सद्‌गुरु जानते हैं कि कैसे भारतीय शास्त्रीय संगीत में संगीत एक खोज की तरह है, कोई संगीतकार किसी चीज़ को दोहराता नहीं। जबकि पश्चिमी शास्त्रीय संगीत में सब कुछ पहले से तय होता है ...

सैंडी: सद्‌गुरु , मैं पिछले पच्चीस सालों से भी अधिक समय से यूरोपीय संस्कृति के बारे में पढ़ रहा हूं। इस बार मैं महाशिवरात्रि के मौके पर भारत आया। इस दौरान मैंने आश्रम में दो दिनों तक लगातार भारतीय शास्त्रीय संगीत का आनंद लिया। उस संगीत को सुनना अपने आप में एक शानदार अनुभव था। मैं यूरोपीय शास्त्रीय संगीतकारों के साथ काम कर रहा हूं, लेकिन भारतीय संगीत सुनने का अनुभव मेरे लिए पूरी तरह से नया था। यह बेहद खास व वाकई काफी खूबसूरत था। चूंकि मैं संगीत और कलाकारों के साथ काम कर रहा हूं, तो क्या हम इस नजरिए से भारत व यूरोप के बीच एक सेतु बना सकते हैं?

भारतीय संगीत खोज पर, और पश्चिमी संगीत सटीकता पर आधारित है

सद्‌गुरु : जहां तक संगीत की बात है तो भारतीय संगीत व पश्चिमी संगीत को एक साथ लेकर चलने की पहले भी कई कोशिशें हो चुकी हैं। कई लोगों ने ये कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी। ये दोनों साथ नहीं चल सकते।

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भारत में संगीतकार का कौशल इसी से मापा जाता है कि वह एक ही चीज कितने अलग ढंग से कर सकता है। वह लगातार क्रम परिवर्तन कर क्रम में बदलाव कर सुरों को संयोजित करने की कोशिश करता है।
क्योंकि पश्चिमी शास्त्रीय संगीत में सबकुछ पहले से तय रहता है, किसी ने कोई कंपोज किया है और आपको ठीक वैसा ही करना होता है। लोग इसकी निश्चितता या कहें परिशुद्धता के लिए इन्हें सुनने जाते हैं। पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की खूबसूरती किसी कंपोज को बिलकुल सटीक करने में है। जबकि भारतीय शास्त्रीय संगीत ऐसा है कि जब भी कलाकार गाने-बजाने के लिए बैठते हैं, तो वे कुछ नया करने की कोशिश करते हैं। कोई भी कलाकार किसी चीज को दोहराता नहीं है। हर बार जब वे प्रदर्शन करते हैं, तो कुछ मौलिक होता है, वे उसी पैटर्न में से कुछ नया ढूंढने की कोशिश करते हैं। इसमें बहुुत ज्यादा गणित शामिल है। भारत में संगीतकार गणितज्ञ भी हैं। इसमें बहुत सारी गणना शामिल रहती है कि आप कितने तरह के क्रम में सुरों को सजा सकते हैं। भारत में संगीतकार का कौशल इसी से मापा जाता है कि वह एक ही चीज कितने अलग ढंग से कर सकता है। वह लगातार क्रम परिवर्तन कर क्रम में बदलाव कर सुरों को संयोजित करने की कोशिश करता है। जबकि पश्चिमी संगीत में वे लोग तय ढंग से करने के लिए ट्रेंड किए जाते हैं, यानी जो संगीत जैसा है, उसे वैसा ही गाया या बजाया जाए। इन दोनों संगीतों को साथ लाने की कोशिश हो रही है, पहले भी हुई है, लेकिन ये दोनों ही अपनी प्रकृति और नजरिये में एक दूसरे से बहुत अलग हैं।

दोनों को मिलाने से संगीत बर्बाद हो सकता है

देखिए, मूल रूप से जो ध्वनि एक साथ सजकर सामने आती है, वह न तो भारतीय होती है न पश्चिमी। ध्वनि तो अस्तित्व से जुड़ी है।

