प्रश्न: सद्‌गुरु मुझे लगता है कि आपको ऐसे लीडरशीप को तैयार करने के बारे में भी बात करनी चाहिए जो पर्यावरण संरक्षण के सरोकार पैदा करने के लिए जरूरी हो।

सद्‌गुरु: पर्यावरण की चिंता हर किसी की चिंता नहीं बन पाई है, इसके पीछे वजह सिर्फ यह है कि आंदोलनकारियों का रवैया हर उस चीज के ख़िलाफ़ होता है, जो आर्थिक कल्याण के लिए है। हमने हमेशा अर्थयवस्था बनाम पर्यावरण की बात उठाई है। यह एक बुनियादी चीज है जो मैं भारत में बदलना चाहता हूं। मैंने कहा था कि, ‘मैं इकॉनमी और इकॉलजी यानी अर्थव्यवस्था और पर्यावरण के बीच विवाह करवा रहा हूं।’ ये दोनों चीजें एक-दूसरे के खिलाफ नहीं जा सकतीं। ऐसा करने का कोई तरीका नहीं है। आपको साथ-साथ जाना होगा। मेरे ख्याल से यह बुनियादी संदेश है जो लोगों तक पहुंचना चाहिए, कि हमें कारोबार को नष्ट करने की ज़रूरत नहीं है – हमें बस कारोबार के तौर-तरीक़ों और नज़रिए को बदलने की जरूरत है। और इसके लिए जरूरी समय, गुंजाइश और नीतिगत समर्थन की जरूरत है।

मिट्टी की गुणवत्ता खराब होना असली समस्या है। बाकी हर चीज को कुछ दशकों में ठीक किया जा सकता है, लेकिन दुनिया भर में मिट्टी की खराब हालत को आप पलट नहीं सकते, उसे ठीक करने में पचास से सौ साल लगेंगे।

 

कृषि में बदलाव

हमें ज्यादातर चिंता शहरों और उद्योगों आदि से आने वाले प्रदूषण की होती है। मगर लोग इस बात से चूक जाते हैं कि धरती पर सबसे बड़ा खतरा वास्तव में कृषि है। मिट्टी की गुणवत्ता खराब होना असली समस्या है। बाकी हर चीज को कुछ दशकों में ठीक किया जा सकता है, लेकिन दुनिया भर में मिट्टी की खराब हालत को आप पलट नहीं सकते, उसे ठीक करने में पचास से सौ साल लगेंगे। मिट्टी को सुधारने के सिर्फ दो तरीके हैं। पहला है, पेड़ों की पत्तियां और पशु व मानव के मल। पेड़ बहुत पहले ही नष्ट हो चुके हैं। अगली चीज है, पशुओं का गोबर। पशुओं के गोबर के बिना आप मिट्टी को उपजाऊ नहीं बना सकते। आप थैली भर-भर कर खाद खेतों में डालकर मिट्टी को उपजाऊ नहीं बना सकते।

 

पर्यावरण के लिए आध्यात्मिकता

प्रश्न: हमारे आस-पास के पर्यावरण के साथ हमारे संबंधो में, क्या आप एक खास आध्यात्मिक प्रक्रिया देखते हैं, जो पर्यावरण को बचाए?

सद्‌गुरु: मुख्य रूप से, आध्यात्मिक का मतलब है कि आपका जीवन अनुभव आपके भौतिक अस्तित्व से परे चला गया है। तो अगर आप इस शरीर से परे खुद का अनुभव करते हैं, तो आपका अनुभव क्या होगा? कुदरती रूप से, यह आपके आस-पास के जीवन ख़ुद में शामिल करके देखेगा।

