सद्‌गुरुक्या आश्रम सुख के स्थान होते हैं? क्या वहां रहने वाले को कष्ट नहीं होता? तो फिर क्यों रहना चाहिए किसी को आश्रम में? आखिर क्या बात होती हैं आश्रम में?

ईशा योग केंद्र आध्यात्मिक उद्देश्य के लिए रचा गया है

किसी आश्रम में रहने का आखिर क्या उद्देश्य होता है? देखिए, आश्रम कई तरह के होते हैं। जो लोग बाहरी समाज में अपनी देख-भाल नहीं कर सकते, उनके भोजन, आवास आदि का प्रबंध नहीं हो पाता तो वे किसी विशेष तरह के आश्रमों में चले जाते हैं।

आध्यात्मिक व्यक्ति परम से नीचे, किसी दूसरी चीज़ से संतुष्ट होना ही नहीं चाहता। अगर वह असंतुष्ट है और दुखी भी है, तो वह बदसूरत हो जाएगा। अगर वह प्रसन्नतापूर्वक असंतुष्ट है, तो वह ओजस्वी होगा।
ईशा योग केंद्र उस प्रकार के आश्रमों में से नहीं है। यह आश्रम आध्यात्मिक उद्देश्य से बनाया गया है। तो सवाल है कि कोई ऐसे आश्रम में क्यों आना चाहेगा, जिसे आध्यात्मिक उद्देश्य से बनाया गया हो? ऐसी क्या चीज है जो इस आश्रम को इस तरह का स्थान बनाती है? इसका क्या महत्व है और ऐसे स्थान में क्यों रहना चाहिए?

यह एक आध्यात्मिक स्थान है क्योंकि इस स्थान पर जरुरी ऊर्जा का निवेश किया गया है। अगर हम भी वेलांगिरि पर्वतों पर वास करने वाले अन्य प्राणियों की तरह ताकतवर होते, तो हम इस स्थान पर भवन बना कर इसे गंदा न करते - बस मैदानों में ही सो लेते।

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आश्रम में निवास करने का अर्थ है, ऊर्जा की इस छतरी के तले रहना। जब यह ऊर्जा बहुत से लोगों को पागलपन की तरफ ले जा रहा है तो यहाँ रहने का मकसद क्या है? आप यहाँ ठहरते हैं, तो आपको यहाँ रहना मुश्किल लगता है। अगर आप इस स्थान को छोड़ते हैं तो आपसे कहीं और रहां नहीं जाता क्योंकि इस ऊर्जा का उद्देश्य ही यही है कि यह आपको कहीं टिकने नहीं देती।

जीवन को तेज़ी से आगे बढाने के लिए

ऊर्जा की इस छतरी को बनाने का उद्देश्य यही है कि आपके जीवन को तेज़ी से आगे बढ़ाया जा सके। जो लोग आध्यात्मिक पथ पर चलते हैं, उनके भीतर न बूझने वाली प्यास होती है। कहा जाता है कि आध्यात्मिकता का अर्थ संतुष्टि है, जबकि ऐसा नहीं है।

यह एक आध्यात्मिक स्थान है क्योंकि इस स्थान पर जरुरी ऊर्जा का निवेश किया गया है।
संतुष्टि का अर्थ है, आपके पास जो है आप उसमें संतुष्ट हो गए। आध्यात्मिक व्यक्ति परम से नीचे, किसी दूसरी चीज़ से संतुष्ट होना ही नहीं चाहता। अगर वह असंतुष्ट है और दुखी भी है, तो वह बदसूरत हो जाएगा। अगर वह प्रसन्नतापूर्वक असंतुष्ट है, तो वह ओजस्वी होगा। वह हमेशा एक संभावना है। वह अपने भीतर एक ही बिंदु पर रुका नहीं रहना चाहेगा। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उसे वहाँ कितना आराम मिल रहा है, वह किसी एक बिंदु पर नहीं टिकेगा। उसके भीतर कहीं न रुकने की ज्वलंत तड़प है, वह कहीं ठहरना नहीं चाहता, वह किसी भी सुविधा के बंधन में नहीं बँधना चाहता, वह तेज़ धारा के साथ बहना चाहता है।

