स्वयंसेवा
सद्गुरु बता रहे हैं कि स्वयंसेवा क्या है और किस तरह यह हमारे जीवन को भेंट की प्रक्रिया में बदलने की प्रक्रिया है।
सद्गुरु: योग की पूरी प्रक्रिया का मकसद अपने आप को समर्पित कर देना है। यह संभव है कि आप एक जगह अपनी आंखें बंद करके बैठते हुए खुद को दुनिया को समर्पित कर दें। मगर अधिकांश इंसानों में इस स्तर की जागरूकता नहीं है। ज्यादातर लोग ये नहीं जानते कि कोई कार्यकलाप किए बिना खुद को समर्पित कैसे कर सकते हैं। उन्हें योगदान देने के लिए क्रिया या सक्रियता की जरूरत होती है। इस दिशा में स्वयंसेवा एक जबर्दस्त संभावना है, आप अपने काम के जरिये खुद को समर्पित कर सकते हैं।
आम तौर पर हम कोई छोटा काम भी करते हैं, तो उसमें हिसाब-किताब करते हैं – ‘मुझे कितना करना चाहिए? क्यों करना चाहिए? इससे मुझे क्या लाभ होगा?’ इस हिसाब-किताब में काम की सारी सुंदरता खो जाती है।
जीवन की पूरी प्रक्रिया ही बदसूरत हो गई है। आप अपने जीवन में जो चीजें करते हैं, उनमें से ज्यादातर ऐसी चीजें होती हैं, जिन्हें असल में आपने करने के लिए चुना है। इसके बावजूद हमें रोजमर्रा के कार्यकलाप में मामूली चीजें करने में भी बहुत मुश्किल होती है क्योंकि हम देने के मामले में अनिच्छुक होते हैं। लोग भूल जाते हैं कि हमने इसे अपनी इच्छा से शुरू किया था। चाहे यह आपका काम हो, आपकी शादी, परिवार या और कुछ, आप इन सभी में अपनी इच्छा से आए थे क्योंकि आप अपने जीवन में इन चीजों को चाहते थे। मगर एक बार शुरुआत करने के बाद आप भूल जाते हैं कि आपने इसे शुरू क्यों किया था। फिर आप अनिच्छा से देना शुरू करते हैं और यह एक कष्टदायक प्रक्रिया बन जाती है।
स्वयंसेवा अपने जीवन को सिर्फ देने की प्रक्रिया बनाना सीखने का एक तरीका है। ‘स्वयंसेवक’ का अर्थ है इच्छुक। इच्छुक का मतलब सिर्फ कोई काम करने की इच्छा नहीं है, बल्कि उसे सिर्फ इच्छुक होना चाहिए। जब तक कोई इंसान स्वयं इच्छा न बन जाए, तब तक उसके साथ कोई आध्यात्मिक प्रक्रिया घटित नहीं हो सकती।