Sadhguruवाराणसी - जिसे बनारस और काशी भी कहते हैं, भारत का सबसे पुराना और आध्यात्मिक शहर है। किसने रचा इस शहर को? क्या शिव खुद यहां रहते थे? क्या है इसका इतिहास? आइये जानते हैं इस संवाद के द्वारा वाराणसी की विशेषताएं

प्रसून जोशी: सद्‌गुरु, युगों पहले से लोग बनारस के बारे में बात करते आ रहे हैं। इस शहर में आखिर ऐसा क्या खास है? कहा जाता है कि कुछ यंत्र और खास विचार को ध्यान में रखते हुए इस शहर का डिजाइन तैयार किया गया था। क्या आप बता सकते हैं कि इस शहर का निर्माण कैसे हुआ और इसका महत्व क्या है?

सद्‌गुरु: यंत्र का मतलब है एक मशीन। मूल रूप से आज हम जो भी हैं - अपनी मौजूदा स्थिति को बेहतर बनाने के लिए ही हम कोई मशीन बनाते हैं या अब तक हमने इसी मकसद से मशीन बनाए बनाये हैं।

हमने जो भी बनाया है, वह किसी न किसी रूप में इस धरती से ही लेकर बनाया है। जब आप इस धरती से कोई सामग्री लेते हैं, तो एक खास तरह की जड़ता उस मशीन में आ जाती है। जब हम किसी ऐसी मशीन के बारे में सोचते हैं जिसे हमेशा या काफी लंबे समय के लिए काम करना है, तो हम एक ऐसी मशीन बनाना चाहते हैं, जिसमें जड़ता की गुंजाइश न हो। हम एक ऊर्जा मशीन का निर्माण करने की कोशिश करते हैं। इसे ही परंपरागत रूप से यंत्र कहा जाता है। सामान्य त्रिकोण सबसे मूल यंत्र है। अलग-अलग स्तर की मशीनों को बनाने के लिए अलग-अलग तरह की व्यवस्था करनी पड़ती है। ये मशीनें आपकी भलाई के लिए काम करती हैं।

वाराणसी भगवान शिव के त्रिशूल पर टिका शहर

वाराणसी - एक यंत्र है यह शहर

तो यह काशी एक असाधारण यंत्र है। ऐसा यंत्र इससे पहले या फिर इसके बाद कभी नहीं बना। इस यंत्र का निर्माण एक ऐसे विशाल और भव्य मानव शरीर को बनाने के लिए किया गया,  जिसमें भौतिकता को अपने साथ लेकर चलने की मजबूरी न हो, शरीर को साथ लेकर चलने से आने वाली जड़ता न हो  और जो हमेशा सक्रिय रह सके। और जो सारी आध्यात्मिक प्रक्रिया को अपने आप में समा ले।

काशी की रचना सौरमंडल की तरह की गई है, क्योंकि हमारा सौरमंडल कुम्हार के चाक की तरह है।

आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं।
इसमें एक खास तरीके से मंथन हो रहा है। यह घड़ा यानी मानव शरीर इसी मंथन से निकल कर आया है, इसलिए मानव शरीर सौरमंडल से जुड़ा हुआ है और ऐसा ही मंथन इस मानव शरीर में भी चल रहा है। सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी सूर्य के व्यास से 108 गुनी है। आपके अपने भीतर 114 चक्रों में से 112 आपके भौतिक शरीर में हैं, लेकिन जब कुछ करने की बात आती है, तो केवल 108 चक्रों का ही इस्तेमाल आप कर सकते हैं। अगर आप इन 108 चक्रों को विकसित कर लेंगे, तो बाकी के चार चक्र अपने आप ही विकसित हो जाएंगे। हम उन चक्रों पर काम नहीं करते। शरीर के 108 चक्रों को सक्रिय बनाने के लिए 108 तरह की योग प्रणालियां है।

पूरे काशी यनी बनारस शहर की रचना इसी तरह की गई थी। यह पांच तत्वों से बना है, और आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि शिव के योगी और भूतेश्वर होने से,  उनका विशेष अंक पांच है।

इसलिए इस स्थान की परिधि पांच कोश है। इसी तरह से उन्होंने सकेंद्रित कई सतहें बनाईं। यह आपको काशी की मूलभूत ज्यामिति बनावट दिखाता है। गंगा के किनारे यह शुरू होता है, और ये सकेंद्रित वृत परिक्रमा की व्याख्यां दिखा रहे हैं। सबसे बाहरी परिक्रमा की माप 168 मील है।