इनर इंजीनियरिंग - सबसे ऊंचा शिखर

जब हम जीवन को तेज़ी से आगे बढ़ाते हैं तो आपके अनुभव में हर चीज़ बढ़ जाती है। आपके आनंद और कष्ट, दोनों ही बढ़ जाते हैं।

इस आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले मनुष्य के मन में केवल एक ही भय होना चाहिए कि कहीं उसे कचरे के ढेर पर न डाल दिया जाए।
जब आपकी पीड़ा बढ़ती है तो आप सोचते हैं, ‘ये आध्यात्मिकता क्या बला है? मैंने इसे अपने लिए क्यों चुना? मुझे तो लगा था कि ये बहुत आनंददायक होगी... कम से कम इसके विज्ञापन में तो यही बताया जाता है। ‘इनर इंजीनियरिंग - पीक ऑफ़ वैलबीइंग, यानी कल्याण का शिखर।’ ऐसा होता तो है, पर आपको यह भी समझना होगा कि सबसे ऊंचे शिखर पर पहुंच कर, सिर्फ खड़े रह पाना भी कल्याण ही है।

आध्यात्मिक प्रक्रिया में बने रहने की चाहत

एक सुंदर कहानी है। किसी गाँव में एक गरीब लुहार रहता था। उसे देख कर लगता था मानो वह संसार के सारे कष्टों के लिए चुम्बक हो, हर तरह के कष्ट उससे आ कर चिपक जाते थे। पर वह एक भक्त था, प्रार्थनामय बने रहने में विश्वास रखने वाला भक्त। एक बार उसका एक अविश्वासी मित्र उसके पास आ कर बोला, ‘यह क्या तुम हमेशा अपने भगवान की प्रार्थना करते रहते हो? ज़रा अपने जीवन को तो देखो! हमेशा तो तुम कष्ट में ही होते हो।’

तब लुहार ने कहा, ‘देखो, मैं बस अपने पेशे को जानता हूँ। मैंने जो भी सीखा है, अपने पेशे से ही सीखा है।

‘इनर इंजीनियरिंग - पीक ऑफ़ वैलबीइंग, यानी कल्याण का शिखर।’ ऐसा होता तो है, पर आपको यह भी समझना होगा कि सबसे ऊंचे शिखर पर पहुंच कर, सिर्फ खड़े रह पाना भी कल्याण ही है।
मैं अगर कोई उपयोगी औजार बनाना चाहता हूँ, तो मैं लोहे के टुकड़े को ले कर, गर्म करता हूँ, पीटता हूँ, ठंडा करता हूँ, फिर गर्म करके पीटता हूँ...अगर कोई टुकड़ा यह गर्म करने, पीटने और ठंडे करने का सिलसिला सहन नहीं कर पाता तो उसे कचरे के ढेर में डाल देता हूँ। अगर वह टुकड़ा यह सब सहन कर सकता है तो यह बहुत उपयोगी बन जाता है। तो मेरी प्रार्थना तो केवल यही है कि हे ईश्वर, मुझे गर्म करो, पीटो और ठंडा करो, जो जी में आए करो - पर कभी कचरे के ढेर में मत फेंकना।’

सुविधाजनक स्थान वह कचरे का ढेर ही है। कोई भी आपको गर्म नहीं करता, कोई आपको पीटता नहीं और न ही कोई आपके साथ कुछ कर रहा है, पर आप कचरे के ढेर पर हैं। आपको पीड़ा से घबराना नहीं चाहिए, आपको कष्टों से घबराना नहीं चाहिए, आपको मौत से घबराना नहीं चाहिए। इस आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले मनुष्य के मन में केवल एक ही भय होना चाहिए कि कहीं उसे कचरे के ढेर पर न डाल दिया जाए।