते थे, क्योंकि वह जीवन बनाने वाली चीज है, उससे उन्होंने वो चीज बनाई, जिसे आप भगवान कहते हैं।

मैं भी लगातार बलि दे रहा हूं - हम किसी मनुष्य या किसी चीज को मार नहीं रहे हैं। अगर आप किसी जीवन का त्याग नहीं करेंगे, तो कुछ भी नहीं होगा। (ताली बजाते हैं) यह भी एक बलि है। हम नहीं चाहते, लेकिन हम आपको दिखा सकते हैं कि इस बलि से क्या हो सकता है। यह आपको उड़ा सकता है, क्योंकि इसमें जीवन-ऊर्जा छोड़ी जा रही है। तो जीवन के किसी न किसी हिस्से को त्यागे बिना आप कोई लाभदायक काम नहीं कर सकते। आप आध्यात्मिकता की चर्चा ही करते रह जाएंगे।

जीवन में कुछ बलिदान करना ही होगा

आध्यात्मिकता की बात करना बस मनोरंजन है। इससे आपको कोई लाभ नहीं होगा। यह आपको मनोवैज्ञानिक संतुष्टि या शायद तसल्ली देता है। अगर आप तसल्ली चाहते हैं, तो आप सिर्फ मनोविकार की तरफ बढ़ रहे हैं। लोग हमारे मन को ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया का उद्देश्य यह नहीं है। आध्यात्मिकता या रहस्यवाद इस बारे में नहीं है। वह तो भौतिकता की सीमाओं के परे एक ऐसे आयाम को खोजने की प्रक्रिया है, जो भौतिक का आधार है। जो स्थूल का आधार है, वही सृष्टा है।

आप नारियल तोड़ते हैं, वह भी एक बलि है। क्योंकि मंदिर में नारियल तोडऩे या नीबू काटने का उद्देश्य बस नई ऊर्जा को मुक्त करना और उसका लाभ उठाना है।

हकीकत तो ये है कि आपके जीवन में भी अगर कुछ महत्वपूर्ण होना है, तो आपको किसी न किसी चीज की बलि देनी होगी, वरना ऐसा नहीं होगा। क्या यह सच नहीं है? अगर आप अपने कारोबार में, अपने कैरियर में कामयाब हैं, तो आप जानते हैं कि आपने अपनी जिन्दगी उसमें झोंक दी है, वरना ऐसा नहीं होता। क्या आप ऑफिस में अपने जीवन के आठ घंटों की बलि नहीं दे रहे? अपना कारोबार बढ़ाने के लिए, अपना कैरियर बनाने के लिए, अपने बच्चों के पालन-पोषण के लिए क्या आप अपना जीवन बलिदान नहीं कर रहे? जीवन तो बाहर कहीं किसी खेल के मैदान या किसी गली में है, लेकिन आप कॉलेज में बैठकर मोटी-मोटी किताबों को पढ़ते हैं। क्या आप अपने जीवन का बलिदान नहीं कर रहे?

जीवन ही जीवन को पोषित करता है

जीवन को त्यागे बिना आप जीवन को ऊपर नहीं उठा सकते। आप उसे कैसे करते हैं, यह आपके ऊपर है। आप किसी दूसरे जीवन को समाप्त करने जा रहे हैं या आपने इसके लिए कुछ दूसरे साधन ढूंढे हैं, लेकिन जीवन को त्यागे बिना आप जीवन को विकसित नहीं कर सकते।

आप अपने जीवन को विकसित करने के लिए इसी तकनीक का सहारा लेते हैं। आप पेड़ से सेब तोड़ते हैं, उसे खाते हैं, आपका जीवन बेहतर होता है। आप मूंगफली मुंह के अंदर डालते हैं, एक जीवन की बलि चढ़ती है, तो दूसरा जीवन बेहतर होता है। क्योंकि जीवन के अंदर एक जीवन, उसके अंदर एक जीवन होता है क्योंकि यहां जो है, बस जीवन है। आपको बस उसे संभालना हैं। आप उसे कितनी नरमी से, कितने सूक्ष्म और शक्तिशाली तरीकों से संभालते हैं, या फिर असभ्य तरीकों से निपटते हैं, बस फर्क इतना ही है।