सद्‌गुरुसद्‌गुरु हमें एक ऐसा सरल प्रयोग बता रहे हैं जिसके माध्यम से हम पूरे दिन एक सुखद अहसास बनाए रख सकते है। ये प्रयोग नींद से जुड़ा है। सीखते हैं ये सरल प्रयोग

दिन में चार समय ऐसे होते हैं, जिन्हें संध्याकाल के नाम से जाना जाता है। यह समय संक्रमण काल यानी संक्रांति का होता है। पहला संध्याकाल सूर्योदय से 20 मिनट पहले से लेकर 20 मिनट बाद तक का, दूसरा संध्याकाल दोपहर 12 बजने के 20 मिनट पहले से लेकर 20 मिनट बाद तक का, तीसरा सूर्यास्त से 20 मिनट पहले से लेकर 20 मिनट बाद तक का और चौथा मध्यरात्रि 12 बजने के 20 मिनट पहले से लेकर 20 मिनट बाद तक होता है।

जब समय किसी खास तरीके से गुजर रहा होता है तो आप पूरी तरह से समय और याद्दाश्त के होकर रह जाते हैं। लेकिन जब इसमें खास तरह का विराम आता है, एक जगह बनती है, तो एक गुंजाइश बनती है - समय और याद्दाश्त से परे जाने की। संध्याकाल में यह संभावना होती है। जहां तक आपके अपने शरीर की बात है तो सबसे महत्वपूर्ण संध्याकाल वो है, जब या तो आप सोने वाले होते हैं या फिर नींद से जागने वाले पल में होते हैं। इस समय पर आप जरूर गौर कीजिएगा, क्योंकि इस दौरान आपके भीतर एक खास तरह की सुखद अनुभूति भर रही होती है। जब शरीर में जीवंतता होती है तो एक खास तरह का सुखद अहसास होता है, जो जीवंतता के साथ-साथ पूरे शरीर में फैलता है। जिस क्षण आप जाग रहे होते हैं, उस पल अगर आप उस सुखद अनुभूति के साथ रहें तो पूरा दिन आपका मन सुखद अहसास में गोते लगाता रहेगा।

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उत्तर दिशा में सिर रख कर सोने के लिए अकसर हमें मना किया जाता है। क्या ये नियम पूरी दुनिया में सभी पर लागू होता है? क्या है इसका विज्ञान? उत्तर ही क्यों? (आगे पढ़े )

किस दिशा में सोना चाहिए?

सोते समय जागरूक रहना थोड़ा मुश्किल है

इसी तरह से जब आप लगभग नींद मे पहुंच रहे हैं, लेकिन फिर भी आप हल्के से जगे हुए हैं, उस आराम के पल में एक सुखद अहसास आपके पूरे शरीर में फैल रहा होता है।

इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है जो सही मायने में सुखद हो या जो वाकई दुखद हो। अपनी याद्दाश्त के अनुसार आप यह तय करते हैं कि क्या सुखद है और क्या दुखद।
इस स्थिति में खुद को जागरूक बनाए रखना ज्यादा मुश्किल है, क्योंकि उस दौरान आपका सिस्टम एक ख़ास तरह से सुन्न पड़ता जाता है। लेकिन अगर आप इस वक्त जागरूक रह पाने में सक्षम हो जाएं तो आप देखेंगे कि आपकी नींद पूरी तरह से बिना सपने देखे बीतेगी, क्योंकि इस स्थिति में आप आइने के दूसरी तरफ होंगे। ऐसे में आइने पर क्या घटित हो रहा है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आइने पर कुछ भी अपने आप घटित नहीं होता, उसमें वही दिखाई देता है, जो उसके आसपास घटित होता है। लेकिन इसके साथ याददाश्त भी जुड़ी होती है, इसलिए आप हर चीज को या तो सुखद अहसास में बदल सकते हैं या फिर दुखद अहसास में।

