गोधूली की बेला सी अँधियारे गुंबद के बीच
उभरा एक स्याह रूप
एक काले पत्थर सा चमकता हुआ
मौन, अडिग, निष्ठुर - क्या अनाकर्षक भी?
वहाँ बैठ पाना भी है मुश्किल,
कष्टप्रद है पत्थर के कठोर फर्श पर बैठना।
मैं चाहती हूँ सो जाना, न कि ध्यान करना!
15 मिनट होता है बहुत लंबा समय!
भटकता है मेरा ध्यान - कुछ लोग ले रहे हैं खर्राटे,
वह बैठी हिला रही है अपना सिर,
बच्चे का रोना कानों में चुभ रहा है
सहज ध्यान?
कम से कम मेरे साथ तो नहीं हो रहा!
वहाँ उदय हुए,
गुंबद के बीच में भोर के समान,
वे
मौन, धड़कते हुए
पूरी तरह से मनोरम
अपने अटूट प्रेम में सराबोर,
और बाँध लिया उन्होंने मुझे
गहन ध्यान की गिरफ्त में।
एक सांस हिमालय की हवा की तरह
आती है अंदर, और चली जाती है बाहर,
और ठंडा कर देती है नासिकाओं को।
क्यों बांधा है आपने मुझे इस अमर आलिंगन में?
क्यों बुलाते हैं मुझे आप?
कृपया मुझे न करें परेशान, मेरे भगवान!
कहीं मैं धराशायी न हो जाऊं...
बनी रहने दें इस दूरी को, थोड़ी देर तक
ताकि मैं देख पाऊं आपको
और डूबी रहूँ आपके असीम प्रेम में।
—सागरिका चट्टोपाध्याय, ईशा साधक, इंदौर