आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। इस अवसर पर ये सोचना बहुत जरूरी लगता है कि एक नारी के नारित्व का विकास, उसका सहजता से खिलना कितना जरूरी है - न केवल उसके लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए भी। आइए इस विषय पर विस्तार से जानते हैं:

 

आध्यात्मिक झुकाव वाले समाजों में पुरुष या स्त्री होना कोई समस्या की बात नहीं थी क्योंकि आपका पुरुष या महिला होना मुख्य रूप से एक भौतिक मुद्दा होता था। अगर आपके शरीर और अन्य भौतिक चीज़ों से परे कोई चीज आपके भीतर एक जीवंत हकीकत बन जाती है, तो आप अपने भौतिक अस्तित्व को काफी आसानी से संभाल सकते हैं।

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अभी भी इस दुनिया में एक स्त्री पूरी सहजता से नहीं रह सकती – वह अपने शरीर को लेकर भी सहज नहीं होती। बहुत कम औरतें पूरी सहजता के साथ सड़क पर चल सकती हैं। बाकी सभी खुद को लेकर बहुत ही ज्यादा सतर्क होती हैं। अगर कोई स्त्री अपने शरीर को लेकर सहज हो, वह हमेशा अपने शारीरिक अंगों को लेकर सजग न हो, तो उसे अपनी स्त्री-प्रकृति की अभिव्यक्ति के बारे में कुछ भी करने की जरूरत नहीं है।

एक स्त्री होने का मतलब मुख्य रूप से यह है कि वह जीवन-यापन की प्रक्रिया से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होती। वह आराम से रह सकती है और अपने आस-पास की चीजों का आनंद उठा सकती है।
जो नारी की प्रकृति है, वही उसके भीतर से बाहर आएगी। गुलाब का फूल गुलाब बनने के लिए संघर्ष नहीं करता। वह पोषण पाने के लिए संघर्ष कर सकता है, मगर सुगंधित होने की कोशिश नहीं करता। इसलिए एक पुरुष या स्त्री को पुरुष या स्त्री बनने की कोशिश करने की जरूरत नहीं है। यह स्वाभाविक रूप से होता है। आपको बस उसे पोषित करने, और उसके रास्ते में आने वाली रुकावटों को दूर करने की जरूरत है।

एक स्त्री होने के लिए यह जरूरी नहीं है कि आप खुद को पुरुष से अलग करें और अकेले रहने का फैसला करें। यह कोई हल नहीं है। अगर आप अपनी मर्जी से अकेले रहना चाहती हैं और अपने आप में खुश हैं, तो इसमें कोई बुराई नहीं है। मगर एक स्त्री होने के लिए आपको पुरुष से अलग होने की जरूरत नहीं है। बल्कि उसकी अभिव्यक्ति के लिए आपको पौरुष गुणों की परत की जरूरत होती है।

अगर आप अकेले, अपने बलबूते पर रहती हैं, तो आपको अपने गुजारे का ध्यान खुद रखना होगा। जीवन के रोजाना के संघर्ष की प्रक्रिया में हो सकता है कि धीरे-धीरे आप यह भूल जाएं कि एक स्त्री होने का क्या मतलब है। क्योंकि जब तक कि आप खुद को सख्त नहीं बना लेतीं और दूसरों को धकेलते हुए अपना रास्ता नहीं बनातीं, आपकी समस्याएं एक पुरुष की समस्या की तरह हो जाएगी। और फिर कुछ समय बाद आप पूरी तरह भूल सकती हैं कि एक स्त्री होने का क्या अर्थ होता है।

एक स्त्री होने का मतलब मुख्य रूप से यह है कि वह जीवन-यापन की प्रक्रिया से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होती। वह आराम से रह सकती है और अपने आस-पास की चीजों का आनंद उठा सकती है। पुरुष को भी आराम करने की जरूरत है।

सामाजिक रूप से, मानवता के लिए, यह बहुत अहम है कि नारी-सुलभ गुणों की अभिव्यक्ति भी उतनी ही हो, जितनी नर-सुलभ गुणों की।
वह चाहे जो भी कमाए, गुजारे के लिए जो कुछ भी करे, घर आकर उसे आराम की जरूरत होती है और स्त्री-प्रकृति से संबंधित गुणों के बिना वह आराम नहीं कर सकता। अगर वह सिर्फ पुरुष गुणों से घिरा रहे, तो वह हमेशा जोश में होगा। थोड़ा-बहुत जोश भी जरूरी है, वरना कोई काम नहीं हो पाएगा।

इसलिए आराम और जोश के बीच एक संतुलन का होना जरूरी है। यहीं पर नर-सुलभ और नारी-सुलभ गुणों की एक अहम भूमिका होती है। कोई इंसान अपने जीवन में किसी दूसरे व्यक्ति को शामिल करता है या नहीं, यह उसकी अपनी पसंद है, मगर सामाजिक रूप से, मानवता के लिए, यह बहुत अहम है कि नारी-सुलभ गुणों की अभिव्यक्ति भी उतनी ही हो, जितनी नर-सुलभ गुणों की। जैसे हमने इतने सारे वैज्ञानिक और इंजीनियर पैदा किए हैं, हमें उतने ही कलाकार और संगीतकार भी पैदा करने की जरूरत है। अगर हम किसी एक पर बहुत ज्यादा ध्यान देंगे तो चीजों को करने का जोश तो होगा, मगर इस जोश से दुनिया नष्ट हो जाएगी।

आज दुनिया इसलिए बची हुई है क्योंकि दुनिया की पचास फीसदी आबादी अकर्मण्य और आलसी है। आलसी लोग ही धरती को बचा रहे हैं। इस धरती पर जितनी तकनीकें मौजूद हैं, अगर सभी 7 अरब लोग पूरी तरह पौरुष और जोश से भर जाएं, तो यह धरती बहुत दिन तक कायम नहीं रह पाएगी। कितने अफसोस की बात है कि इंसान का आलस इस धरती को बचा रहा है। इंसान की बुद्धि, प्यार या करुणा नहीं, उसका आलस दुनिया को बचा रहा है। अगर स्त्री-गुणों को पुरुष-गुणों जितनी ही अभिव्यक्ति मिलती, तो मनुष्य की समझ निश्चित रूप से धरती को बचा सकती थी।