यह शहर इसी तरह बना है और विश्वनाथ मंदिर इसी का एक छोटा सा रूप है। असली मंदिर की बनावट ऐसी ही है। यह बेहद जटिल है। इसका मूल रूप तो अब रहा ही नहीं।

वाराणसी को मानव शरीर की तरह बनाया गया था

यहां 72 हजार शक्ति स्थलों यानी मंदिरों का निर्माण किया गया। एक इंसान के शरीर में नाडिय़ों की संख्या भी इतनी ही होती है। इसलिए उन लोगों ने मंदिर बनाये, और आस-पास काफी सारे कोने बनाये - जिससे कि वे सब जुड़कर 72,000 हो जाएं।

यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं - इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए।
तो यह नाडिय़ों की संख्या के बराबर है। यह पूरी प्रक्रिया एक विशाल मानव शरीर के निर्माण की तरह थी। इस विशाल मानव शरीर का निर्माण ब्रह्मांड से संपर्क करने के लिए किया गया था। इस शहर के निर्माण की पूरी प्रक्रिया ऐसी है, मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक वृहत ब्रह्मांडीय शरीर के संपर्क में आ रहा हो। काशी बनावट की दृष्टि से सूक्ष्म और व्यापक जगत के मिलन का एक शानदार प्रदर्शन है। कुल मिलाकर, एक शहर के रूप में एक यंत्र की रचना की गई है।

रोशनी का एक दुर्ग बनाने के लिए, और ब्रह्मांड की संरचना से संपर्क के लिए, यहां एक सूक्ष्म ब्रह्मांड की रचना की गई। ब्रह्मांड और इस काशी रुपी सूक्ष्म ब्रह्मांड इन दोनों चीजों को आपस में जोडऩे के लिए 468 मंदिरों की स्थापना की गई। मूल मंदिरों में 54 शिव के हैं, और 54 शक्ति या देवी के हैं। अगर मानव शरीर को भी हम देंखे, तो उसमें आधा हिस्सा पिंगला है और आधा हिस्सा इड़ा। दायां भाग पुरुष का है और बायां भाग नारी का। यही वजह है कि शिव को अर्धनारीश्वर के रूप में भी दर्शाया जाता है - आधा हिस्सा नारी का और आधा पुरुष का।

यहां 468 मंदिर बने, क्योंकि चंद्र कैलंडर के अनुसार साल में 13 महीने होते हैं, 13 महीने और 9 ग्रह, चार दिशाएं - इस तरह से तेरह, नौ और चार के गुणनफल के बराबर 468 मंदिर बनाए गए। आपके स्थूल शरीर का 72 फीसदी हिस्सा पानी है, 12 फीसदी पृथ्वी है, 6 फीसदी वायु है और 4 फीसदी अग्नि। बाकी का 6 फीसदी आकाश है। सभी योगिक प्रक्रियाओं का जन्म एक खास विज्ञान से हुआ है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं। इसका अर्थ है अपने भीतर मौजूद तत्वों को शुद्ध करना। अगर आप अपने मूल तत्वों पर कुछ अधिकार हासिल कर लें, तो अचानक से आपके साथ अद्भुत चीजें घटित होने लगेंगी। मैं आपको हजारों ऐसे लोग दिखा सकता हूं, जिन्होंने बस कुछ साधारण भूतशुद्धि प्रक्रियाएं करते हुए अपनी बीमारियों से मुक्ति पाई है। इसलिए इसके आधार पर इन मंदिरों का निर्माण किया गया। इस तरह भूत शुद्धि के आधार पर इस शहर की रचना हुई।

यहां एक के बाद एक 468 मंदिरों में सप्तऋषि पूजा हुआ करती थी और इससे इतनी जबर्दस्त ऊर्जा पैदा होती थी, कि हर कोई इस जगह आने की इच्छा रखता था। भारत में जन्मे हर व्यक्ति का एक ही सपना होता था - काशी जाने का। यह जगह सिर्फ आध्यात्मिकता का ही नहीं, बल्कि संगीत, कला और शिल्प के अलावा व्यापार और शिक्षा का केंद्र भी बना। इस देश के महानतम ज्ञानी काशी के हैं। शहर ने देश को कई प्रखर बुद्धि और ज्ञान के धनी लोग दिए हैं।

