आदिमानव के मन में खुद को लेकर जो भय पैदा हुआ, वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज तक जारी है। यदि भय न हो तो ज़्यादातर लोग भगवान को नमन करना ही बंद कर दें। मंदिरों में कितने ही लोगों का भय तेल का दीया बनकर जल रहा है। कई लोगों पर यही भय हावी रहता है कि नया कुछ शुरू करेंगे तो पहले से अपने पास जो है उसे भी गंवाना पड़ेगा। इसीलिए मानव मन परिवर्तन को टाल देना ही उचित समझता है। परिवर्तनों के बिना अनुभव दुहराते रहें तो जीवन मंद पड़ जाएगा।

डर को भगाना संभव नहीं है

आप भय को जबर्दस्ती भगा नहीं सकते। यदि आप तलवार लेकर योद्धा बन गए तो क्या भय गायब हो जाएगा? यदि आपके भीतर का डर वेश बदलकर हथियार ले ले, तो क्या उसे वीरता का नाम दे सकते हैं? अपनी सुरक्षा के बारे में चिंता करते रहने के कारण ही भय एक मूल भावना बन गई है। अब सवाल है कि आपके भय को कैसे दूर करें?

आप इस समय उस आदमी की स्थिति में हैं जो डायनासोर को जीवित करने के बाद सोचने लगता है कि उससे कैसे बचें। भय का दमन करने का मतलब क्या है? क्या उसके ऊपर बैठ जाएं? ऐसे में आप उसके साथ कभी न खत्म होने वाला समझौता करने को मजबूर हो जाएंगे। जब भी आप थोड़ा इधर-उधर हिले वह खिसककर बाहर आने की कोशिश करेगा।

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बिना डरे लक्ष्य पाना होगा

दरअसल डर अगले क्षण के बारे में है। अगला क्षण एक ऐसी कल्पना है, जो आपके अनुभव में अभी नहीं आई है।

लेकिन जर्मनी के गिरजाघरों में पादरी लोग आगबबूला हो गए। उन्होंने कड़ा विरोध जताया, ‘केवल देवदूत और देवता ही आकाश में उड़ सकते हैं। आदमी का उड़ना ईश्वर के विरुद्ध कार्य है।’
तब डर भी तो एक कल्पना ही है न? अगर केवल वर्तमान क्षण का ध्यान रखें तो व्यर्थ की कल्पनाएं और भ्रम क्यों आपको सताएंगे? डर दमन करने की चीज नहीं है। यह एक निरर्थक भावना है।

जर्मनी के ऑटोलिलियन्ता नामक वैज्ञानिक इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए कि ‘आदमी उड़ नहीं सकता।’ उन्होंने पहले पहल उड़ने वाले यंत्र को रूप दिया। इस खुशी को अपने देशवासियों के साथ बांटना चाहा। एक दिन निश्चित किया गया। उन्होंने वादा किया कि उस दिन सबके सामने उड़कर दिखाएंगे।

लेकिन जर्मनी के गिरजाघरों में पादरी लोग आगबबूला हो गए। उन्होंने कड़ा विरोध जताया, ‘केवल देवदूत और देवता ही आकाश में उड़ सकते हैं। आदमी का उड़ना ईश्वर के विरुद्ध कार्य है।’ यही नहीं, नौ साल तक दिन-रात परिश्रम करके ऑटोलिलियंता ने जिस विमान का निर्माण किया था, रातोंरात आग लगाकर उसे जला डाला। लेकिन ऑटोलिलियंता हारे नहीं। दुबारा एक विमान के निर्माण में उन्हें चार साल लगे। लेकिन तब तक राइट बंधुओं द्वारा निर्मित विमान आसमान में उड़कर इतिहास बना चुका था।

क्या आदमी उड़ भी सकता है? - यदि ऑटोलिलियंता या राइट बंधु मन में अविश्वास, डर और संदेह ही पालते रहते तो क्या वे विमान का आविष्कार कर सकते थे? आज टिकट लेकर चंद घंटों में पृथ्वी के दूसरे हिस्से में जा पहुँचने का अवसर आपको मिल पाता? अमेरिका में हो रही घटनाओं को उसी क्षण देखने की इच्छा सौ साल पहले किसी के मन में उठी हो, तो वह पूरी नहीं हुई होगी। लेकिन बाद में किसी दूसरे ने वैसी तीव्र इच्छा की, इसी से तो आपको टेलीविजन मिला है।

तीव्र इच्छा से काम में लग जाना होगा

पुराणों में आपने पढ़ा होगा। जब कोई असुर ईश्वर की कठिन तपस्या करता था, तो उसकी तपस्या को भंग करने के लिए देवगण बहुत प्रयास करते।

अगर आप डर को पैदा करना बंद कर देंगे तो सब नाटक ही खत्म हो जाएगा।
आंधी चलती, भारी वर्षा होती, खूंखार जानवर आकर सताते। देवलोक से रंभा, उर्वशी जैसी रूपवती सुंदरियां उसके ध्यान को भंग करने की कोशिश करतीं। कितनी ही बाधाएं आएं, अगर असुर अपनी तपस्या में दृढ़ रहे तो प्रकृति स्वयं उसके लिए दुर्ग बनकर खड़ी रहती। अंत में वह शिव से मनोवांछित वरदान प्राप्त करके ही लौटता था। जो लोग निर्भय होकर अपने संकल्प में दृढ़ रहे, उनको जो प्राप्त होना है, उसे ईश्वर भी नहीं रोक सका।

महात्मा गांधी बहुत ही सीधे सरल मानव थे। ऐसा नहीं कह सकते कि फलां-फलां क्षेत्र में उनकी बड़ी विशेषता रही। उन्होंने एक समय अचानक विश्वरूप ले लिया जिसे देखकर सारा विश्व अचंभित रह गया। शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को, जिसे कोई भी नहीं हिला सकता था, महात्मा गांधी ने हिलाकर दिखाया। यह कैसे संभव हुआ? उन्होंने जो जि़म्मेदारी ली थी, उसमें संपूर्ण लगन दिखाई। शिक्षा में, धन में, सुविधाओं में, क्षमता में जो लोग उनसे बहुत आगे थे, वे सब भी उनका अनुकरण करने के लिए तैयार हो गए। कारण क्या था? इच्छित को पाने के लिए वे निडर होकर मन में संपूर्ण दृढ़ता के साथ कार्यरत हो गए थे। तीव्र इच्छा के साथ काम करने वाले ही उपलब्धि पा सकते हैं।

एक बात को समझ लीजिए। जीवन और मरण साथ-साथ ही आते हैं। जीवन की इच्छा करेंगे तो मृत्यु के लिए भी अवसर देना ही होगा। जीवन को डर के साथ देखेंगे तो सभी कुछ खतरनाक दिखाई देगा। बहुत ही हिफाजत के साथ जीने की इच्छा करेंगे तो कब्र में ही जाकर सिमटना होगा।

भय होना सहज या प्राकृतिक नहीं है। उसे रूप देने वाले आप ही हैं। अगर आप डर को पैदा करना बंद कर देंगे तो सब नाटक ही खत्म हो जाएगा। डर को भगाने की बात न सोचिए, बल्कि यह सोचिए कि डर को पैदा किये बिना कैसे रहा जाए। डर के बिना जीना सीख लें तो आप पाएंगे कि जिंदगी में अवसर ही अवसर हैं।