सद्‌गुरुएक साधक जानना चाहते हैं कि बिना किसी काम के बस अकेले बैठकर दिन बिताना मुश्किल क्यों लगता है। सद्‌गुरु हमें इसका कारण और महत्व समझा रहे हैं

प्रश्न: कई बार जब मेरे पास एक ख़ाली दिन होता है तो मैं योजना बनाता हूँ किमैं वह दिन बस घर पर बैठ कर बिताऊँगा। लेकिन फिर मैं बोर हो जाता हूं। ऐसा क्यों होता है? सिर्फ बैठना मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों है?

सद्‌गुरु: अगर आप अकेले हैं और बोर हो रहे हैं, तो निश्चित रूप से आप खराब संगत में हैं। दिन बीतते-बीतते अगर आप बहुत दुखी महसूस करने लगे हैं, तो आप बहुत ही बुरी संगत में हैं।

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आपको बस बैठना है, आपको न पहाड़ चढ़ना है, न गीत गाना है और न कोई बड़ी समस्या सुलझानी है। यही ध्यान है – इसमें आपको कुछ नहीं करना, बस बैठना है।
बुनियादी सवाल यह है कि ‘मेरी समस्या क्या है? मेरे हाथ-पैर सलामत हैं, मैं देख सकता हूं, सुन सकता हूं, सूंघ सकता हूं, चख सकता हूं, फिर मुझे क्या परेशानी है?’ मगर समस्या यही है। यह आप तभी जान पाएंगे, जब आप अकेले बैठेंगे। जब आपके आस-पास लोग होंगे, तो आपको बहाना मिल जाएगा। जब आप किसी के साथ होते हैं, तो यह कहना आसान होता है कि ‘यह शख्स बहुत बेकार है, इसलिए मैं परेशान हूं। वह ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है।’ लेकिन जब अकेले बैठने पर भी यह समस्या बनी रहती है, तो आप जान जाते हैं कि समस्या का स्रोत कहां है।

अकेले बैठना गोल्फ खेलने जैसा है

यह गोल्फ के खेल की तरह है। बहुत से लोग आज इस खेल की बड़ाई करते हैं – कि इसमें बहुत मेहनत लगती है और यह दूसरे खेलों की तरह नहीं है। उन्होंने इस खेल को दिव्य बना दिया है। कई लोगों को यह सबसे मुश्किल और असंभव खेल लगता है क्योंकि जब वे गेंद को मारते हैं, तो वे दरअसल मिट्टी खोद बैठते हैं। इसलिए उन्हें लगता है कि इसमें बहुत एकाग्रता और ध्यान की जरूरत होती है।

लेकिन अगर आप किसी दूसरे खेल को देखें, तो वहां गेंद अलग-अलग रफ्तार से, अलग-अलग कोणों से, अलग-अलग तरह से उछलते हुए आपकी ओर आती है। आपको एक पल में अनुमान लगाकर उसे खेलना पड़ता है।

आपको अकेले जरूर बैठना चाहिए, यह बहुत जरूरी है। ईश्वर का साथ उसी को मिलता है, जो किसी का साथ नहीं खोजते।
यहां, गेंद एक जगह पड़ी रहती है। आपके पास दुनिया भर का समय होता है। आप सोच सकते हैं, आप खड़े होकर खुद को बार-बार व्यवस्थित कर सकते हैं – गेंद वहीं आराम से पड़ी रहती है। फिर भी कई लोग गेंद मारते समय मिट्टी खोदते हैं। अकेले बैठना भी ऐसा ही है। आपको बस बैठना है, आपको न पहाड़ चढ़ना है, न गीत गाना है और न कोई बड़ी समस्या सुलझानी है। यही ध्यान है – इसमें आपको कुछ नहीं करना, बस बैठना है। यह सबसे आसान चीज है, है न? मगर देखिए सिर्फ अकेले बैठने में आपको कितनी सारी परेशानियां होती हैं।

हर चीज अनावश्यक रूप से पेचीदा लगती है क्योंकि आपने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया, जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं। जबकि इसमें कोई पेचीदगी नहीं है। यह एक सुंदर मशीन है। यह चाहे शांत रहे, या शोर मचाए, दोनों रूपों में अच्छी होती है। अगर आप इसे अच्छी तरह रखें, तो यह दोनों तरह से बढ़िया काम करती है। अगर आप इसे अच्छी तरह नहीं रखेंगे, तो जब इसे शांत रहना चाहिए, उस समय यह शोर करेगा और जब इसे शोर करना चाहिए, उस समय उससे कोई आवाज नहीं आएगी।

जवानी में ही अकेले बैठना सीखना होगा

आपको अकेले जरूर बैठना चाहिए, यह बहुत जरूरी है। ईश्वर का साथ उसी को मिलता है, जो किसी का साथ नहीं खोजते। अगर आपके पास साझा करने के लिए कुछ है, तो यह अलग बात है लेकिन अगर आप सिर्फ साथ चाहते हैं, तो ईश्वर सोचता है ‘अच्छा, इसे किसी और का साथ चाहिए। फिर मेरी क्या जरूरत है?’

मुझे बहुत पहले यह एहसास हो गया था कि जब तक आप अकेले नहीं बैठेंगे, आप कुछ नहीं जान पाएंगे। लोगों के साथ आप बहुत सारी चीजों को छिपा सकते हैं। जब आप अकेले बैठते हैं, तो आपको अपनी बुद्धि की परीक्षा पर खरा उतरना होता है, जो सबसे भयानक होता है। आप उससे बच नहीं सकते। बेहतर है कि आप अपने जीवन में जितनी जल्दी संभव हो, सबसे तेज़ चाकू की धार से गुज़र जाएं। वरना आप बड़े होकर एक बुज़ुर्ग मूर्ख बन जाएंगे। युवा मूर्ख होने में कोई बुराई नहीं, मगर आपको बुज़ुर्ग मूर्ख नहीं होना चाहिए। युवा मूर्ख चल सकता है, मगर एक अनुभवी और बुज़ुर्ग की मूर्खता माफ़ी के क़ाबिल नहीं होती है।