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, 'पश्चिमी और आधुनिक विज्ञान भारतीय गणित के आधार के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता था।’ यह गणित बनारस से ही आया। इस गणित का आधार यहां है। जिस तरीके से इस शहर रूपी यंत्र का निर्माण किया गया, वह बहुत सटीक था। ज्यामितीय बनावट और गणित की दृष्टि से यह अपने आप में इतना संपूर्ण है, कि हर व्यक्ति इस शहर में आना चाहता था। क्योंकि यह शहर अपने अन्दर अद्भुत ऊर्जा पैदा करता था।

वाराणसी का इतिहास

यह हमारी बदकिस्मती है कि हम उस समय नहीं थे जब काशी का गौरव काल था। हजारों सालों से दुनिया भर से लोग यहां आते रहे हैं। गौतम बुद्ध ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया था।

गौतम के बाद आने वाले चीनी यात्री ने कहा, ‘नालंदा विश्वविद्यालय काशी से निकलने वाली ज्ञान की एक छोटी सी बूंद है।’ और नालंदा विश्वविद्यालय को अब भी शिक्षा का सबसे महान स्थान माना जाता है।

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आज भी यह कहा जाता है कि ‘काशी जमीन पर नहीं है। वह शिव के त्रिशूल के ऊपर है।’ लोगों ने एक भौतिक संरचना बनाई, जिसने एक ऊर्जा संरचना को उत्पन्न किया।
न सिर्फ उन दिनों में, बल्कि आज के विश्वविद्यालयों में भी कोई विश्वविद्यालय नालंदा जैसा नहीं है। नालंदा में लगभग 30,000 भिक्षु अध्ययन करते थे और 10,000 से अधिक शिक्षक थे। वहां हर तरह के विषय पढ़ाए जाते थे। यहां गणित अपने चरम पर पहुंचा। आपने जिन लोगों के बारे में सुना है – आर्यभट्ट और बाकी बहुत से लोग इसी क्षेत्र के थे। ये सब इसी संस्कृति से पैदा हुए थे जो काशी में जीवित थी।

बुद्धि और क्षमता का यह स्तर काशी के कारण लोगों के जीवन में आया। काशी ने लोगों को उन आयामों से संपर्क करने में सक्षम बनाया, जो आम तौर पर एक इंसान को उपलब्ध नहीं होते। उन्होंने काशी को किसी तर्क संगत तरीके से नहीं बनाया। बल्कि उन्होंने अस्तित्व को उसी रूप में देखा, जैसा वह वास्तव में है, और फिर काशी की रचना की। सृजन की प्रकृति पर गौर करने के कारण, मानव बुद्धि ऐसे रूपों में विकसित हुई, जिसे कभी किसी ने संभव नहीं माना था।

आज भी यह कहा जाता है कि ‘काशी जमीन पर नहीं है। वह शिव के त्रिशूल के ऊपर है।’ लोगों ने एक भौतिक संरचना बनाई, जिसने एक ऊर्जा संरचना को उत्पन्न किया। ऊर्जा संरचना जमीन पर नहीं होती, वह ऊपर मौजूद होती है। इसलिए कहा गया, ‘काशी जमीन पर नहीं है, वह जमीन के ऊपर है।’

इसी वजह से यह पूरी परंपरा शुरू हुई। अगर आप काशी जाएं तो आप वहां से कहीं और नहीं जाना चाहते, क्योंकि जब आप ब्रह्मांडीय प्रकृति से संपर्क स्थापित कर लेते हैं, तो आप कहीं और क्यों जाना चाहेंगे?

