सद्‌गुरुसद्‌गुरु से प्रश्न पूछा गया कि क्या शहरों के बीच एक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को तैयार करने के लिए किसी यंत्र की मदद ली जा सकती है? सद्‌गुरु जटिलता को सुलझाने के बारे में बता रहे हैं

प्रश्न : सद्‌गुरु, मैं पीएचडी कर रहा हूं, जिसका विषय है ‘सस्टेनेबल सप्लाई चेन मैनेजमेंट एंड डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम’। इसके लिए मैंने कई तरह की रणनीतियों पर काम किया और अंत में मैं एक रणनीति को फाइनल करने में कामयाब रहा। लेकिन मैं उस समय हैरान रह गया, जब मैंने देखा कि जो रणनीति मैंने तय की थी, उसका आकार काफी हद तक कुबेर यंत्र सरीखा है। अगर मैं डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को एक यंत्र की तरह बनाता हूं तो क्या यह ‘बेस्ट डिजाइन’ होगी?

सद्‌गुरु : कुछ समय पहले मैं दुबई में था और उसके बाद मैं बेंगलुरू आया। दुबई का तापमान बेंगलुरू से पांच छह डिग्री कम था। मैंने पता किया कि दुबई को क्या हुआ है? आखिर यह गर्म क्यों नही है? पता चला कि पिछले कुछ सालों से वे लगातार बादलों को जमाने की क्रिया यानी ‘क्लाउड सीडिंग’ कर रहे हैं। चुंकि दुबई पर बादलों का एक कवर तैयार हो गया इसलिए समुद्र से आती ठंडी बयार ने दुबई को ठंडा व सुहाना बना दिया। हालांकि मुझे ठीक-ठीक साल तो याद नहीं आ रहा, लेकिन कनार्टक सरकार ने भी कुछ साल पहले क्लाउड सीडिंग की थी। लेकिन बाद में उन्होंने इसे छोड़ दिया, क्योंकि इससे आंध्र प्रदेश में बारिश हुई थी। आखिर इन बादलों का क्या किया जाए, जो राज्य की सीमाओं में बंध कर नहीं रहते!

ऐसे बहुत से लोग हैं जो सही चीजें करने के बजाय उन चीजों को कुछ फैंसी ढंग से करने लगते हैं। सही चीज करने से मतलब है कि जो चीज कारगर साबित हो। अब हो सकता है कि यह फैंसी तरीका उन्हें अपनी कल्पना से मिला हो या फिर सांस्कृतिक या धार्मिक पृष्ठभूमि या किसी और वजह से हो। भारत के कुछ हिस्सों में माना जाता है कि अगर आप दो गधों की शादी करा देंगे तो इससे बारिश के देवता प्रसन्न हो जाएंगे और बारिश होगी। लेकिन मैं तो देख रहा हूं कि बहुत से गधों की शादी हो रही है, लेकिन फिर भी कुछ नहीं हो रहा!

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सीधी रेखा में चलना ही बेहतर है

अगर आप एक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम तैयार करना चाहते हैं, तो निश्चित रूप से ट्रांसपोर्टेशन वही सबसे अच्छा है जो एक सीधी रेखा में चले।

अगर किसी दिन मुझे कोई एक नया नगर बनाने के लिए पैसे देगा, तो मैं उस नगर को एक शक्तिशाली यंत्र के रूप में बनाउंगा। ऐसा किया जा सकता है।
 हां अगर हिमालय बीच में पड़ता है तो अलग बात है, वर्ना दो बिंदुओं के बीच की सबसे कम दूरी हमेशा एक सीधी रेखा होती है। इसलिए जहां तक संभव हो सके, यातायात को हमेशा एक सीधी रेखा में रखना चाहिए, इससे समय और लागत की बचत होती है। तो आपने एक त्रिभुज तैयार किया। इसे ऐसे समझते हैं कि आपको कोयंबटूर से बेंगलुरु जाना है, तो पहले आप चेन्नई गए और फिर बेंगलुरू। इससे एक आदर्श त्रिकोण तैयार हुआ। लेकिन इसे आप डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम नहीं कह सकते।

