नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जीवन से प्रेरणा लेकर आज उनके जन्‍मदिन पर हम भेंट करते हैं सदगुरु के प्रवचन के कुछ अंश। नौकरशाही को लेकर एक आम राय बहुत सकरात्मक नहीं है। कई लोग इसे पैसे कमाने से जोड़ कर तो कई लोग इसे राजनीति से जोड़ कर देखते हैं। लेकिन क्या है इसका वास्तविक रूप? क्या है एक नौकरशाह की चुनौतियां और क्या है उसकी जरुरतें?

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सद्‌गुरु

नौकरशाही किसी राष्ट्र के जीवन में बाधक नहीं है, जैसा कि बहुत से लोग मानते हैं। हमारी राष्ट्रीयता राजनैतिक नेताओं और चुनाव पद्धति पर टिकी हुई नहीं है, बल्कि इसकी बुनियाद देश की नौकरशाही है। हमारा देश ठीक-ठाक ढंग से चल रहा है, तो केवल इसलिए क्योंकि हमारे पास एक सुदृढ़ और सुव्यवस्थित नौकरशाही व्यवस्था है, जो एक खास तरीके से प्रशिक्षित है।
देश का प्रशासन चलाने का कार्य एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। यह उन जिम्मेदारियों से कहीं, बड़ी है जो राजनेताओं को पांच सालों के लिए मिलती है। इसलिए एक नौकरशाह के जीवन को इस तरह से सशक्त करना जरूरी हो जाता है जिससे उसका जीवन तनाव और रोगों से मुक्त रहे, ताकि राष्ट्र अपने ही भार से दबकर चरमरा न जाए।

अगर आज यह चरमरा रहा है तो इसका कारण यह है कि इसके बुनियादी ढांचे को उसकी सीमाओं से आगे खींचा जा रहा है। हमारे नौकरशाहों को हद से ज्यादा और अतर्कसंगत कार्य करने के लिए कहा जा रहा है। कानूनों को लागू करने की बजाए उनको तोड़ने-मरोड़ने के लिए उनसे कहा जा रहा है। इन वजहों से एक नौकरशाह की जिंदगी बेहद चुनौतीपूर्ण और अपेक्षाओं से भरी हो गई है।
जहां काॅरपोरेट जगत में प्रबंधन यानी मैनेजमेंट मुख्यतः एक ही दिशा में कार्य करता है वहीं सरकारी तंत्र में प्रबंधन या कहें नौकरशाही को बेहद जटिल और बहुआयामी कार्य करना पड़ता है। इंसानों और परिस्थितियों के साथ बेहद जटिल तालमेल बिठाना पड़ता है। नौकरशाहों के काम की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि यह उनसे एक बड़ी कीमत वसूल लेती है, एक व्यक्ति के तौर उन्हें बहुत कुछ गंवाना पड़ सकता है, अगर वह अपने आप को आंतरिक रूप से सशक्त नहीं करें। उन्हें अपने भीतरी हालात को ऐसे संभालना होगा कि किसी भी प्रकार के बाहरी झंझावातों का असर उनको हिला नहीं सके।
मेरी यह कोशिश है कि इस नौकरशाही को बिल्कुल सतही तौर पर न देखा जाए बल्कि इसे एक ऐसे साधन या कहें डोर के रूप में देखा जाए जिसने पूरे राष्ट्र को एक साथ बांध रखा है। यह डोर तभी मजबूत हो सकती है कि जब हरेक नौकरशाह को आंतरिक संतुलन और मजबूती के एक निश्चित स्तर तक लाया जाए।

नौकरशाहः सुखद जीवन के साधन

उपनिवेशीय युग में नौकरशाहों को प्रायः निरंकुश शासन के लिए इस्तेमाल किया जाता था। वे कर वसूली करने वाले और सरकार के आदेशों को लागू कराने वाले के रूप में जाने जाते थे। दुर्भाग्य से आज भी कुछ राज्यों में जिला प्रशासकों को ‘कलेक्टर’ के रूप में ही देखा जाता है। इस सोच को, जो व्यापक रूप से फैली हुई है, जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत है।
लोगों को चाहिए कि वो नौकरशाहों को इस नजर से देखें कि ये वो लोग हैं जो उनके सुख के लिए, उनके कल्याण के लिए काम करते हैं। यह केवल तभी संभव है जब नौकरशाह स्वयं सहज आंतरिक सुख की स्थिति पाने में समर्थ हों। प्रत्येक लोकसेवक; सिविल सर्वेंटद्ध के पास यह अवसर होता है कि वो अपने कार्यकाल दौरान करोड़ों जिंदगियों को प्रभावित कर सके। ऐसी शक्ति का होना, जो लोगों के जीवन को बदल सकती हो, बड़े सौभाग्य की बात है। हमारे जैसे देश में, जहां आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा दयनीय और बुरी जिंदगी जी रहा है, यह सही में सौभाग्य ही है कि हमारे पास ऐसी शक्ति है जो उनकी दुर्दशा को ठीक कर सकती है।
लेकिन यह बहुत महत्वपूर्ण है इस सौभाग्य को बोझ में न बदलने दिया जाए। इसलिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हर नौकरशाह अपने भीतर एक स्वाभाविक और सहज सुख की स्थिति में रहे। जब तक हम खुद अपने भीतर एक सुख की स्थिति में न हों हमें किसी दूसरे की जिंदगी को छूने का कोई हक नहीं है।
सामान्यतः लोग कहेंगे, ‘नहीं, नहीं, हमारे पास ध्यान करने के लिए समय नहीं है।’ लेकिन जो बात समझने की है वो यह है कि अगर काम आपका काम महत्वपूर्ण है तो आपको अपने ऊपर काम करने की जरूरत है।