जो मैं बाहर छोड़ता हूं, पेड़ उसे अपने अंदर ले रहे हैं, पेड़ जो सांस छोड़ते हैं, मैं अपने जीवन के हर पल में उसे अपने अंदर ले रहा हूं। मगर हम इसके बारे में बिना किसी जागरूकता के जीवन जी रहे हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया का मक़सद इकॉलजी नहीं है, लेकिन यह हमारे अस्तित्व का एक हिस्सा है। इकॉलजी कोई पढ़ने-पढ़ाने का विषय भर नहीं है, वह हमारे अस्तित्व का आधार है। बड़े पैमाने पर लोगों में इस अनुभव को लाना बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि चाहे आप कितना भी सिखा लें, कितना भी प्रचार कर लें लेकिन लोग अपने जीवन अनुभव के अनुसार अपने जीवन को आकार देते हैं। खासकर वे लोग जो जिम्मेदारी के पदों पर और सत्ता में होते हैं, जो दुनिया में अंतर ला सकते हैं, उनका जीवन अनुभव ऐसा होना चाहिए कि वो सबको अपने में शामिल कर सकें यानी अभी की तुलना में अधिक समावेशी होना चाहिए।

अगर जनता अपनी इच्छा साफ़ तौर पर नहीं दिखाएगी, तो लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार कुछ नहीं करेगी, वे तो बस लोकप्रिय चीजें ही करेंगे। अगर हम यह नहीं बताएंगे कि हम एक बड़े फायदे और बेहतरी के लिए कुछ सहूलियतें छोड़ने के लिए तैयार हैं, तो कोई सरकार सही तरह की नीति नहीं बनाएगी।

मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। सत्ताइस सालों तक मैं अपने होम टाउन वापस नहीं गया। मतलब, मैं अपने परिवार से मिलने जाता था मगर वहां मैंने कोई कार्यक्रम नहीं किया क्योंकि मैं अपने शहर में थोड़ा गुमनाम रहना चाहता था, जो कि हो नहीं पाया...। करीब दस बारह साल पहले उन्होंने जोर दिया कि मुझे एक कार्यक्रम करना चाहिए इसलिए मैंने एक कार्यक्रम वहाँ किया। हर कोई वहां आया। मेरे स्कूली साथी, स्कूल के शिक्षक, कॉलेज शिक्षक, हर तरह के लोग, उनके बच्चे, जिन्हें मैं लंबे समय से जानता था। कार्यक्रम के अंत में मेरी अंग्रेजी टीचर आकर मुझसे मिलीं और मुझे गले लगा लिया, वह बोलीं, ‘अब मुझे समझ आया कि तुमने मुझे ‘रॉबर्ट फ्रॉस्ट’ क्यों नहीं पढ़ाने दिया।’ मैंने कहा, ‘मैम, मैं आपको रॉबर्ट फ्रॉस्ट क्यों नहीं पढ़ाने देता? मुझे फ्रॉस्ट पसंद हैं, मैं उनके देश भी गया और मेरे पास उनकी अपनी आवाज़ में उनकी कविताओं का पाठ भी है।’ मैंने कहा, ‘मैं क्यों नहीं आपको पढ़ाने देता?’ वह बोलीं, ‘तुम्हें याद नहीं है?’ और उन्होंने मुझे याद दिलाया। हुआ यह था कि हम हमेशा इंग्लिश कवियों को ही पढ़ते रहे थे, और वह हमें अमेरिकी कविता से परिचित कराना चाहती थीं। उन्होंने यह कहते हुए रॉबर्ट फ्रॉस्ट का परिचय दिया कि वह एक महान कवि हैं। उन्होंने पहली कविता पढ़नी शुरू की, ‘वुड्स आर लवली, डार्क एंड डीप...’ मैंने कहा, ‘रुकिए।’ मैं ऐसे व्यक्ति की कविता नहीं सुनना चाहता था जो पेड़ को लकड़ी (वुड) कहता हो। वह बोलीं, ‘नहीं, नहीं, रॉबर्ट फ्रॉस्ट एक महान...’ मैंने कहा, ‘मुझे परवाह नहीं कि वह कितने महान हैं! जो आदमी पेड़ को लकड़ी कहता हो, मैं उसकी कविता नहीं सुनना चाहता।’

Subscribe

Get weekly updates on the latest blogs via newsletters right in your mailbox.