यह जरूरी नहीं कि आप सांभर में कैचप डालें। अगर आपने भारतीय करी को कैचप डाल कर बर्बाद किया, तो मैं आपको माफ नहीं करूंगा। हालाँकि कई जगह ऐसी कोशिश हो चुकी हैं, उसे पूरी तरह से बर्बाद कर दिया गया है।
मैं सांस्कृतिक संदर्भ में कह रहा हूं कि यूरोप में संगीत सिखाने का तरीका यह है कि उन्हें वैसे ही करने को कहा जाता है, जैसे नोट्स लिखे होते हैं। वहां लोग उस संगीत के तय ढंग का ही आनंद उठाते हैं, पच्चीस से पचास लोगों की प्रस्तुति एक साथ एक जैसी हो रही होगी। जबकि भारत में अगर दो गायक भी साथ गाते हैं, तो वे एक साथ नहीं गाते, बल्कि वे लोग एक दूसरे के विरोध में गाते हैं। जहां हर व्यक्ति अलग ढंग से चीजों को करता है और दूसरे व्यक्ति के सामने कुछ नया कर दिखाने की एक चुनौती रखता है। इस तरह से दोनों संगीतों की बुनियादी प्रकृति में काफी फर्क है।

तो दोनों संगीतों को साथ मिलाने की कोशिश दोनों संगीतों को बर्बाद कर सकती है, क्योंकि दोनों ही सिस्टम एक दूसरे से बहुत अलग हैं। ऐसे में हमें उसी रूप में उनका आनंद लेना चाहिए,जैसे वे हैं। यह जरूरी नहीं कि आप सांभर में कैचप डालें। अगर आपने भारतीय करी को कैचप डाल कर बर्बाद किया, तो मैं आपको माफ नहीं करूंगा। हालाँकि कई जगह ऐसी कोशिश हो चुकी हैं, उसे पूरी तरह से बर्बाद कर दिया गया है। इसलिए दोनों संगीतों को साथ रखने का मतलब यह नहीं कि हमें उन्हें आपस में मिलाना होगा। मैं इसे उस तरीके से नहीं देखता। आप भारत आए और आपने यहां आकर भारतीय संगीत को पसंद करना और सराहना सीखा। अगर लोग यहां आकर भारतीय संगीत का आनंद लेते हैं, तो वे पाएंगे कि ये अपने रूप में ही अच्छा है।

भारतीय लोग खुद शास्त्रीय संगीत नहीं सुन रहे

हमारे यहां फ्यूजन संगीत की कोशिश हुई है, लेकिन फ्यूजन संगीत हर जगह जाने के लिए तैयार था।

लेकिन आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि कैसे भारतीय लोग, भारतीय शास्त्रीय संगीत का आनंद उठाएं, उसे सराहें? आज सब लोग टिंका-टिंका में लगे हैं।
पश्चिम के संगीतकार फ्यूजन संगीत सुनकर मर जाएंगे, क्योंकि उन्हें लगेगा कि यह तो बर्बाद है, क्योंकि वे लोग पर्फेक्शन में विश्वास करते हैं। जबकि भारत में पर्फेक्शन का मतलब अनंत संभावनाओं को खोजना है। यह पर्फेक्शन को देखने का एक अलग नजरिया है। मुझे लगता है कि हमें लोगों की रुचियों को इस तरह जगाना चाहिए कि भारतीय लोग पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का आनंद ले सकें व उसे उसी रूप में सराह सकें और पश्चिमी लोग भारतीय शास्त्रीय संगीत को सराहना सीख सकें। इससे दोनों तरफ के लोग पास आएंगे। दोनों तरह के संगीत का आनंद लेने के लिए तरह-तरह के आयोजन होने चाहिए। अगर दोनों ही संस्कृति के लोगों में सराहना का भाव आ गया तो अच्छा होगा। लेकिन आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि कैसे भारतीय लोग, भारतीय शास्त्रीय संगीत का आनंद उठाएं, उसे सराहें? आज सब लोग टिंका-टिंका में लगे हैं। उनके भीतर भारतीय शास्त्रीय संगीत की समझ व आनंद पैदा करना ही सबसे मुश्किल काम है।