लड़कियों के पैदा होने पर क्यों नहीं मनाई जाती खुशियाँ?
सद्गुरु से डॉ किरण मजूमदार शॉ ने प्रश्न पूछा कि जब घरों में लडकियां पैदा होती हैं, तो खुशियाँ क्यों नहीं मनाई जातीं? जानते हैं इसके अलग-अलग कारणों के बारे में और इसके समाधान के बारे में ...
डॉ किरण मजूमदार शॉ: घरों में लड़कियों के पैदा होने पर बहुत खुशियां नहीं मनाई जाती, ऐसा क्यों?
सद्गुरु: एक बात हमें अच्छी तरह से समझनी होगी कि हम लोग बहुत लंबे अर्से से एक कृषि आधारित समाज रहे हैं और आज भी हैं।
हो सकता है कि बेंगलूरु जैसे शहर में रहते हुए आपको लगता हो कि आप एक ‘टेक-सोसायटी’ यानी तकनीक-प्रधान-समाज में रह रहे हैं, लेकिन ऐसा है नहीं। भारत अभी भी एक कृषि प्रधान समाज है। हमारी पैंसठ प्रतिशत आबादी अभी भी खेती से जुड़े काम-काज में लगी हुई है। ऐसे समाज में कई वजहों से, खासकर आर्थिक कारणों से बेटे का होना बहुत जरूरी माना जाता है। दूसरी बात, एक समय में हमारे यहां महिलाओं का काफी सम्मान होता था, लेकिन पिछली दस-पंद्रह पीढिय़ों से हमारे समाज पर गरीबी की ऐसी मार पड़ी कि अगर किसी घर में बेटा पैदा होता है तो उसे आठ से दस साल की उम्र तक आते-आते काम में लगा दिया जाता है।
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हम हज़ारों साल पहले हुई महिलाओं को आज भी याद करते हैं
अगर घर में बेटी होती है तो आपको उसकी सुरक्षा करनी होती है, उसकी शादी करनी होती है, इस तरह के और भी कई मुद्दे होते हैं। इसलिए लड़कियों को लेकर लोगों के मन में अगर भेदभाव है तो उसके पीछे आर्थिक वजह ज्यादा है।
बुनियादी तौर पर लडक़े-लडक़ी को लेकर भेदभाव लैंगिक आधार पर शुरु नहीं हुआ, बल्कि इसके पीछे आर्थिक वजह थी। यही आर्थिक पहलू आगे चलकर लिंग आधारित भेदभाव में बदल गया। नहीं तो अगर आप गौर करें तो इस समाज में बहुत पुराने समय समय से ही, बल्कि कहें तो शुरू से ही महिलाओं की अपनी महत्ता रही है। वे आज भी हमारे जीवन का, इतिहास का व हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं। लोग आज भी द्रौपदी, सीता या पार्वती जैसी महिलाओं की बात करते हैं, क्योंकि हम उन्हें आज भी महत्वपूर्ण व्यक्तित्व के रूप में याद करते हैं। अगर आप किसी को पांच हजार साल बाद भी याद करते हैं तो वे प्रभावशाली तो रही होंगी। ऐसा दुनिया में कहीं और नहीं हुआ।
सम्पन्नता के बावजूद लड़के क्यों चाहते हैं हम?
डॉ किरण मजूमदार शॉ: सद्गुरु, आप जो कह रहे हैं, उससे मैं पूरी तरह से सहमत हूं। अगर हम उस कृषि समाज पर नजर डालें, जो हमारे देश का सबसे बड़ा हिस्सा है तो आपकी बात मैं स्वीकार कर सकती हूं। लेकिन मेरी सबसे बड़ी चिंता अपने समाज को लेकर है, कि आखिर हम लोग आज भी इतने पूर्वाग्रही क्यों हैं? मैं आपसे पूछना चाहती हूं कि बुनियादी रूप से हम समाज की सोच या रवैये को कैसे बदल सकते हैं? मेरा मतलब है कि पुरुषों के लिए आपका क्या संदेश है? क्या आपको नहीं लगता कि बतौर पिता, पति, बेटा, भाई या चाहे जो भी रूप हो, पुरुषों को भी अपने सोच व व्यवहार में बदलाव लाना चाहिए? क्या उन्हें लैंगिक समानता के लिए अपनी ओर से भूमिका नहीं निभानी चाहिए?
सद्गुरु: महिलाओं को एक बात याद रखनी चाहिए कि हमें इस बात को समझना होगा कि सामाजिक प्रक्रिया हमेशा जरूरत पर आधारित होती है। अलग-अलग लोगों की अलग-अलग जरूरतें होती हैं। इसी आधार पर लोग एक साथ आते हैं और एक समाज बनाते हैं, उसी आधार पर हम समाज के नियम बनाते हैं कि कैसे हम दूसरों के अधिकार क्षेत्र में घुसे बिना अपनी जरूरतों को पूरा कर सकते हैं। तो महिलाओं को अपनी स्त्री-प्रकृति की विशिष्टता को खोने नहीं देना चाहिए। सफल होने की कोशिश में आप पुरुष मत बनिए, क्योंकि पुरुष बुरी तरह से अपने जीवन का अर्थ तलाश रहे हैं। आगे चलकर हो सकता है औरतों का मोहभंग हो जाए, लेकिन कम से कम जीवन के शुरुआती दौर में तो एक महिला कई तरीके से पुरुष के जीवन को एक मायने देती है। यह पुरुष के लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है।
सिर्फ शिक्षित होने पर लड़कियां सब कुछ खुद कर लेंगी
मैं यह कहना चाह रहा हूं कि दुनिया में सफल होने के लिए आप अपनी मौलिक ताकत को छोड़ मत दीजिए। हालांकि काम करने की दुनिया खुद बहुत बदल रही है और यह आगे भी बदलेगी। हम लोग पहले ही एक बदलाव से गुजर चुके हैं, जिसमें हम लोग शारीरिक दुनिया से आगे बढक़र बेहद मानसिक दुनिया में आ गए हैं। जब हम मानसिक दुनिया में आगे बढ़ेंगे, तो हमें वहां लैंगिक समानता जैसी चीजों के लिए लडऩे की जरुरत ही नहीं होगी। तब यह हर हाल में होगा और यह अपना रास्ता खुद बना लेगा। लेकिन यह बात हमें समझनी चाहिए कि शारीरिक दुनिया से हमारी दूरी सिर्फ पचास साल पुरानी है। क्या पिछले पचास सालों में जबरदस्त बदलाव नहीं हुआ है? यह बदलाव तो अपने आप होगा। फिलहाल मुझे लगता है कि हमें बस एक चीज का ध्यान रखकर उसे सुनिश्चित करना होगा कि लड़कियों को भी शिक्षा के वैसे ही अवसर मिलें, जैसे लडक़ों को मिलते हैं।
उनकी नौकरियों या कारोबार जैसी चीजों को लेकर चिंता मत कीजिए, वो तो होंगे ही, बस जानकारी और ट्रेनिंग के लिहाज से उन्हें भी उतना ही मौका मिलना चाहिए, जितना पुरुषों को मिलता है। दूसरी बात यह है कि चूंकि महिला शारीरिक तौर पर नाजुक या कहें संवेदनशील है, ऐसे में हर समाज में उनकी शारीरिक सुरक्षा को लेकर कड़े और संपूर्ण कानून होने ही चाहिए, जिससे उनकी सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। बाकी चीजों को लेकर चिंता न करें, वे अपने आप होंगी।
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