प्रार्थना कोई अर्जी नहीं, अर्पण है
अफसोस की बात है कि हमारी प्रार्थना बहुत ही असभ्य और रुढ़ हो चुकी है। अगर प्रार्थना करनी ही है तो यह अर्जी के रूप में न होकर एक अर्पण के रूप में होनी चाहिए।
अफसोस की बात है कि हमारी प्रार्थना बहुत ही असभ्य और रुढ़ हो चुकी है। अगर प्रार्थना करनी ही है तो यह अर्जी के रूप में न होकर एक अर्पण के रूप में होनी चाहिए।
प्रश्नकर्ता: सद्गुरु, मैं जानना चाहता हूं कि हमारी प्रार्थनाओं के जवाब कौन देता है?
सद्गुरु: यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस नंबर पर डायल कर रहे हैं!
प्रश्नकर्ता: मुझे नहीं मालूम कि कौन सा नंबर डायल करता हूं। मैं तो सिर्फ प्रार्थना करता हूं, लेकिन यह कहां जाती है, मैं नहीं जानता। हां, अधिकतर मौकों पर उस का जवाब मिलता है। मुझे लगता है कि आपको इस बारे में पता है और आप हमें बताएंगे।
सद्गुरु: आपकी प्रार्थना अगर एक अर्पण या भेंट की तरह है तो फिर आपको इसकी चिंता ही क्यों है कि आपकी प्रार्थना सुनी जा रही है या नहीं? हां अगर आपकी प्रार्थना एक अर्जी है, तब जरूर यह देखने वाली बात होगी कि उसकी सुनवाई होती है या नहीं। अपनी प्रार्थना को एक अर्पण की तरह पेश कीजिए। अगर आप समर्पण की स्थिति में हैं तो आपका जीवन एक अलग तरह से घटित होगा।
हमें यह नहीं मालूम कि आदियोगी शिव के सामने सप्तऋषि कितनी देर तक बैठे उस ज्ञान को ग्रहण करते रहे जो आदियोगी ने उन्हें दिया, लेकिन उनको जिस तरह का ज्ञान मिला, उसकी प्रकृति को देखते हुए कहा जाता है कि वे हजारों साल वहां बैठे रहे होंगे। आदियोगी ने उनको ऐसी 112 विधियां बताईं, जिससे कोई व्यक्ति अपनी परम संभावना को पा सकता है। चूंकि 112 विधियां को सीखना और संभालना किसी के लिए भी मुश्किल हो सकता था, इसलिए आदियोगी ने हरेक को सोलह विधियां सिखाईं। उसके बाद उन्होंने हरेक से कहा कि जाओ और अब इन्हें बाकी दुनिया में बांटो। इसके बाद उन्होंने सबको निर्देश दिया कि उनमें से कौन दुनिया के किस कोने में जाएगा।
जब वे सारे ऋषि जाने की तैयारी कर रहे थे, तभी अचानक आदियोगी ने उनसे सवाल किया- ‘इतना सब मिलने के बाद क्या आप लोग मुझे कुछ भेंट नहीं देंगे?’ दरअसल, उनलोगों को जो कुछ मिला था, उसे पाकर वे इस कदर सम्मोहित थे कि वे इस बुनियादी शिष्टाचार को ही भूल गए। इसके बाद उन्होंने खुद पर नजर डाली और सोचने लगे कि आखिर हमारे पास ऐसा है क्या, जो हम उन्हें दे सकते हैं?’
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फिर उनमें से एक ने शिव से कहा कि अपने बदन पर पहने इस लंगोट के अलावा, हमारे पास कुछ भी नहीं है। आखिर हम आपको क्या दे सकते हैं?
आदियोगी ने उनसे पूछा, ‘लेकिन क्या आप मुझे कुछ दिए बिना यहां से जाएंगे?’
यह सुनकर सभी मौन रह गए और सोचने लगे कि आखिर हम इन्हें क्या दें? हमारे पास ऐसा है क्या जो इन्हें देने योग्य हो?
तभी अगस्त्य मुनि आदियोगी के सामने झुके और उन्होंने आदियोगी से जो भी सोलह विधियां सीखीं थीं, वे सब उन्हें समर्पित करते हुए बोले, ‘मैं आपसे सीखी हुई सारी विद्या आपको ही समर्पित करता हूं।’ उनकी देखादेखी बाकी ऋषियों ने भी वैसा ही किया। उन लोगों ने आदियोगी से जो भी सीखा और जाना था, वह सब वापस उन्हीं के चरणों में समर्पित कर दिया। कई सालों की तपस्या और साधना के बाद उन्होंने जो भी पाया था, उसे आदियोगी को समर्पित कर वे सब एक बार फिर पूरी तरह से खाली हो चुके थे।
इसके बाद शिव ने उनसे कहा- ‘अब जाने का वक्त आ गया है, तुम लोग जा सकते हो।’
वहां से निकलने से पहले वे आदियोगी से पूछे- ‘हम जब चाहें, क्या हम कम से कम आपको पा सकते हैं?’
