गृहस्थ,रकून और ऊंचे आयाम
इस हफ्ते के स्पॉट में सद्गुरु गृहस्त होने के महत्त्व के बारे में लिख रहे हैं। गृहस्थ का आशय है...
अमावस्या का मतलब है चंद्रमा की नई कला की शुरुआत। आमतौर पर जो लोग गृहस्थ या परिवारीजन होते हैं और आध्यात्मिकता के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उनके लिए पूर्णिमा ज्यादा उपयुक्त और अनुकूल मानी गई है। गृहस्थ का आशय है, घरबार चलाने वाला यानी जिसका घर पर स्वामित्व हो। हालांकि घर का काम था हमें संभालना, लेकिन अब हम ही घर को संभालते हैं। शुरू में घर का खयाल आया था हमें सिर्फ शारीरिक रूप से आश्रय प्रदान करने के लिए, लेकिन आज यह शारीरिक आश्रय से बढ़कर कहीं ज्यादा हो चुका है, अब यह मनोवैज्ञानिक आसरा बन चुका है। हम इस काम में निपुण हो गए हैं कि अपनी भलाई के लिए हम जो भी साधन इस्तेमाल करते हैं, उसे हम अपनी कब्र में तब्दील कर लेते हैं। घर एक बेहतरीन साधन है, जिससे हम चीजों को सुव्यवस्थित कर अपने लक्ष्य को पाने के लिए ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन ज्यादातर लोगों के लिए ऐसा नहीं है। घर को सुव्यवस्थित करने में वे इतने व्यस्त हो जाते हैं कि वे महज घर के स्वामी बन कर ही रह जाते हैं।
तो आमतौर पर गृहस्थ जनों के लिए आध्यात्मिकता से जुड़ा कुछ भी करने के लिए पूर्णिमा अनुकूल मानी जाती है, क्योंकि यह उनके लिए सौम्य और शांत होती है। आमतौर पर देखा गया है, जो शांत और सौम्य होता है, वह धीमा भी होता है। जबकि अमावस्या उन तपस्वियों व साधकों के लिए है, जो बेहद हड़बड़ी में हैं और जिनके पास ज्यादा वक्त नहीं है। यहां वक्त की कमी का आशय वृद्धावस्था से नहीं है, बल्कि तीव्र लालसा से है। जो व्यक्ति जानने की तीव्र लालसा की आग में जल रहा हो, उसके पास ज्यादा वक्त नहीं होता, क्योंकि हो सकता है कि यह आग कल सुबह तक उसे भस्म में बदल दे। ऐसे लोगों के लिए यह रात बेहद उपयोगी है। यह रात शिव से संबंधित है, क्योंकि शिव का संबंध संहार, अग्नि और भस्म से जोड़ा जाता है। जिस क्षण आप शिव शब्द का उच्चारण करते हैं, उसमें भस्म, अग्नि, दाह और विध्वंस जैसी चीजें उस शब्द का हिस्सा होती हैं। इस धरती पर सबसे नजदीकी घटना जो स्वभाविक रूप से संहार या शून्यता के करीब होती है वह है अमावस्या। अमावस्या से एक दिन पहले वाली जो रात होती है, वह सर्वाधिक अंधियारी होती है, इसलिए इसे शिवरात्रि कहा जाता है। इसके अगले दिन अमावस्या होती है, जो दरअसल चांद की नई शुरुआत है, क्योंकि इसी दिन चांद अपनी अगली यात्रा शुरू करता है।
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हम सृजन की प्रकृति पर बहस करते रहते हैं, क्योंकि ज्ञान व जानने का संपूर्ण सार ही यही हैः वैसा बन जाना जैसा सृष्टा ने चाहा है – अपनी मूर्खता के अनुरूप बनने की कोशिश नहीं करना। ठीक वैसा बनना जैसा सृष्टा ने तुम्हें बनाना चाहा है। अब सवाल यह है कि क्या हम भी वैसा ही जीवन जिएं, जैसा इस धरती पर और प्राणी जीते हैं, मसलन जब जी में आए खाना खाएं, जब कोई चीज करने की इच्छा हो तो वह करें और जब दूसरी चीज करने का मन हो तो फिर उसे करने लगें। अगर रचयिता हमें