सहज भाव से बैठने के लिए याद्दाश्त से परे जाना होगा

इस दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है जो सही मायने में सुखद हो या जो वाकई दुखद हो। अपनी याद्दाश्त के अनुसार आप यह तय करते हैं कि क्या सुखद है और क्या दुखद। आप एक आसान सा काम कर सकते हैं- जब भी आपके भीतर सुखद अहसास हो, आप उस अहसास के साथ रहने की कोशिश कीजिए और देखिए कि वह अहसास बना रहे।
क्रिया या अभ्यास के लिए आंख बंद करने के पीछे बुनियादी सोच यही है कि इससे आपके मन रूपी आइने को इनपुट कम मिले। लेकिन आपके पास याद्दाश्त भी है, जो तब भी अपना काम कर रही है। अगर आप अपनी आंखें बंद कर अगले तीन महीनों के लिए एक जगह बैठ जाएं तो पहले महीने में आप पूरे पागलपन से गुजरने लगेंगे। अगर आप मन को कोई इनपुट नहीं देंगे तो साठ सत्तर दिन बाद आप देखेंगे कि अगर आप बैठे हैं तो आप सहज भाव से बैठे रहते हैं। अगर एक बार ऐसा हो गया तो फिर आइने के दूसरी तरफ पहुंचना आसान हो जाएगा।

कब सोना चाहिए और कितना सोना चाहिए, ये ऐसे सवाल हैं जिनमें हर कोई अपने जीवन में कभी न कभी उलझता ही है। नींद और आराम के बीच के अंतर को सद्‌गुरु ने हमें समझाया (आगे पढ़े )

कैसे सोना चाहिए? रहस्य गहरी नींद का

फिलहाल सभी अनुभव मन में पैदा हो रहे हैं

फिलहाल तो आपको दूसरी साइड काफी उदास और नीरस लगेगी, क्योंकि हर गतिविधि इसी ओर है। अगर आप दूसरी तरफ जाएंगे तो वहां समय नहीं होता।

आप खुद ही अपनी मनोवैज्ञानिक नौटंकी में इतने उलझे हुए हैं कि आप जीवन के नाटक को पकडऩे से पूरी तरह से चूक गए हैं।
चूंकि वहां समय नहीं है, इसलिए वहां स्थान भी नहीं होता। मान लीजिए हम किन्हीं दो जगहों के बीच की दूरी की बात करते हैं तो दूरी किसी न किसी रूप में समय से सबंधित होती है। अगर कोई व्यक्ति आपसे पूछे कि ईशा आश्रम से कोयंबटूर शहर कितनी दूर है तो आप दो तरह से उसका जवाब दे सकते हैं- पैंतीस किलोमीटर या फिर आप कह सकते हैं कि पैंतालिस मिनट का रास्ता है।
एक बार जब समय ही नहीं रहा तो वहां स्थान भी नहीं होगा और दूरी भी नहीं होगी। जो है वह यहीं है और अभी है। पूरा ब्रम्हांड भी यहीं मौजूद है। यह एक आसान सी प्रक्रिया है, लेकिन आप खुद ही अपनी मनोवैज्ञानिक नौटंकी में इतने उलझे हुए हैं कि आप जीवन के नाटक को पकडऩे से पूरी तरह से चूक गए हैं। आप यहां हैं तो सबसे महत्वपूर्ण चीज है कि आपको जीवन का एक शक्तिशाली अनुभव हो। लेकिन आपको जीवन को छोडक़र हर चीज का अनुभव हो रहा है। उसकी वजह है कि आप मन के दर्पण में वही प्रतिबिंब देखते हैं, जो यह दिखाता है। ऐसे में आप उसको नहीं देख पा रहे, जो आपके भीतर होने वाले हर अनुभव का आधार है।

विचार और भावनाओं पर नहीं, जीवन के अहसास पर ध्यान दें

यह बहुत ही आसान है। आप चलकर आए, और नीचे बैठ गए। क्या इसमें कोई सुखद अहसास है? अब आप बैठे हुए हैं, लेकिन आपके पैर दुख रहे हैं। आप उठकर खड़े हो जाते हैं। क्या इसमें कोई सुखद भाव है? तो मैं कह रहा हूं कि इसी तरह से आप हर सांस के साथ, अपने द्वारा उठाए गए हर कदम के साथ, आप बैठते हैं, खड़े होते हैं, खाना खाते हैं, आपकी हर गतिविधि के साथ यह संभावना मौजूद है। यह सुखद अहसास सिर्फ संवेदना के स्तर पर ही नहीं होता, बल्कि उससे कहीं ज्यादा गहरे अनुभवों में हो सकता है। लेकिन ज्यादातर लोग इस चीज के प्रति पूरी तरह से अनजान व अचेतन होते हैं, क्योंकि उनके लिए उनके अपने विचार व भावनाएं ही इतनी बड़ी व महत्वपूर्ण हो जाती हैं, जिसमें वे इस अनुभव से पूरी तरह से चूक जाते हैं।