हर तरह के प्राणियों ने की मदद
ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा में तीन सालों की गहन मेहनत लगी। सद्गुरु उस मूलभूत प्रक्रिया के बारे में बता रहे हैं, जिसके द्वारा प्राण प्रतिष्ठा के लिए जरूरी माहौल तैयार किया गया था।
सद्गुरु: ध्यानलिंग को एक शक्तिशाली बल बनाने के लिए - एक ऐसा पवित्र स्थल, जो किसी भी धर्म, किसी भी विश्वास, सिद्धांत तथा ग्रंथों से परे था - वहाँ ऐसे अनेक अद्भुत व समर्पित मनुष्य उपस्थित थे, ऐसे मनुष्य जिन्होंने अपने बारे में दोबारा सोचा तक नहीं। मेरे पास उनके लिए क्या है? मेरे शब्दकोष में तो ऐसे शब्द भी नहीं हैं, जिनसे उनका आभार प्रकट हो सके। मेरे पास उनके लिए कुछ नहीं क्योंकि मैंने हर संभव उपाय से, उन्हें अपना ही एक हिस्सा बना लिया है, और मैं इससे बेहतर कुछ नहीं जानता। उनके अलावा, हमने और भी बहुत से बलों को काम पर लगाया। ऐसे प्राणी, जिनका हमसे कोई लेन-देन न था। वे जगमगाते...घिनौने, सभी तरह के रूपों के प्राणी- मैं उन सबके प्रति अपना आभार प्रकट करना चाहता हूँ क्योंकि वे हमें सहायता दे रहे हैं और हमारे जीवन को प्रभावशाली बना रहे हैं।
मैंने उनका अपहरण किया - उनमें हर तरह के जीव, शैतान, बौने, योगी, विदेही जीव, देवी तथा देवता शामिल थे।
अस्तित्व में ऐसे बहुत से रूप हैं, जिन्हें आम तौर पर मनुष्य के बोध तथा क्षमताओं से परे माना जाता है। इनके साथ कोमलता से पेश आना चाहिए। लोग महीनों होम और हवन करते हैं, अनुष्ठान और बलि आदि करते हैं ताकि उन्हें आमंत्रित कर, उनका आशीर्वाद पाया जा सके। मैंने उनका अपहरण किया - उनमें हर तरह के जीव, शैतान, बेताल, योगी, विदेही जीव, देवी तथा देवता शामिल थे। उन्हें आमंत्रित करने के लिए मैंने बैठकर प्रार्थना नहीं की, मैंने सब कुछ जबरदस्ती किया। और अगर उनका अपहरण किया जाए तो वे आप से क्रोधित होते हैं। अगर उन्हें जबरदस्ती पकड़ा जाए, तो वे आपको हानि पहुंचाएंगे।
मैं जानता था कि अगर मैं इस तरह अपनी ऊर्जाओं का प्रयोग करता हूँ, तो मेरा शरीर नष्ट होगा। पर उस समय मेरा यह शरीर इतना मायने नहीं रखता था। इसलिए मैं केवल उन्हीं बातों पर ज़ोर दे रहा था, जो ध्यानलिंग के निर्माण से जुड़ी थीं, भले ही मेरे लिए पूर्ण रूप से विनाशक रही हों क्योंकि यह मेरे जीवन का अंतिम चरण था और वे मुझे सताने के लिए कहीं और नहीं पकड़ सकेंगे। इन ऊर्जाओं के संयोग से ही यह प्राण-प्रतिष्ठा संभव हो सकी। उन्होंने ( अपने गुरु की ओर संकेत) मुझसे यह नहीं पूछा कि मैं उस काम को करने जा रहा हूँ या नहीं - उन्होंने बस मान लिया कि मुझे यह काम करना ही होगा। मुझे मेरे गुरु का सपना पूरा करना है, केवल यह एक संकल्प, सभी नियमों, नीतियों व सुरक्षा से परे था। मैंने सब कुछ एक ओर कर दिया क्योंकि जीवन के प्रति मेरी जिम्मेदारी या प्रतिबद्धता की तुलना में, मेरी उनके प्रति प्रतिबद्धता ज़्यादा मायने रखती है।
मैंने ऐसे काम किए, जो ध्यानलिंग की स्थापना को संभव बना रहे थे पर मेरे लिए पूरी तरह से विनाशकारी थे।
भले ही ग्रंथ मुझे किसी भी रूप में लें, परंतु मैं जानता हूँ कि अन्य प्राणी - देवी और देवता मुझसे बहुत प्रसन्न हैं। भारत में, संस्कृत भाषा में हम कहते हैं, ‘देवता’, तो हम उस परम तत्व की बात नहीं कर रहे होते। ‘देव’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है, ‘एक ओजस्वी जीव’। अनेक ओजस्वी जीव उपस्थित हैं। उनका कहना है कि उनकी जनसंख्या भी बढ़ रही है। शिव ने स्वयं कहा है कि या तो उनके आशीर्वाद से मानवता पार हो जाएगी या उनकी अप्रसन्नता मानव जाति का अंत कर देगी। यह सब इसी पर निर्भर करता है कि देव प्रसन्न हैं या नहीं। मैं देख सकता हूँ कि वे मुझसे बहुत प्रसन्न हैं।