आदियोगी ने जवाब दिया, ‘बेशक, अगर तुम लोग इसी तरह रहोगे, तो मैं हमेशा तुम्हारे लिए उपलब्ध रहूंगा। तुम जैसे अभी रिक्त हो, अगर उसी तहर से रिक्त रहते हो, तो मैं हमेशा तुम्हारे लिए मौजूद रहूंगा।’ इसके बाद आदियोगी ने सप्तऋषियों को अपने आह्वान का आसान तरीका सिखाया। चूंकि वे लोग पूरी तरह से खाली और अनभिज्ञ हो चुके थे, इसलिए अब हर ऋषि के लिए 112 विधियां उपलब्ध थीं, लेकिन ये विधियां उनकी अपनी नहीं थीं। वे ऋषि इन सभी विधियों को दुनिया को अर्पण करने हेतु आदियोगी के लिए एक साधन बन चुके थे।
सप्तऋषियों ने अपना पूरा जीवन लगाकर जो कुछ सीखा था, उन सभी सीखी हुई 16 विधियां को, गुरुदक्षिणा के तौर पर आदियोगी को समर्पित कर दिया। हम आज भी इस पंरपरा का पालन करते हैं। जब हम गुरुपूजा करते हैं तो गुरुदक्षिणा के तौर पर गुरु को 16 समर्पण करते हैं, जिन्हें ‘षोडशोपचार’ कहा जाता है। सीखी गए सभी सोलह विधियां वापस गुरु को समर्पित कर दी जाती हैं। अगर आप पूरी तरह से खाली और निर्वस्त्र होकर इस तरह सब कुछ समर्पित करते हैं, तो हर वो चीज जो ईश्वरीय है, आपकी हो जाएगी। जिसे आप स्रष्टा कहते हैं, वह भी आपका होगा। वर्ना आप कुछ पैसे कमा कर यह सोच लेंगे आपने सब कुछ हासिल कर लिया, आपका जीवन सफल हो गया। अधिकतर लोग जीवन में नहीं सीख पाते, वे मौत से ही सीखते हैं। जब मौत का पल नजदीक आता है, उस समय जीवन में इकट्ठी की गई चीजें आपका मखौल उड़ाती हैं, तब आपको समझ में आता है कि आपका जीवन कितना बेकार गया। फिलहाल आप दौड़ में लगे हुए हैं, जहां आपका मकसद बस इतना है कि आप दूसरे मूर्खों से कैसे थोड़ा बेहतर बन सकें।
यह सात ऋषि रिक्त होकर जब निकले तो इन्होंने दुनिया को ऐसे प्रभावित किया, जिसे कभी नहीं मिटाया जा सकता। आदियोगी खुद को हजारों रूपों में इसलिए अभिव्यक्त कर पाए, क्योंकि उनके सिखाए ऋषियों में इतनी समझ थी कि उन्होंने सीखी हुई, संचित की हुई हर चीज को वापस लौटा दिया था।
मांगने वाला व्यक्ति कभी भी बहुत आगे नहीं जा सकता। अपनी प्रार्थनाओं से आप ईश्वर को यह बता रहे हैं कि उसे क्या करना चाहिए, जो कि अपने आप में बेहद बचकानी बात है। अफसोस की बात है कि हमारी प्रार्थना बहुत ही असभ्य और रुढ़ हो चुकी है। अगर प्रार्थना करनी ही है तो यह अर्जी के रूप में न होकर एक अर्पण के रूप में होनी चाहिए।
कौन हो तुम?
छुप जाता है चमगादड़ का अंधापन
एक अनसुनी आवाज में
क्या तुम्हारे पास भी है कुछ
अपनी मूढ़ता छुपाने को?
किसी धर्मग्रंथ का एक स्वांग हो,
या उसमें अंकित शिक्षा हो तुम?
क्या कोई चालबाज हो तुम
जो पालता है अपने भीतर कोई
गुप्त इरादा या कल्पित खयाल?
या
गढ़े गए हो गुरु-इच्छा से
और पा ली है एक ठांव
गुरु-कृपा की छांव में?
क्या कर लिया है खुद को रिक्त
और हो गए हो कृपा-सिक्त?
- सद्गुरु