उपनिवेशीय युग में नौकरशाहों को प्रायः निरंकुश शासन के लिए इस्तेमाल किया जाता था। दुर्भाग्य से आज भी कुछ राज्यों में जिला प्रशासकों को ‘कलेक्टर’ के रूप में ही देखा जाता है। इस सोच को, जो व्यापक रूप से फैली हुई है, जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत है।

सुखद अवस्था के लिए अपने आप को तैयार करें

इस प्रयास के अंतर्गत हमने यहां ईशा में सैकड़ों नौकरशाहों को अपने कार्यक्रम ‘इनर इंजीनियरिंग’ के माध्यम से सशक्त किया है। इनर इंजीनियरिंग एक वैज्ञानिक प्रकिया है, जिससे स्वयं की आंतरिक रूप से पुनर्रचना की जाती है। यह पुनर्रचना ठीक उसी तरीके से की जाती है जिस तरीके से किए जाने की जरूरत होती है। मनुष्य के भीतर का मेकैनिज्म, जो सृष्टि के स्रोत को अपने भीतर समाए हुए है, को यदि जीवंत और चिकनाईयुक्त रखा जाए, तो एक व्यक्ति किसी भी प्रकार भी परिस्थिति का सामना, बिना प्रभावित हुए, आसानी से कर सकता है। वह अत्यंत तीव्र और विषम परिस्थितियों में भी खुद को सामान्य और शांत रख सकता है। इसका मतलब यह है कि आप जैसे चाहें, जीवन से खेल सकते हैं और जीवन आपको एक खरोंच तक नहीं लगा सकता।

यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हर नौकरशाह अपने भीतर एक स्वाभाविक और सहज सुख की स्थिति में रहे। जब तक हम खुद अपने भीतर एक सुख की स्थिति में न हों हमें किसी दूसरे की जिंदगी को छूने का कोई हक नहीं है।

हर इंसानी अनुभव का एक रासायनिक आधार होता है। जब मैं ‘इनर इंजीनियरिंग’ कहता हूं तो इसका मतलब है कि मैं एक ऐसी तकनीक के बारे में बात कर रहा हूं, जिसकी मदद से आप अपने लिए सही ढंग की रसायन की रचना कर सकते हैं। आप हर समय रहने वाली आनंद की अवस्था की रचना कर सकते हैं। यह एक ऐसी अवस्था होगी जिसकी अनुभूति आपको चेतनापूर्वक होती रहेगी। अभी आपको आनंद, अचानक, संयोगवश मिलता है, जो किसी बाह्य कारण की वजह से होता है। लेकिन यदि अभी आप डूबते हुए सूरज को या अपने किसी प्रिय को देख कर अचेतनापूर्वक ही इस आनंद की रचना कर सकते हैं तो इसका मतलब है कि आप इसकी रचना चेतनापूर्वक भी कर सकते हैं।
इस आबादी को - जिसे राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो यह इस धरती की सबसे युवा आबादी है - क्या हम संभावना की दिशा में मोड़ने जा रहे हैं, या इससे हम विपदा रचने जा रहे हैं? इसे संभवना बनाने के लिए हर उस इंसान को अपना योगदान देना होगा जो इस भारत भूमि पर रहता है।

आज संसार में करोड़ों ऐसे लोग हैं जिनका जीवन आनंद और उल्लास से भर गया है, मात्र इस वजह से क्योंकि उन्होंने कुछ शक्तिशाली तरीकों को अपने जीवन में जगह दी है। पुरातन समय से ही हमारी संस्कृति की जड़ें रुपांतरण की इन बुनियादी तकनीकों में धंसी रही हैं।
एक बार आप ऐसे इंसान बन गए जो अपने अनुभवों को खुद तय कर सकता है, तब आप पूरी बेफिक्री से जी सकते हैं। तब आपको सुख के लिए किसी वस्तु या किसी व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा, आप अपने आप में मग्न और आनंदित रहेंगे। एक बार जब दुख का डर आपकी जिंदगी से चला जाएगा तब पूरे आराम और शान से अपने कदम चलेंगे, डर-डर कर छोटे कदम नहीं उठाएंगे। तब जिंदगी आपके लिए बस एक खेल होगी। आप उसी तरीके से इस खेल को खेलेंगे जिस तरीके से खेलने की जरूरत होगी।

उपनिवेशीय युग में नौकरशाहों को प्रायः निरंकुश शासन के लिए इस्तेमाल किया जाता था। दुर्भाग्य से आज भी कुछ राज्यों में जिला प्रशासकों को ‘कलेक्टर’ के रूप में ही देखा जाता है। इस सोच को, जो व्यापक रूप से फैली हुई है, जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत है।
यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हर नौकरशाह अपने भीतर एक स्वाभाविक और सहज सुख की स्थिति में रहे। जब तक हम खुद अपने भीतर एक सुख की स्थिति में न हों हमें किसी दूसरे की जिंदगी को छूने का कोई हक नहीं है।