क्या स्त्री कभी पुरुष के बराबर हो सकती है?
एक बड़ी बहस अक्सर चलती रहती है कि स्त्री और पुरुष के बीच समानता क्या संभव है? उससे भी बड़ी बहस इस बात पर होती है कि जब प्रकृति ने दोनों को अलग-अलग बनाया है तो समानता की यह कोशिश क्या सार्थक है? क्या वाकई लैंगिक समानता संभव है?
एक बड़ी बहस अक्सर चलती रहती है कि स्त्री और पुरुष के बीच समानता क्या संभव है? उससे भी बड़ी बहस इस बात पर होती है कि जब प्रकृति ने दोनों को अलग-अलग बनाया है तो समानता की यह कोशिश क्या सार्थक है? क्या वाकई लैंगिक समानता संभव है?
प्रश्न:सद्गुरु, क्या लैंगिक समानता यानी स्त्री और पुरुष में समानता संभव है? जब दोनों में जन्मजात बुनियादी अंतर हैं, तो दोनों बराबर कैसे हो सकते हैं?
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सद्गुरु: मेरे ख्याल से आजकल हम ‘समानता’ शब्द को गलत अर्थों में ले रहे हैं। समान का अर्थ बिल्कुल एक जैसा होना नहीं है। यहां समान से मतलब है, समान मौका, समान इज्जत, मगर एक समान काम नहीं। अगर आप क्रियाकलाप में बराबरी लाएंगे तो आप जीवन के ज्यादातर क्षेत्रों में स्त्री को नुकसान की स्थिति में ला देंगे और साथ ही जीवन के कुछ दूसरे क्षेत्रों में पुरुष नुकसान की स्थिति में आ जाएगा। इससे भी बढ़कर हर जगह अकुशलता व्याप्त हो जाएगी। स्त्रियां वह करने की कोशिश करेंगी, जिसमें पुरुष बेहतर हैं, पुरुष वह करने की कोशिश करेगा, जिसमें स्त्रियां बेहतर हैं। इस तरह दोनों ही काम गड़बड़ हो जाएंगे। देखिए ट्रेनिंग मिलने से हर कोई हर काम कर सकता है। मगर प्राकृतिक क्षमता का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया गया, तो क्रियाकलाप का स्तर औसत ही रहेगा। इसलिए प्राकृतिक योग्यता का इस्तेमाल किया जाना सबसे अच्छा है।
अब सवाल है कि यह तय कौन करेगा कि किसे क्या करना चाहिए? यह पहले से क्यों तय किया जाए कि एक पुरुष क्या करे या एक स्त्री क्या करे? यह उस व्यक्ति को ही तय करने देना चाहिए।
बदलता समय
आज परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं और बहुत से क्रियाकलाप पुरुष और स्त्रियां दोनों कर सकते हैं, जो पहले के जमाने में संभव नहीं था। हजारों साल पहले, ज्यादातर लोग गांवों में रहते थे और चारों ओर जंगल होता था। हर जगह जंगली पशु होते थे। उस समय बाघ बिल्लियों की तरह नहीं होते थे, जिन्हें सुरक्षा दिए जाने की जरूरत पड़े। वे बेहद खतरनाक जीव थे, जो आपको दहशत में डाल देते थे। उस समय कोई दुकान भी नहीं होती थी, जहां से कुछ खरीदा जा सके। आपको रोजाना शिकार करना होता था या खाने के लिए कहीं से कुछ तोड़कर लाना होता था। बाहर जाकर यह काम करने के लिए पुरुष निश्चित तौर पर उपयुक्त था। स्त्री के लिए एक जैविक जिम्मेदारी भी थी, बच्चे पैदा करने की। अगर वह छोटे शिशु को लेकर जंगल जाती, तो उसे खाली हाथ लौटना पड़ सकता था। इसलिए बच्चों के कारण स्त्री को सुरक्षित रखा जाता था और पुरुष भोजन की तलाश में बाहर जाता था। यह काम का एक आदर्श बंटवारा था।
मगर अब तकनीक ने बराबरी के मौके ला दिए हैं। अब भोजन लाने के लिए जंगल नहीं सुपरस्टोर जाना होता है। एक स्त्री इस काम को बेहतर तरीके से सकती है। रोजी-रोटी कमाने का मतलब भाला फेंकना नहीं रह गया है। अब इसके लिए आपको बस किसी कीबोर्ड पर कुछ टाइप करना होता है। स्त्री इस काम को भी बेहतर ढंग से कर सकती है क्योंकि उसे हर घंटे उठकर खुजली करने, सिगरेट सुलगाने और फिर जाकर बैठने की जरूरत नहीं होती। वह काम के लिए बैठे, तो बस काम करेगी। स्त्रियां इन चीजों को पुरुषों से बेहतर करती हैं। यह सब इंसानी दिमाग के विकास या स्त्री की आजादी या पुरुषों की उदारता की वजह से नहीं हुआ है। यह बस तकनीक का विकास है। इससे बराबरी के मौके उत्पन्न हुए हैं।
बराबर भूमिकाएं
इसलिए बराबरी में कोई संदेह नहीं है, मगर एकरूपता मूर्खतापूर्ण है। एक स्त्री को पुरुषों की तरह बनाने की कोशिश करने की बजाय हमें समाज और दुनिया की संरचना इस तरह करनी चाहिए, कि पौरुष और स्त्रैण के लिए बराबर की भूमिका हो। जिस समाज का निर्माण हमने किया है, वह इतना पुरुषप्रधान है कि यह स्त्री तो क्या, एक पुरुष के लिए भी अच्छा नहीं है। फिलहाल यह समाज स्त्रियों के खिलाफ झुका हुआ है जिसकी वजह से वे पूरी हताशा में पुरुषों की दुनिया के योग्य बनने की कोशिश कर रही हैं। दुर्भाग्यवश उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। जब स्त्रियों को खामियाजा भुगतना पड़ता है, तो जीवन असामान्य होने लगता है।
हमें इस समाज में कई चीजों को सुधारने की जरूरत है ताकि प्रकृति के पौरुष और स्त्रैण पहलुओं के लिए बराबर की भूमिका हो। जहां एक स्तर पर चीजों को करने का आक्रामक तरीका जरूरी है, वहीं दूसरी ओर सुरुचि, संगीत और चीजों के प्रति संवेदनशीलता भी उतनी ही महत्वपूर्ण होनी चाहिए।