भगवान शिव ने खुद ऊर्जा स्थापित की वाराणसी में

प्रसून:

सद्‌गुरु, काशी आते ही सबसे पहले इस बात पर ध्यान जाता है कि यहां बहुत से मंदिर हैं। यहां पर बहुत, बहुत सारे मंदिर हैं। बहुत सारे। इतने सारे मंदिर क्यों? क्या इसकी वजह यह है कि यह बहुत से देवताओं का स्थान है? मुख्य रूप से इसे भगवान शिव के स्थान के रूप में जाना जाता है। लेकिन दूसरे मंदिरों की क्या वजह है, यहां पर बहुत से दूसरे मंदिर भी हैं। उनके बारे में और अधिक जान कर अच्छा लगेगा।

सद्‌गुरु: मूर्ति विज्ञान के प्रमाणों के मुताबिक शिव के चित्र वाला सिक्का करीब 12,400 वर्ष पुराना है, जिसमें शिव सिद्धासन में बैठे हुए हैं और एक बैल उनके पास बैठा है।

लेकिन जब उनका विवाह एक राजकुमारी के साथ हो गया, तो फिर समझौते करने ही पड़े। और क्योंकि शिव एक शिष्ट व्यक्ति थे, उन्होंने समतल भूमि में जा कर रहने का निर्णय लिया। काशी उस समय का सबसे शानदार शहर था।
अगर बारह हजार चार सौ साल पहले लोगों ने सिक्के पर शिव का चित्र बनाया, तो इसका मतलब है कि वह उस समय तक देवता बन चुके थे। तो इसका मतलब है कि वह उससे भी कुछ हजार साल पहले रहे होंगे। काशी की गाथा का मूल सौ-फीसदी यही है कि शिव खुद यहां रहते थे। सर्दियों के समय काशी उनका निवास स्थान था। हिमालय के उपरी हिस्सों में वे एक तपस्वी की तरह रहते थे, उन्हें वो जगह पसंद थी। उन्हें ठंड से कोई परेशानी नहीं थी। जब ठंड बहुत होती थी, तो वह श्मशान की राख अपने शरीर पर पोत लेते थे, जिससे उन्हें गर्मी मिलती थी। अगर ठंड और बढ़ जाती थी, तो वह एक हाथी को मार कर उसकी खाल को कंबल की तरह इस्तेमाल करते थे, वह खाल को पकाने की जरूरत भी नहीं समझते थे, बस उसी तरह ओढ़ लेते थे।

लेकिन जब उनका विवाह एक राजकुमारी के साथ हो गया, तो फिर समझौते करने ही पड़े। और क्योंकि शिव एक शिष्ट व्यक्ति थे, उन्होंने समतल भूमि में जा कर रहने का निर्णय लिया। काशी उस समय का सबसे शानदार शहर था। इसलिए उन्होंने फैसला किया, कि वे अपनी नयी दुल्हन के साथ काशी के अलावा कहीं और रहने नहीं जाएंगे। और फिर वे काशी आ गए।

उन्होंने कहा, ‘यही वह जगह है, यही मेरा निवास है,’ और उन्होंने खुद उस स्थान को ऊर्जा के एक शक्तिशाली केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया, जो अब भी सक्रिय है।

वाराणसी को मृत्यु की नगरी क्यों कहते हैं?

प्रसून: मृत्यु क्या है? मृत्यु का मतलब शरीर का क्षय है या शरीर का मृत होना। एक ओर मेरा शरीर मर रहा है और दुनिया मेरे विचार, मेरे सिद्धांतों को अपना रही है, वे मेरे बिना भी जीवित हैं। तो क्या आप इसे मृत्यु कहेंगे? आपके मुताबिक मृत्यु की परिभाषा क्या है?

सद्‌गुरु: क्या आप कभी मृत्यु को प्राप्त हुए हैं? क्या आप कभी मर कर वापस आए हैं? नहीं। आपको कभी ऐसा अनुभव नहीं हुआ है।  कोई और ऐसा कह सकता है, उससे फर्क नहीं पड़ता। आपके अनुभव में ऐसा कभी नहीं हुआ। क्या आपने कभी किसी ऐसे इनसान को देखा है जो मर कर वापस आया हो?

प्रसून: मैंने किसी को नहीं देखा।

सद्‌गुरु: क्या आपने किसी मृत व्यक्ति को देखा है?

प्रसून:हां। मैंने मृत शरीर देखा है।

सद्‌गुरु: आपने मृत शरीर देखा है। क्या आपने मृत आदमी देखा है?

प्रसून: मुझे नहीं लगता।

सद्‌गुरु: आपने नहीं देखा। तो आपने किसी मृत आदमी को नहीं देखा, आप किसी मृत आदमी से नहीं मिले, न आपने खुद मौत का अनुभव किया है। तो आपको यह ख्याल कहां से आया कि आप मर जाएंगे?