अगर किसी दिन मुझे कोई एक नया नगर बनाने के लिए पैसे देगा, तो मैं उस नगर को एक शक्तिशाली यंत्र के रूप में बनाउंगा। ऐसा किया जा सकता है। लेकिन अभी आप मौजूदा हालात में एक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम तैयार करना चाहते हैं। आप एक यंत्र बनाने में न लगें। इस पैटर्न में यंत्र न बनाएं।

आमतौर पर पीएचडी को रिसर्च माना जाता है। मैं शिक्षा का मजाक नहीं उड़ा रहा। ऐसे बहुत से पीएचडी पेपर हैं, जिन्होंने बेहतरीन सूझबूझ व विचार सामने रखे हैं। लेकिन वे ज्यादातर सिर्फ रि-सर्च हैं। रि-सर्च का मतलब है कि जो पहले से ही मौजूद तो है, लेकिन लाइब्रेरी की धूल में खो गया है, आप सिर्फ उस धूल को झाड़ते हैं। डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम पर आप जो भी रिसर्च कर रहे हैं, उसे देखने के कई और तरीके भी हैं। आप इसे यंत्र कह सकते हैं, क्योंकि यंत्र हमेशा केंद्र बिंदु से शुरू होकर उसका एक ज्याामितीय विस्तार होता है। हो सकता है कि यह तरीका काम करे, लेकिन यह इस पर भी निर्भर करता है कि मौजूदा सेंटर कहां हैं, जहां चीजों को किए जाने की जरूरत है। आपने भारत के लिए एक खाका तैयार किया, लेकिन उसमें आप चेन्नई में चीजों की डिलीवरी करने की बजाय अगर बंगाल की खाड़ी या अंडमान में डिलीवरी करते हैं तो इसका क्या मतलब है? अगर आप एक शोधकर्ता हैं या आप कोई आम आदमी भी हैं, तो जीवन में आपकी कोशिश यह होनी चाहिए कि कैसे जटिल चीजों को आसान बनाया जाए, न कि कैसे आसान चीजों को जटिल बनाया जाए। आजकल कई जगह आध्यात्मिक शिक्षा ऐसी ही हो गई है, जहां आसान चीजों को जटिल बना दिया जाता है और उसे आध्यात्मिक बता दिया जाता है।

क्या आपने कभी पतंग उड़ाई है? अगर नहीं, तो आपको पता ही नहीं कि आपने जीवन में क्या मिस किया? जाइए और रिसर्च से ब्रेक लेकर पतंग उड़ाइए। अब तो चाइनीज मांझा भी बाजार में उपलब्ध है। आजकल बाजार में हर जगह चरखी भी मिलती है, जिस पर मांझा या पतंग की डोरी लपेटी जाती है। जब हम छोटे थे तो हम लोग इन चर्खियों से पंतग नहीं उड़ाते थे। तब हम डोर को बांस के चारों तरफ लपेटते थे। यह डोर को ढंग से रखने का एक तरीका होता है। अगर आप इसे किसी चीज पर लपेट कर अच्छी तरह से नहीं रखेंगे तो डोर पूरी तरह से उलझ जाएगी और उसमें गांठें पड़ जाएंगी। आप जितना इसे सुलझाने की कोशिश करेंगे, उतनी ही डोर उलझती जाएगी और आप इसे सुलझा नहीं पाएंगे। एक सीधी डोरी एक उलझा हुआ जाल बनकर रह जाएगी। यही चीज जीवन के साथ भी लागू होती है, जिसमें गर्भ से लेकर कब्र तक एक सीधी लाइन होती है। आप एक जगह जा रहे थे और मैं दूसरी जगह जा रहा था, एक दूसरे की राह काटने से, कुछ जटिलताएं आई। लेकिन गर्भ से लेकर कब्र तक सीधी लाइन है। लेकिन देखिए इस सीधी रेखा पर चलने के बजाय कब्र तक पहुंचने के लिए लोग हजारों तरीके अपनाकर अपने लिए कितनी उलझनें बढ़ा रहे हैं।

