भ्रष्टाचार मिटाने से पहले खुद को मिटाना होगा
इस बार के स्पॉट में सद्गुरु उस जड़ की तरफ इंगित करते हैं जहां से पनपते हैं दुनिया के तमाम भ्रष्टाचार...
सद्गुरु, अगर मैं एक प्रमुख पद या सत्ता को हासिल कर लेता हूं तो वहां मैं खुद को भ्रष्ट होने से कैसे बच सकता हूं?
पद या सत्ता किसी को भ्रष्ट नहीं करती, लोग खुद ही भ्रष्ट होते हैं। हां, जब उन्हें सत्ता मिलती है तो उनकी भ्रष्टता लोगों की नजरों में आ जाती है। जब तक उन पर सूक्ष्म नजर नहीं होती तब तक आप इसे देख नहीं पाते। लेकिन अगर व्यक्ति भ्रष्ट नहीं है तो वह भ्रष्ट नहीं बनेगा।
सबसे पहले तो जरूरत यह समझने की है कि भ्रष्टाचार आखिर है क्या। अगर व्यक्ति में ‘मैं’ या ‘तुम’ जैसे भाव हैं तो समझिए कि उसमें भ्रष्टाचार की शुरुआत हो चुकी है, क्योंकि उसके लिए ‘तुम' से ज्यादा ‘मैं’ महत्वपूर्ण हो गया है। जब एक व्यक्ति में ‘मैं’ का भाव आने लगता है तो उसके बाद ‘क्या मेरा है’ और ‘क्या मेरा नहीं है’ जैसे खयाल सिर उठाने लगते हैं। जब ‘क्या मेरा है’ और ‘क्या मेरा नहीं है’ का भाव आने लगता है तो व्यक्ति में भ्रष्टाचार का भाव गहरा होने लगता है। अगर आप ‘क्या मेरा है’ और ‘क्या मेरा नहीं है’ जैसे भावों से गहराई से जुड़ जाते हैं तो यह आपमें अच्छी तरह पैठने लगता है। इस तरह से यह बढ़ता जाता है।
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मूल रूप से भ्रष्टाचार का मतलब है कि इंसान कल्याण या भलाई के लिए जो भी काम कर रहा है, उससे वह किसी न किसी को वंचित कर रहा है। अगर आपके पास कोई चीज है तो आप किसी एक को वह चीज ज्यादा देना चाहते हैं और दूसरे को कम। यह भी अपने आप में भ्रष्टाचार है। उदाहरण के लिए अगर आपके बच्चे को कुछ हो जाए तो आपकी आंखों से आंसुओं की बरसात होने लगेगी, लेकिन सड़क पर जब दूसरे बच्चे को बिना कपड़ों और बिना खाए देखते हैं तो आपकी आंखों से आंसू का एक कतरा तक नहीं गिरता। इसका मतलब है कि आप भ्रष्ट हो। अगर हम आपको भारत का प्रधानमंत्री बना दें तो आपका भ्रष्टाचार मीडिया में आने लगेगा। फिलहाल आपका भ्रष्टाचार मीडिया को कवर करने लायक इसलिए नहीं लगता, क्योंकि यह दूसरे लोगों को खास प्रभावित नहीं करता। जैसे जैसे आप शक्तिशाली होते जाते हैं, आपके भ्रष्टाचार की परिधि उतनी ही बड़ी होने लगती है। खैर, आप भ्रष्ट हैं या नहीं, इसे जानने के लिए आप प्रधानमंत्री होने का इंतजार मत कीजिए।
इस धरती पर जितना भी भ्रष्टाचार है, उसकी वजह है कि आप सीमित चीजों के साथ खुद को जोड़कर देखते हैं। सीमित पहचान अपने आप में भ्रष्टाचार है। अगर आप अपनी पहचान खुद से ही बनाते हैं तो आप अपने बगल में मौजूद व्यक्ति को चूना लगा रहे हैं या लूट रहे हैं। अगर आप अपने समाज के लिए अपनी पहचान बनाते हैं तो आप अपने समाज के लिए जो कुछ भी करेंगे, वह दूसरे समाज की कीमत पर करेंगे। इसी तरह अगर आप अपने देश के साथ अपनी पहचान बनाते हैं और आप अपने देश के लिए कुछ भी करते हैं तो यह आप दूसरे देश की कीमत पर करेंगे। हालांकि इसे भ्रष्टाचार के तौर पर नहीं देखा जाता है, लेकिन वास्तव में यह एक भ्रष्टाचार ही है। भ्रष्टाचार का आशय नैतिकता का अभाव या कमी नहीं है, बल्कि सीमित पहचान ही मूलरूप से भ्रष्टाचार है।
आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब ही यही है कि व्यक्ति विशेष को एक सीमित पहचान से निकाल एक समग्र संभावना की ओर ले जाना और यह यात्रा बौद्धिक न होकर अनुभव पर आधारित होती है। जब आप कहते हैं कि ‘मैं एक भक्त हूं’ तो इसका मतलब है कि या तो ‘या तो मैं मिट चुका हूं’ या फिर ‘मैं मिटने के लिए तैयार हूं’। इसमें कुछ भी ‘मैं’ या ‘मेरा’ नहीं हैं। इसलिए हम दुनिया के शक्तिशाली लोगों तक पहुँचाने के लिए इतनी कड़ी मेहनत कर रहे हैं। अगर व्यक्ति ध्यानी हो जाता है, अगर इंसान भक्त बन जाता है तो उसके भ्रष्ट होने की संभावना खत्म हो जाती है।