प्रसून: यह रटा-रटाया विचार है।

सद्‌गुरु: यही बात है। मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं होती। यह अज्ञानियों की कल्पना है; जो अज्ञानियों ने उत्पन्न की है। सिर्फ जीवन, जीवन और जीवन होता है, जो एक आयाम से दूसरे आयाम तक जाता है। इसलिए जब लोग अज्ञानी होते हैं, और जीवन की उनकी दृष्टि और अनुभव बस अस्तित्व के भौतिक रूप तक सीमित होते हैं, तब वे जीवन और मृत्यु के बारे में सोचते हैं, वरना यहां सिर्फ जीवन होता है, सिर्फ जीवन।

प्रसून: बहुत बढ़िया, बहुत बढ़िया।

सद्‌गुरु: यह बात सभी जानते हैं कि हर इंसान जन्म लेता है - आप अचानक से एक शिशु के रूप में इस दुनिया में नहीं आ जाते। अपनी मां के गर्भ में धीरे-धीरे आपका विकास होता है। जीवन ने धीरे-धीरे आपके शरीर में प्रवेश किया और आपकी माता के शरीर से आपका शरीर बना। आप उसके एक हिस्से पर अधिकार कर लेते हैं और वह हिस्सा आपका रूप ले लेता है। ऐसा नहीं होता कि एक इंजेक्शन से आप अचानक पैदा हो जाते हैं। यह प्रक्रिया धीरे-धीरे होती है। मरने के बाद भी ऐसा ही होता है। आपने कभी किसी मृत शरीर के साथ समय बिताया है? मरने के बाद भी यदि इंसान के शव को रखा जाए, तो आप देखेंगे कि ग्यारह से चौदह दिनों तक शव के शरीर पर नाखून, चेहरे और शरीर के बाल बढ़ते रहते हैं। आप यह बात जानते हैं? इसका अर्थ यह है कि प्राण तुरंत शरीर से नहीं निकलता। व्यावहारिक रूप से आपकी मृत्यु हो जाती है, दुनिया के लिए आप मर जाते हैं, लेकिन अपने लिए आप पूरी तरह मृत नहीं होते हैं। प्राण के पूरी तरह निकलने में ग्यारह से चौदह दिन लग जाते हैं। इसी वजह से मरने के बाद सारे कर्मकांड और क्रियाएं की जाती हैं। जब आप शरीर का दाह-संस्कार कर देते हैं, तो प्राण तुरंत बाहर आ जाता है और सब कुछ खत्म हो जाता है।

साधना के लिए उत्तम है मनिकार्निका

आपको काशी के मणिकर्णिका घाट पर जाकर देखना चाहिए। वहां रोजाना सामान्य तौर पर चालीस से पचास शवों का दाह संस्कार होता है। अगर आप सिर्फ तीन दिन वहां बैठकर साधना कर लें, तो आपको उसका असर पता चल जाएगा।

शरीर का आधार ही समाप्त हो रहा है और साथ में अग्नि भी है, ये दोनों स्थितियां साथ में ऐसे लोगों के लिए बहुत अनुकूल माहौल बनाती हैं, जो ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं और अपनी ऊर्जा के स्तर को बढ़ाना चाहते हैं।
इसका कारण सिर्फ यह है कि वहां पूरे जोर से मृत शरीरों से जीवन-ऊर्जा बाहर निकाली जा रही है। यह एक तरह से मानव बलि की तरह है क्योंकि ऊर्जा को जबरन बाहर निकाला जा रहा है। इसलिए वहां जबरदस्त ऊर्जा होती है। अगर आपको पता हो कि उस ऊर्जा का इस्तेमाल कैसे करना है, तो आप बहुत कुछ कर सकते हैं। इसी वजह से हर तरह के योगी, खुद शिव भी, श्मशान में साधना करते हैं क्योंकि वहां आप किसी के जीवन को कोई नुकसान पहुंचाए बिना उस जीवन ऊर्जा का उपयोग कर सकते हैं। वहां पर अद्भुत ऊर्जा होती है, खासकर जब आग जल रही हो तो हमेशा वह अपने आस-पास एक खास प्रभामंडल उत्पन्न करती है या आकाश तत्व का एहसास कराती है।

इंसान के बोध के लिए आकाश बहुत महत्वपूर्ण है। जहां आकाश तत्व की तगड़ी मौजूदगी होती है, सिर्फ वहां हमारे ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है।