भारत के रास्ते पहले ही घुमावदार हैं

इस देश के डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को और मत उलझाइए। हमारे रास्ते वैसे ही काफी घुमावदार हैं। इसकी वजह रही कि अपने यहां पुराने समय में रोड नहीं बनाई गईं, बल्कि बैलगाडिय़ों के लिए राजमार्ग बनाए गए।

क्या आप जानते हैं कि भारत में हजारों साल पहले बैलगाडिय़ों के लिए राजमार्ग थे? ग्रांड ट्रंकरोड जैसे रास्ते किसी जमाने में बैलगाडिय़ों के रास्ते हुआ करते थे। 
क्या आप जानते हैं कि भारत में हजारों साल पहले बैलगाडिय़ों के लिए राजमार्ग थे? ग्रांड ट्रंकरोड जैसे रास्ते किसी जमाने में बैलगाडिय़ों के रास्ते हुआ करते थे। उत्तरी ट्रंक रोड किसी जमाने में दिल्ली से कोलकाता तक जाया करती थी, वो आज भी देश का राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर एक है। चूंकि बैलगाडिय़ों को बैल चलाया करते थे, इसलिए अगर रास्ते में कहीं एक गड्ढा या चढ़ाई आ जाती, तो वे थोड़ा हटकर चले जाया करते थे। जानवरों के लिए ऐसा करने में आसानी होती है। उस समय 600 बीएचपी के इंजन नहीं होते थेे। गाडिय़ों में बस दो बैल हुआ करते थे। तो उस समय कोई छोटी सी पहाड़ी या टीला पडऩे पर रास्ते को घुमा दिया जाता था। वे ढलान वाले रास्ते पर भी नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि बैलगाड़ी में ब्रेक की तो कोई व्यवस्था होती नहीं। तो इस तरह रास्ते घुमावदार बनते गए और फिर उन रास्तों के आसपास बस्तियां बसने लगीं। तो जब हमने नई रोड बनाईं तो हमने अपने शहरों को नहीं छेड़ा। हम उसी तरह से रोड बनाते रहे, इसलिए हमारे रास्ते थोड़े घुमावदार बने हुए हैं। उसकी वजह है कि यहां हर जगह बस्तियां ही बस्तियां हैं। तब बैलगाड़ी एक सप्लाई चेन की कड़ी हुआ करती थी।

अब हमने जब अपने राष्ट्रीय राजमार्ग बनाए तो हमने कोशिश की, इसे थोड़ा बहुत सीधा बनाया जाए, लेकिन फिर भी एक बस्ती इधर है तो दूसरा कस्बा उधर, इसलिए हमने इसे थोड़ा घुमावदार बनाया। हम लोग दिल्ली से लेकर कन्याकुमारी तक तीर की तरह एक सीधा रास्ता भी बना सकते हैं, लेकिन यह रास्ता सिर्फ उन्हीं के लिए होगा, जो कन्याकुमारी जाना चाहते हैं। फिर उस रास्ते में कोई और इस मार्ग का इस्तेमाल नहीं कर पाएगा, क्योंकि यह किसी भी बड़े शहर से होकर नहीं गुजरेगा।

शरीर एक बेहतरीन सप्लाई चैन है

हो सकता है कि घुमावदार रास्ता बनाने में अक्लमंदी न दिखाई देती हो, लेकिन यहां अहमदाबाद है तो वहां मुंबई, दूसरी तरफ बेंगलुरु और आपको सभी शहरों को आपस में जोडऩा है। वर्ना तो देश में सप्लाई चेन बन ही नहीं पाता। तो सप्लाई चेन लोगों तक कुशलतापूर्वक चीजें पहुंचाने की महज एक व्यवस्था भर है। आपको इसके लिए कुछ और सोचने की जरूरत नहीं है। आप अपने शरीर पर गौर कीजिए और देखिए शरीर के हर अंग तक किस तरह सप्लाई चेन बना हुआ है। यहां तक कि आपकी उंगलियों के नाखून भी बढ़ रहे हैं। हमारे शरीर के भीतर हर जगह तक सप्लाई हो रही है। शरीर के हर अंग को जो चाहिए, वह उसे मिल रहा है। बस अपने शरीर पर गौर कीजिए, आपको सबसे बढिय़ा सप्लाई चेन का खाका मिल जाएगा।