ऐसा बनाना चाहता, तो वह हमें इंसान बनाने की बजाय रकून (दक्षिण अमेरिका में पाया जाने वाला एक जानवर) बनाया होता – मसलन खाना सामने दिखते ही खाना चालू कर देते, मौसम के आते ही मैथुन में जुट जाते, और उम्र होते ही मर जाते। जब मैं रकून कहता हूं तो उसका मतलब आप हर्गिज यह मत निकालिएगा कि वह कोई दीन-हीन जीव है, वह एक बुद्धिमान जीव है। मैं पिछले कुछ दिनों से उसकी प्रसंशा कर रहा हूं। दो दिन पहले एक गमला लाकर उसे बाहर बरामदे में रखा गया था। उस में जो पौधा था, उस पर ढेर सारे फूल लगे थे, वह छांव में रखा हुआ था। जब भी किसी पौधे को आप छांव में रखते हैं तो उसकी सुगंध इतनी नहीं होती, जितनी धूप में रखे पौधे की होती है। कुछ घंटों में ही इस रकून को पता चल गया कि उसका शाम का नाश्ता कहां है। वह आया, उसने उस पौधे को काटा, खाया और चला गया। हमें नहीं पता कि रात के खाने के लिए साहब कहां गए होंगे। बात सिर्फ इतनी है कि एक छोटा पौधा यहां लाया गया और उसे इसका पता चल गया कि उसका शाम का नाश्ता कहां है।
मैं यह सब इसलिए कह रहा हूं कि जब जीवित रहने की बात आती है तो आप के पास उतनी व्यवस्था नहीं होती, जितनी उसके पास है। अगर आपको बिना सूचित किए रात का खाना परोस दिया जाए तो आप उसकी खोज में हर ओर भटकते रहेंगे, आप को पता ही नहीं चलेगा कि खाना कहां रखा है। लेकिन अगर आप रकून होते तो हम आप का खाना आपको बिना बताए कहीं भी रख देते और फिर भी आपको पता चल जाता कि खाना कहां है। मैं यह बात उसके प्रति अनादर की भावना से नहीं कह रहा हूं। इस पूरे घटना क्रम के पीछे की बुद्धिमत्ता को देखते हुए मैं इसकी कद्र करता हूं। एक गृहस्थ होने के नाते वह आपसे बहुत ज्यादा सुनियोजित है। आपकी उससे कोई स्पर्द्धा ही नहीं है। गृहस्थ होने के मायने हैं कि आप अपनी जीवित रहने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित रखें, ताकि आप को राजमर्रा के जीवन के लिए न तो चिंता करनी पड़े और न ही जद्दोजहद। अगर आप अपने घर-गृहस्थी को महिमामंडित कर स्वर्ग बनाने के चक्कर में हैं, तो यह आपकी समस्या है। असली बात यह है कि आप अपनी भौतिक जरूरतों को इस तरह से नियोजित करें ताकि आपका आचरण शालीन लगे। मै इसे गलत या सही नहीं कह रहा हूं, बात बस इतनी है कि वास्तविकता यही है। और चूंकि यह मनुष्य के जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, इसलिए ठीक ही है।
तो भौतिकता के लिए समर्पित होना ‘रकूनवाद‘ है, क्या भौतिकता गलत है? नहीं, अगर भौतिकता परे जाने की एक सीढ़ी है तो वह बहुत सुंदर है। भौतिकता में कोई बुराई नहीं है। अगर आपका घर एक ऐसी संभावना या विकल्प है, जहां आपको रोजमर्रा के तमाम झंझटों से मुक्ति मिलती है, अगर वह इतना सुनियोजित है कि वह कुछ और तलाशने में आपके लिए सहायक साबित हो रहा है तो यह वाकई बहुत अच्छी बात है। और एक आश्रम को हमेशा ऐसा ही होना चाहिए। आप में से जो लोग इसे आश्रम बनाने में लगे हैं, उनके लिए यह उच्चतर संभावनाओं के लिए सिर्फ एक साधन है। यह अपने आप में आरामगाह नहीं बन सकता, यह अपने आप में कोई लक्ष्य नहीं बन सकता। यह लक्ष्य नहीं है, यह सिर्फ एक साधन है, एक जरिया है।