इसलिए यहां दोनों चीजें हैं। पहली चीज यह कि शरीर से बहुत सारी ऊर्जा बाहर निकल रही है। शरीर के नष्ट होने के कारण प्राण का बाकी हिस्सा बाहर निकल रहा है। शरीर का आधार ही समाप्त हो रहा है और साथ में अग्नि भी है, ये दोनों स्थितियां साथ में ऐसे लोगों के लिए बहुत अनुकूल माहौल बनाती हैं, जो ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं और अपनी ऊर्जा के स्तर को बढ़ाना चाहते हैं। इसलिए श्मशान घाट हमेशा से ऐसे ही रहे हैं।

शिव ने ब्रह्मा को श्राप दिया

एक बार सृष्टि के देवता ब्रह्मा और ब्रह्मांड के पालनकर्ता विष्णु में इस बात पर बहस हो गई कि उनमें से कौन अधिक महत्वपूर्ण है। उनके बीच विवाद को बढ़ते देखकर दूसरे देवता शिव के पास पहुंचे और उनसे इस व्यर्थ झगड़े को खत्म करने का अनुरोध किया।

ब्रह्मा के झूठ से क्रोधित शिव ने उन्हें शाप दिया, कि उनकी कभी पूजा नहीं होगी। इसीलिए आज भी ब्रह्मा का कोई मंदिर नहीं है। और इस तरह काशी रोशनी का शहर बन गया।
शिव ने एक विशाल प्रकाश स्तंभ का रूप धारण कर लिया। धरती को चीरते हुए उस भव्य स्तंभ की ज्वाला सुदूर आकाश में होते हुए स्वर्ग तक पहुंची। ब्रह्मा और विष्णु इस स्तम्भ को देखकर हैरान हो गए। उन्होंने इस अद्भुत, रहस्यमय प्रकाश स्तंभ के स्रोत और ऊंचाई का पता लगाने का फैसला किया। ब्रह्मा अपने हंस पर हवार हुए और आकाश में ऊंचे उड़ने लगे। विष्णु एक शूकर का रूप धारण करके पृथ्वी के अंदर खुदाई करने लगे।

वे कई युगों तक इस स्तंभ के सिरे की खोज करते रहे। अंत में परास्त होकर विष्णु वापस लौटे और हाथ जोड़कर शिव की अविनाशी प्रकृति के आगे समर्पण कर दिया।

लेकिन ब्रह्मा अपनी हार स्वीकार नहीं करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने झूठ बोलने का फैसला किया। उन्होंने कहा कि उन्होंने स्तंभ का ऊपरी सिरा देखा, और केतकी फूल ने उनके इस दावे की झूठी गवाही दी।

ब्रह्मा के झूठ से क्रोधित शिव ने उन्हें शाप दिया, कि उनकी कभी पूजा नहीं होगी। इसीलिए आज भी ब्रह्मा का कोई मंदिर नहीं है। और इस तरह काशी रोशनी का शहर बन गया।

भगवान शिव को काशी छोड़ना पड़ा

शिव के वाराणसी छोड़ने के पीछे एक सुन्दर कथा है। शिव को कुछ राजनीतिक कारणों की वजह से काशी छोड़ना पड़ा। हां, यह सच है। देवोदास नाम का एक राजा था। वह एक बहुत ही प्रभावशाली राजा था।

