इस सृष्टि में हूँ
एक सूक्ष्म सा कण
पर धारण करता हूँ
खुद में संपूर्ण सृष्टि को
मैं कवि हूँ, और यह ब्रह्मांड
है मेरी ही कविता,
मैं चमकता हूँ, पर नहीं हूँ मैं प्रकाश
मैं तो हूँ अन्धकार से भी परे।
मैं मार्ग नहीं, मंज़िल हूँ
मैं अमावस्या की रात में भी
पूर्णिमा के चमकते पूर्ण चन्द्र सा हूँ।
मैं न जीवन हूँ, न मृत्यु
हूँ उन दोनों का ऐसा मेल,
जिसमें रमता है परम-तत्व ।
कोशिश मत कीजिए, समझने की मुझे
न चलिए मेरे पीछे,
न ही कीजिए मेरा आदर
मुझसे न प्रेम, न नफरत,
बस ठहर जाइए।
प्रेम और आशीर्वाद।।
सद्गुरु