यह ऐसा ही है जैसे एक बाघ आपकी ओर देखकर सोचे ‘ओह यह तो नाश्ता है!’ अपने मन में हमें इसे बदलना होगा। पेड़ कोई मेज नहीं है, पेड़ कोई कुर्सी नहीं है, पेड़ फर्नीचर नहीं है, पेड़ एक असाधारण जीवन है और हमारे जीवन का आधार है। इसे हर किसी के लिए एक जीवंत अनुभव बनना होगा – तभी उन्हें बचाया जा सकेगा।

 

व्यक्तिगत प्रभाव

प्रश्न: उपभोग के प्रति क्या लोगों को अपने नजरिये को बदलने की जरूरत है? या बड़े समाधानों की ज़रूरत है?

सद्‌गुरु: आजकल व्यक्तिगत तौर पर लोग शक्तिशाली हैं। जिसकी एक वजह है सोशल मीडिया। बहुत से काम वे घर बैठे कर सकते हैं। उन्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं है, वे कई तरह से दुनिया को प्रभावित कर सकते हैं। इसके अलावा, दुनिया में अधिकांश देशों में लोकतंत्र है। अगर जनता अपनी इच्छा साफ़ तौर पर नहीं दिखाएगी, तो लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार कुछ नहीं करेगी, वे तो बस लोकप्रिय चीजें ही करेंगे। अगर हम यह नहीं बताएंगे कि हम एक बड़े फायदे और बेहतरी के लिए कुछ सहूलियतें छोड़ने के लिए तैयार हैं, तो कोई सरकार सही तरह की नीति नहीं बनाएगी।

 

सरकारी प्रभाव

सरकारें अपनी रफ्तार से चलती हैं। आप एक बहुत बड़े मालवाहक जहाज से अचानक यूटर्न लेने की उम्मीद नहीं कर सकते। मैं इस मामले में साफ कहता हूं, मैं सिर्फ एक डिग्री टर्न चाहता हूं। अगर आप एक डिग्री टर्न लेकर भी उसे बनाए रख सकें, तो यूटर्न हो ही जाएगा।

प्रश्न: आपने आज सुबह यह जिक्र किया था कि आप भारत सरकार के कुछ हिस्सों को साथ ला पाए हैं, जो पहले कभी नहीं मिले थे।

सद्‌गुरु: अलग-अलग मंत्रालय – जैसे जल-प्रबंधन मंत्रालय, सिंचाई मंत्रालय, ग्रामीण विकास मंत्रालय, कृषि मंत्रालय –ये आपस में कभी नहीं मिलते थे। तो हमने पहली बार उनकी साथ में बैठक कराई और देखा कि वे साथ मिलकर क्या कर सकते हैं। इससे एक बड़ा अंतर आया। और अब योजना आयोग – जिसे अब नीति आयोग कहा जाता है– ने सभी उनतीस राज्यों को एक अधिसूचना जारी की, कि नदी अभियान एक सरकारी नीति है, जिसे आपको लागू करना है। कई राज्यों ने काम शुरू भी कर दिया है। कुछ में हमारी सीधी भागीदारी है,बाकियों में कन्सल्टिंग का काम कर रहे हैं।

 

समाधान के लिए साथ काम करना

मैं बहुत से आंदोलनकारियों से बात करने की कोशिश कर रहा हूं और उन्हें बताने की कोशिश कर रहा हूं कि वे जिन समस्याओं के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं, क्या उनका हल उनके पास है? क्या समस्या का समाधान आपके पास है? अगर आप समाधान खोज सकते हैं, तो सिर्फ किसी समस्या के लिए आंदोलन करने की बजाय समाधान सुझाइए। उदाहरण के लिए सभी सॉफ्ट ड्रिंक निर्माता शीशे की बोतलों से प्लास्टिक पर इसलिए आ गए क्योंकि यह उनके लिए अधिक सुविधाजनक था। आप इस बोतल को आसानी से रिसाइकिल इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि उस पर एक पेपर लेबल है। इसलिए हमने थोड़ा शोध करना शुरू किया – इसका हल क्या है, हम इस पर प्रिंट कैसे कर सकते हैं। शिकागो में एक कंपनी है जो एक खास तरह की डाई बनाती है जो प्लास्टिक पर पेपर लेबल की तरह होगी। अगर आप यह एक चीज करें, तो इन सभी प्लास्टिक बोतलों को रिसाइकिल किया जा सकता है।