उसके बाद शिव ने ब्रह्मा को भेजा। ब्रह्मा खुद आये और उन्हें भी वह जगह पसंद आ गयी, और वे वापस नहीं गए। तब शिव ने कहा – ‘मैं इनमें से किसी पर विश्वास नहीं कर सकता’ और फिर शिव ने अपने गणों को भेजा।
देवताओं को डर था कि अगर वाराणसी का ठीक से ध्यान नहीं रखा गया, तो उसकी ऊर्जा नष्ट हो जाएगी। इसलिए उन्होंने देवोदास से काशी का राजा बनने को कहा। लेकिन देवोदास ने एक शर्त रख दी – ‘मैं राजा तभी बनूँगा, जब शिव काशी छोड़ कर चले जाएं। अगर शिव यहीं रहते हैं, तो मेरे राजा बनने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि लोग शिव के ही पास जाएंगे। और मैं यहां महल में बैठा रहूंगा – यह किस तरह का राजा हुआ? शिव को तो काशी से जाना ही होगा।’ इस पर शिव पार्वती के साथ मंदार पर्वत पर रहने चले गए। वे वहां गए, लेकिन वहां रह नहीं पाए, वे काशी वापस आना चाहते थे,  लेकिन यह राजनीतिक शर्त थी कि वे काशी वापस नहीं आ सकते थे। इसलिए उन्होंने कहा, ‘इस दिवोदास को बाहर निकालो, मैं वहां वापस जाना चाहता हूं।’ इसलिए उन्होंने 64 योगिनियों को वहां भेजा और कहा, ‘किसी तरह उस राजा को पथभ्रष्ट करो।’ एक बार हमें उसमें कोई खोट मिल गयी तो फिर हम उसे अपना बोरिया बिस्तर समेट कर वहां से जाने के लिए कह सकते हैं। और फिर मैं वापस आ जाऊंगा।’  योगिनियां आईं और काशी के समाज में पूरी तरह से फैल गईं। वे समाज को भ्रष्ट करना चाहती थीं, लेकिन उन्हें वह जगह इतनी भा गई, कि वे अपना मकसद ही भूल गयीं और वहां से वापस नहीं गईं। उसके बाद शिव ने सूर्य देव को भेजा। सूर्य को भी वह जगह ऐसी पसंद आई कि वह भी वापस नहीं गए। काशी के सभी सूर्य या आदित्य मंदिर उन्हीं के लिए बने हैं।

उसके बाद शिव ने ब्रह्मा को भेजा। ब्रह्मा खुद आये और उन्हें भी वह जगह पसंद आ गयी, और वे वापस नहीं गए। तब शिव ने कहा – ‘मैं इनमें से किसी पर विश्वास नहीं कर सकता’ और फिर शिव ने अपने गणों को भेजा। वे शिव को कभी भूल नहीं सकते, क्योंकि वे शिव के अत्यंत प्रिय हैं। लेकिन उनको यह जगह इतनी पसंद आई कि उन्होंने बोला शिव को सिर्फ इसी जगह रहना चाहिए। उन्हें मंदार पर्वत पर नहीं रहना चाहिए। और फिर वे वाराणसी के द्वार-पाल बन गए। उन्होंने कहा – ‘वैसे भी शिव को तो यहां आना ही है, अब हम वापस जा कर क्या करेंगे।’

उसके बाद दिवोदास को मुक्ति का लालच दिया गया। उन्होंने कई तरह के लालच देकर देवोदास को भ्रष्ट करना चाहा, लेकिन वे उसे भ्रष्ट नहीं कर पाए। दिवोदास भ्रष्ट हो जाने वालों में से नहीं था। लेकिन मुक्ति का लालच दिए जाने पर वह मान गया। उसके बाद शिव वाराणसी वापस आ गए।

इसलिए, वाराणसी में अविमुक्तेश्वर नामक का एक मंदिर है। क्योंकि शिव ने वचन दिया था, ‘चाहे कुछ भी हो जाए, मैं वाराणसी छोड़कर नहीं जाऊंगा।’ तो यह सारी कहानियां आपको यह बताने के लिए हैं, कि वे लोग यहां रहने की कितनी इच्छा रखते थे। ऐसा यहां की सुख-सुविधाओं की वजह से नहीं था, बल्कि ऐसा इस शहर में मौजूद सम्भावनाओं की वजह से था। क्योंकि यह शहर केवल रहने की जगह नहीं थी, यह सभी सीमाओं से परे जाने का एक तरीका था। यह इस छोटे से जीव को ब्रह्मांड से जोड़ने का एक साधन था।

ज्यादातर लोग एक भव्य जीवन जीने के तरीके नहीं अपनाते, बस उनकी एक भव्य जीवन जीने की आकांक्षा होती है। अगर भव्य तरीके से जी नहीं पाए तो कम से कम वे भव्य तरीके से मरना चाहते हैं। एक भव्य मृत्यु का मतलब है, ऐसी मौत जिसमें आप केवल शरीर ही नहीं छोड़ते, बल्कि जो आपको परम मुक्ति तक ले जाती है। यही छोटी सी आकांक्षा लाखों लोगो को काशी ले आई – यहां पर मरने के लिए। यह करीब-करीब एक मौत के शहर की तरह बन गया, लोग यहां मरना चाहते थे।