गुरु शिष्य की अंतरंगता
गुरु शिष्य के संबंधों के बीच की अंतरंगता क्या शारीरिक भी हो सकती है? फिर कैसे कृष्ण ने गोपियों को परम आनंद का अनुभव कराया था?
प्रश्न: तांत्रिक परंपरा में, गुरु और शिष्य के बीच का संबंध जब अंतरंग और पवित्र हो जाता है, तो उनके बीच एक नजदीकी हो सकती है, जो कामुक यानी·सेक्सुअल भी हो सकती है। जैसा कि कृष्ण-गोपी की श्रृंगारिक परंपरा से स्पष्ट है, शिष्य और गुरु का पारस्परिक आकर्षण यौन संबंधों में भी अभिव्यक्त हो सकता है। क्या आप तंत्र और कामवासना (सेक्सुअलिटी) के बारे में कुछ बता सकते हैं?
सद्गुरु:
मानव तंत्र एक सम्मिश्रण है जिसमें शामिल हैं - भौतिक शरीर जो ग्रहण किए गए भोजन का एक ढेर है, मानसिक शरीर जिसे आप सॉफ्टवेयर के रूप में समझ सकते हैं और स्मृति वाला अंग जिससे अलग-अलग लोग विशिष्ट तरीकों से काम करते हैं और ऊर्जा शरीर जिस आधार पर ये दोनों टिके हुए हैं। जो इसके परे है, वह अभौतिक है।
शरीर और मन की बाध्यकारी और चक्रीय प्रकृति उन्हें अधिक ऊंची संभावनाओं तक पहुंचने नहीं देती। तंत्र उससे परे जाने का नाम है, ताकि शरीर और मन की बाध्यता हमें अपनी सीमाओं में न जकड़े रहे। तंत्र का मूल अर्थ है 'तकनीक' या 'टेक्नोलॉजी'। तंत्र का अर्थ है, शरीर को, खुद के रूप में नहीं, बल्कि इस जीव को उच्चतम संभव आयाम तक पहुंचाने की एक सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करना।
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गुरु शिष्य सम्बन्ध : ऊपर से ऊर्जा का प्रकट होना
तंत्र अनियंत्रित कामवासना से संबंधित नहीं है, जैसा कि कई लोग सोचते हैं। कामवासना हमारे शरीर में निहित एक बुनियादी भावना है ताकि वह प्रजाति नष्ट न हो। यह एक बुनियादी आवश्यकता है। इसके साथ ही, यह भी पता होना चाहिए कि वह हमें किन सीमाओं के परे नहीं ले जाएगा। सीमाओं को पहचानने और दूसरे आयाम को छूने की चाह ही योग और तंत्र को महत्वपूर्ण बनाते हैं।
कामवासना ऊर्जा प्रणाली के निचले स्तर पर अभिव्यक्ति पाती है जबकि तंत्र का मतलब ऊर्जा प्रणाली के सबसे ऊपरी आयाम तक अपनी ऊर्जा को बढ़ाना है ताकि ऊर्जा ऊपर से छलके। शरीर के विभिन्न ऊर्जा रूपों, जिन्हें 114 चक्रों के रूप में जाना जाता है, में सबसे ऊपर के तीन चक्रों से ऊर्जा का छलकाव सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है।
यौन जरूरतों को उस मकसद के लिए उस घेरे के अंदर या बाहर संबंध बनाते हुए पूरा किया जा सकता है। लेकिन यौन जरूरतों को पूरा करने के लिए आध्यात्मिक क्रिया का इस्तेमाल करना निंदनीय और गैर जिम्मेदाराना है। इससे विभिन्न स्तरों पर नुकसान हो सकता है क्योंकि तांत्रिक प्रक्रिया का इस्तेमाल सिर्फ व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के लिए नहीं किया जाता। उससे एक ऊर्जा का स्थान बनता है जो दूसरी संभावनाओं में मदद कर सकता है जिससे बहुत सारे लोगों का कल्याण हो सकता है।
गुरु शिष्य सम्बन्ध : चरम आनंद से सम्बंधित है, काम-वासना से नहीं
गुरु-शिष्य संबंध शिष्य को चेतनता के एक अधिक ऊंचे आयाम तक पहुंचाने के लिए है, उसे काम वासना की विवशकारी प्रकृति में फंसाने के लिए नहीं।
गुरु शिष्य सम्बन्ध बहुत अन्तरंग हो सकते हैं
लोग हमेशा कृष्ण-गोपी संबंध की आड़ लेने की कोशिश करते हैं। कहानी यह है कि कि कृष्ण ने एक साथ 16,000 स्त्रियों को चरम आनंद का अनुभव कराया। ऐसा यौन संबंध के द्वारा नहीं किया जा सकता। शिष्य गुरु के साथ बहुत अंतरंग संबंध बना सकता है। अंतरंगता को आम तौर पर दो शरीरों के स्पर्श के रूप में समझा जाता है। जो व्यक्ति आध्यात्मिक पथ पर है, उसके लिए शरीर की अंतरंगता पर्याप्त नहीं है। भौतिक शरीर बाहर से इकट्ठा किया गया एक ढेर है, इसलिए तांत्रिक और यौगिक प्रणालियों में, शरीर को कभी आपका एक अंतरंग हिस्सा नहीं माना जाता है। जब ऊर्जाएं टकरा कर आपस में घुलती-मिलती हैं और एक गुरु की ऊर्जा छा जाती है और शिष्य की ऊर्जा को अभिभूत कर लेती है, सिर्फ तभी चरम आनंद का अनुभव होता है। यह एक मिलन होता है, लेकिन यौन संबंधी नहीं। अगर आप सिर्फ ध्यान या आध्यात्मिक अभ्यास करना चाहते हैं, तो आपको असल में गुरु की जरूरत नहीं है। गुरु मूल रूप से अज्ञात आनंद से आपको अभिभूत करने के लिए होता है।
तंत्र मुक्ति की टेक्नोलॉजी है, दासता की नहीं।