एक कारोबार जो इसका इस्तेमाल कर रहा है और जानता है कि यह प्रदूषण की एक बड़ी वजह है, वे सुझाव दे सकते हैं ‘देखिए, यह बदलाब हो सकता है, अगर आप हमें कुछ फ़ायदा दें, तो हम यह बदलाव कर सकते हैं।’ तो उस कारोबार को सरकार के साथ मिलकर काम करना होगा।

मैं नीति पर जोर इसलिए दे रहा हूं क्योंकि जब नीतिगत बदलाव होंगे, तब बजट आवंटन होंगे, तभी उस दिशा में एक स्थायी गति आएगी। खासकर जब दुनिया के बड़े देश, जैसे अमेरिका, यूरोप, चीन, भारत, आदि अगले कुछ सालों में, अगले तीन से पांच सालों में, सही नीतियां बनाएंगे, तो मेरे ख्याल से बाकी दुनिया भी उनकी नक़ल करेंगे।

 

स्थिरता का कारोबार

मुनाफे और सफल कारोबार के हमारे विचार को बदले जाने की जरूरत है। यह एक दिन का काम नहीं है। यह समय के साथ किया जा सकता है। निश्चित रूप से ऐसा हो रहा है। आज, ढेर सारे कारोबार इस पर ध्यान दे रहे हैं कि वे पर्यावरण की बेहतरी को कैसे प्रभावित कर सकते हैं। पच्चीस साल पहले तक ऐसा नहीं था। लेकिन अब वे इस दिशा में कोशिश कर रहे हैं। एक बार लोग एक इस दिशा में अपना पैसा लगा दें, तो आप विश्वास कर सकते हैं कि उनका ऐसा करने का इरादा है। देखिए, अगले पच्चीस साल शायद सुधारों के मामले में मानवता के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण होंगे। अगर हम मिट्टी, नदियों, जंगलों, कृषि, इंसान की सेहत का ध्यान रखें – तो सब कुछ अपने आप सही हो जाएगा। अगर हम अगले दस से पंद्रह साल में इसे पलट सकें, अगर अगले दस से पंद्रह साल में हम सभी सही चीजें करें, तो मेरा मानना है कि तीस से चालीस साल में, बड़े पैमाने पर सकारात्मक बदलाव होंगे।

लेकिन अगर हम अगले पच्चीस से तीस साल इसे ऐसे ही छोड़ देते हैं और फिर इसे पलटने की कोशिश करते हैं, तो मेरे अनुमान से इसमें सौ से डेढ़ सौ साल लग जाएंगे। क्योंकि हम एक खास सीमा को पार कर रहे हैं। उस सीमा को पार करने के बाद, उसे पलटना अधिक मुश्किल होगा। तो एक पीढ़ी के रूप में, हमारी यह जिम्मेदारी है कि अगले दस से पंद्रह सालों में, कम से कम नीतिगत स्तर पर, सभी सही चीजें हों।

मैं नीति पर जोर इसलिए दे रहा हूं क्योंकि जब नीतिगत बदलाव होंगे, तब बजट आवंटन होंगे, तभी उस दिशा में एक स्थायी गति आएगी। खासकर जब दुनिया के बड़े देश, जैसे अमेरिका, यूरोप, चीन, भारत, आदि अगले कुछ सालों में, अगले तीन से पांच सालों में, सही नीतियां बनाएंगे, तो मेरे ख्याल से बाकी दुनिया भी उनकी नक़ल करेंगे।

 

एक इमारत वाले शहर

एशिया के लिए एक बड़ा लाभ यह है कि यहां धूप की कोई कमी नहीं है। तो सौर ऊर्जा पैदा करना एक बड़ी चीज है। तकनीक को और विकसित करना होगा, लेकिन कई और समाधान सामने आ रहे हैं। मेरे ख्याल से बीसवीं सदी की शुरुआत से हमने जो पूरा सिस्टम बनाया, इन बिजली वितरण ग्रिडों को खत्म कर देना चाहिए। बिजली वहीं पैदा की जानी चाहिए, जहां उसका इस्तेमाल करना है।

