सद्‌गुरु: सृष्टि को लेकर बहुत सी ऐसी दंतकथाएं हैं, जिनमें शिव प्रमुख पात्र हैं क्योंकि दुनिया के रहस्यों का वर्णन करने के लिए एक रूपक(वर्णन करने के लिए संकेत का इस्तेमाल) काफी नहीं होता। एक कथा है जो हमेशा ही प्रासंगिक है, हमें कट्टरता की बुराइयों की याद दिलाती है।

ओमकार से गूंजता ब्रह्मांडीय स्तंभ

एक बार सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा और उसके पालनकर्ता विष्णु को एक विशाल अग्नि स्तंभ दिखा। इस अंतहीन चमकीले स्तंभ से ऊँ ध्वनि निकल रही थी।

मगर असफलता को स्वीकार न करने की इच्छा से ब्रह्मा ने डींग मारी कि वह स्तंभ के शीर्ष तक पहुंच गए थे।
उन्होंने हैरान होकर इसका पता लगाने की सोची। ब्रह्मा हंस का रूप लेकर उसके शीर्ष(सिरे) की तलाश में नीले आसमान की ओर ऊपर उड़ने लगे। विष्णु वाराह(सूअर) का रूप धारण कर उसके आधार की तलाश में ब्रह्माण्ड में काफी नीचे चले गए। दोनों को कामयाबी नहीं मिली। क्योंकि यह स्तंभ खुद शिव थे। जिसे मापा नहीं जा सकता, उसे कोई कैसे माप सकता है? विष्णु ने लौट कर अपनी हार मान ली। मगर असफलता को स्वीकार न करने की इच्छा से ब्रह्मा ने डींग मारी कि वह स्तंभ के शीर्ष तक पहुंच गए थे। प्रमाण के तौर पर उन्होंने एक सफेद केतकी फूल पेश किया, जो उनका दावा था कि दुनिया की उन्हें छत पर मिला। वह फूल ब्रह्मा के दावे का सुबूत था।

धरती की पहली कट्टरवादी हरकत

यह झूठ ब्रह्मा को बहुत महंगा पड़ा क्योंकि झूठ बोलते ही शिव आदियोगी के रूप में प्रकट हो गए। दोनों देवता उनके चरणों में गिर पड़े।

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ब्रह्मा का झूठ इस धरती पर कट्टरवाद की पहली कार्रवाई थी। फूल को भी कट्टरवादी आवेग(लालसा) का साथ देने के लिए सजा दी गई।
शिव ने कहा कि ब्रह्मा के इस झूठ के कारण अब से उन्हें पूजा नहीं जाएगा। इस धोखे में शामिल होने के कारण वह फूल भी कृपा का अधिकार खो बैठा। आदियोगी ने इस घटना के बाद उसे भेंट में स्वीकार करने से इंकार कर दिया। मगर सिर्फ महाशिवरात्रि की पावन रात के लिए अपवाद रखा गया, इस दिन सफेद केतकी फूल पूजा में चढ़ाया जाता है। ऐसा सिर्फ साल के इस सबसे अंधकारपूर्ण रात को ही किया जा सकता है, जो गहनतम(सबसे गहरी) आध्यात्मिक संभावना की रात मानी जाती है।

ब्रह्मा का झूठ इस धरती पर कट्टरवाद की पहली कार्रवाई थी। फूल को भी कट्टरवादी आवेग(लालसा) का साथ देने के लिए सजा दी गई। एक असीम प्रक्रिया के सीमित अंत का दावा, सीमाहीन के परे सीमाएं खींचना, अथाह के बारे में नतीजा निकालना – यह ऐसी निश्चितता पैदा करने के मानवीय आवेग(लालसा) की शुरुआत थी, जिसका अस्तित्व ही संभव नहीं। यही पीड़ा व छलावे का जन्म भी था।

आत्म-ज्ञान का मार्ग

आध्यात्मिक यात्रा स्पष्टता की ओर एक यात्रा है, ये कभी निश्चितता की ओर नहीं जाती। जब आप शुरुआत और अंत के बारे में निष्कर्ष(कोंक्लुशन) निकालने लगते हैं, तो आप विश्वासी होते हैं। जब आप स्वीकार करते हैं कि आप वास्तव में कुछ नहीं जानते, तो आप साधक बन जाते हैं।

विश्वास के दिखावे से अज्ञानता की स्पष्टता की ओर, आडंबरों से वैयक्तिक निरर्थकता(आत्म-महत्व की कमी) की ओर – आत्मज्ञान का रास्ता यही है।

निश्चितता के होने से आप आत्मज्ञान तक नहीं पहुँच सकते। आत्म ज्ञान का मतलब सीमित ज्ञान से एक असीम अज्ञानता की ओर बढ़ना है। यह सीमाहीन अज्ञानता, असीम अनिश्चितता की स्थिति में जागना है। जब आप सृष्टि की सीमाओं से बंधे नहीं होते, तो आपके पास स्रष्टा की आजादी होती है।

कैलाश पर्वत उस सीमाहीनता की याद दिलाता है, जो शिव है। यह दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमय पुस्तकालय है – यह कोई निष्क्रिय(बिना किसी हलचल के) भंडार नहीं, बल्कि मानव चेतना की एक जीवंत प्रयोगशाला है।

मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि क्या शिव यहां रहते हैं। मेरा जवाब ‘हां’ है। क्योंकि शिव अपने ज्ञान के बिना क्या हैं? वे वास्तव में जीवित हैं – शारीरिक रूप से नहीं, बल्कि एक जबर्दस्त ऊर्जा के रूप में। सौ फीसदी अनुभवजन्य ज्ञान, सौ फीसदी जीवंत, सौ फीसदी यहीं और अभी - वही शिव हैं। और ढेरों कोशिशों के बावजूद कोई संप्रदाय या ग्रंथ, पंथ या सिद्धांत उन्हें अपने बस में नहीं कर सका। उन्हें काबू में नहीं किया जा सकता। आप उनमें विलीन हो सकते हैं, मगर आप कभी उन्हें जानने का दावा नहीं कर सकते। विश्वास के दिखावे से अज्ञानता की स्पष्टता की ओर, आडंबरों से वैयक्तिक निरर्थकता(आत्म-महत्व की कमी) की ओर – आत्मज्ञान का रास्ता यही है।