कुछ दिनों पहले एक शाम को मैं नौ बजे कुआलालंपुर में गाड़ी चला रहा था और हर सड़क पर जाम ही जाम था। हर शहर में यह हो रहा है कि जो लोग ‘वहां’ रहते हैं, ‘यहां’ काम करते हैं, जो लोग ‘यहां’ रहते हैं, ‘वहां’ काम करते हैं। मुझे समझ नहीं आता कि क्यों? हम ये मामूली बदलाव तो कर सकते हैं। तो मैंने डिज़ाइन तैयार किया जिसे ‘एक इमारत का शहर’ कह सकते हैं। हम उन्हें ‘शहर’ कहने पर जोर देते हैं। इस डिज़ाइन में पचास एकड़ जमीन लेनी होगी जिसमें आप सिर्फ एक एकड़ पर इमारत बनाइए - पचास मंजिल बनाइए और बाकी उनचास एकड़ को छोड़ दीजिए। उस पर जंगल बनाइए, पानी के स्रोत बनाइए। इस पचास एकड़ का कोई भी कूड़ा या मल इस पचास एकड़ से बाहर न जाए। इसे आसानी से किया जा सकता है।

लोग अधिक बेहतर जीवन जिएंगे। सब कुछ वहीं होगा। वे वहां रह सकते हैं, काम कर सकते हैं, बच्चे वहीं स्कूल जाएंगे, वहीं आप खरीदारी कर सकते हैं। सप्ताह में एक बार अगर आप कहीं बाहर जाना चाहते हैं, तो जा सकते हैं। मगर रोज-रोज गाड़ी बाहर निकालने की जरूरत नहीं होगी।

दरअसल हम एक सजीव प्राणी नहीं, एक मनोवैज्ञानिक प्राणी बन गए हैं। हमें सबको एक सजीव प्राणी में बदलना होगा।

 

जल और पेड़-पौधे

नदी अभियान शुरू करने से पहले, हमारे प्रोजेक्ट ग्रीनहैंड्स में तीन करोड़ तीस लाख से अधिक पौधे लगाए जा चुके थे, जिसने एक राज्य में ‘ग्रीन कवर’का रूप बदल दिया है। मगर अब नदी अभियान के साथ, हमने छह अलग-अलग राज्यों के साथ समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, अगले आठ सालों में करीब सात अरब पेड़ लगाए जाने हैं। यह सरकारी पैसे से होगा और अधिकांश काम सरकारों द्वारा किया जाना है।

कई राज्यों ने पहले ही घोषणा कर दी है कि वे नदी के तटों पर पौधारोपण कर रहे हैं। मगर अभी बासठ से चौंसठ प्रतिशत जमीन किसानों की है। आप उनसे पर्यावरण के भविष्य की बात नहीं कर सकते क्योंकि वे रोजी-रोटी की समस्या से जूझ रहे हैं। इसलिए हमने ‘एग्रो-फ़ॉरेस्ट्री’ शुरू की जिससे हमने दिखाया है कि अगर आप खेती से पेड़ों की तरफ़ जाएँ तो आसानी से पांच सालों में अपनी आमदनी तीन से पांच गुना बढ़ा सकते हैं।

बुनीयदी तौर पर सबसे महत्वपूर्ण चीज यह है कि इंसान, जीवन के साथ और जीवन का पोषण करने वाली और हमारे आस-पास के जीवन को बनाए रखने वाली हर चीज के साथ अपना संपर्क खो बैठा है। यही संकट पर्यावरण के विनाश के रूप में सामने आ रहा है। दरअसल हम एक सजीव प्राणी नहीं, एक मनोवैज्ञानिक प्राणी बन गए हैं। हमें सबको एक सजीव प्राणी में बदलना होगा।

 

Love & Grace