सद्‌गुरुहमारे पिछले ब्लॉग में आपने पढ़ा कि इच्छाओं को त्यागना एक गलती है। इच्छाओं को कम करना, या फिर इच्छाओं की दिशा बदलना भी आनंद नहीं दिला सकता। आइये अब समझते हैं इच्छाओं के मूल को।

ब्रह्माण्ड की हर वस्तु इच्छा पर टिकी है

जरा गौर कीजिए, देखिए आपके इर्द-गिर्द क्या कुछ हो रहा है। आपके प्रति अपनी ममतामयी आकर्षण के कारण धरती माँ गुरुत्वाकर्षण के स्नेह से आपको अपनी ओर खींचे हुए है।

लगाव न हो तो इस ब्रह्माण्ड का भी अस्तित्व नहीं रहेगा। तब, आप ही क्यों अपनी इच्छाओं को सीमित कर रहे हैं? उन्हें क्यों छोटा कर रहे हैं?
उधर सूरज से एक निश्चित फासले पर लगातार घूम रही धरती को सूरज सावधानी के साथ अपनी ओर खींचे हुए है कि कहीं धरती अपने रास्ते से फिसल न जाए। अगर किसी दिन ग्रहों के प्रति सूरज का लगाव खत्म हो जाए तो क्या होगा? जरा सोचकर देखिए।

लगाव न हो तो इस ब्रह्माण्ड का भी अस्तित्व नहीं रहेगा। तब, आप ही क्यों अपनी इच्छाओं को सीमित कर रहे हैं? उन्हें क्यों छोटा कर रहे हैं? आपकी कल्पना जिन सरहदों को छूती है आपकी इच्छा भी वहाँ तक फैलकर बड़ी से बड़ी बनी रहे। सितारों को लक्ष्य बनाएँगे, तभी आपका तीर कम-से-कम छत तक पहुँचेगा। ‘ओह, इतनी बड़ी इच्छा अनुचित है’ – ऐसा सोचकर अगर आप कमान को झुकाते जाएँगे तो तीर केवल आपके पाँव की उँगलियों को ही घायल करेगा।

इच्छा को बड़ा बनाएं; लालच मत करें

ध्यान दीजिए... मैं यह नहीं कहता कि आप लालच करें। यही कहता हूँ कि आपकी इच्छा बड़ी से बड़ी रहे। दोनों के बीच में जो अंतर है, उसे समझने की कोशिश कीजिए।

एक बार शंकरन पिल्लै रेलयात्रा कर रहे थे। गाड़ी जिस किसी भी स्टेशन पर रुकती, शंकरन पिल्लै गाड़ी से उतर जाते और प्लेटफार्म पर खड़े रहते। जब गाड़ी चल पड़ती, फिर से सवार हो जाते। छोटे स्टेशन और बड़े स्टेशन का फर्क किए बिना, गाड़ी जहाँ भी दो मिनट रुकती, उन स्टेशनों पर उतर कर चढ़ते।

आपकी कल्पना जिन सरहदों को छूती है आपकी इच्छा भी वहाँ तक फैलकर बड़ी से बड़ी बनी रहे। सितारों को लक्ष्य बनाएँगे, तभी आपका तीर कम-से-कम छत तक पहुँचेगा।
सामने वाली सीट पर बैठे यात्री का कौतूहल बढ़ता गया आखिर वह पूछ ही बैठा, ‘श्रीमान जी, आप बड़े परेशान लग रहे हैं। क्या आपका कोई साथी खो गया है? या आप को कोई किताब या पानी की बोतल खरीदनी है? किसलिए, आप यूं ही हर स्टेशन पर उतरने और चढऩे का कष्ट उठा रहे हैं?’

शंकरन पिल्लै ने जोर से सिर हिलाया और बोले, ‘ऐसी कोई बात नहीं है। हाल में मेरी बाई-पास सर्जरी हुई है। डॉक्टर ने हिदायत दी है कि लंबी दूरी की यात्रा नहीं करनी है। इसलिए मैं इस यात्रा को छोटे-छोटे टुकड़ों में पूरी कर रहा हूँ।’

क्या अंतर है इच्छा और लालच में?

अगर आप यह सोचकर कि स्वयं सद्गुरु ने कह दिया है कि सभी चीजों के लिए इच्छा करो, केवल उन शब्दों को लेकर इच्छा करने लग जाएँ... बात कुछ ऐसी ही होगी जैसे कि शंकरन पिल्लै ने डॉक्टर की हिदायत का मतलब समझा था।

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तो सवाल उठता है, इच्छा कौन-सी है, और लालच किसे कहते हैं?

जो चीज किसी के लिए इच्छा लगती है वही किसी दूसरे के लिए लालच लगती है।

मोटर बाइक रखने वाले अगर गाड़ी खरीदना चाहेंगे तो आप उसे ‘इच्छा’ कहेंगे, प्लेटफार्म पर लेटा आदमी वही इच्छा करे तो आप उसे लालच कहेंगे, है न?

जब तक आपके अंदर तुलना करके देखने की आदत बनी रहेगी, यह भ्रम भी खत्म नहीं होगा।

इच्छा की जड़ों को समझें

ध्यान दीजिए, आपकी इच्छा दरअसल कहाँ अपनी जड़ें जमाई हुई है? नानी जब भी कहानी सुनाती है आपने गौर किया होगा - कोई राजकुमार अपने सभी दुश्मनों से घमासान युद्ध में जीतकर, सात समुंदर और सात पहाड़ लांघकर और भी न जाने क्या-क्या करतब करके उस खूबसूरत राजकुमारी को जेल से छुड़ाकर ले आता है। फिर वे दोनों खुशी-खुशी बहुत दिनों तक जीते हैं। नानी की हर कहानी का अंत यही होता है।

खुशी से जीने लगें तो समझिए काम बन गया। फिर कोई संघर्ष नहीं। लेकिन खुशी किसमें है?

क्या है हर इच्छा के मूल में?

आपने सोचा था, शादी हो जाए तो खुशी मिलेगी। फिर ख्याल आया, बच्चे होने पर ही जीवन पूर्ण होगा, खुशी उसी में है। बच्चे भी पैदा हुए। अब फूट-फूट कर रो रहे हैं कि इन्हीं बच्चों की वजह से मन की शांति खत्म हो गई है।

आपने सोचा, एक करोड़ रुपए मिल जाएँ तो खुशी मिलेगी। जब से वह रकम मिल गई, आप इसी डर के मारे जान हथेली पर लिये घूम रहे हैं... हाय, किस क्षण यह कुरसी छिन जाएगी, न जाने कब दरवाजे पर पुलिस दस्तक देगी, न जाने कब कौन-सा दुश्मन चाकू भोंक दे।

एक बार शंकरन पिल्लै भी इसी तरह फँस गए थे। फौज में भर्ती होने पर बहुत सारी रियायतें मिलती हैं - यह सुनकर शंकरन पिल्लै सैनिक सेवा में लग गए। गलती से उन्हें दो नंबर कम वाले ‘बूट’ दिए गए।

आप जो माँगते हैं वह तो मिल जाता है। लेकिन उसे किसलिए माँगा... वह... केवल वही खुशी नहीं मिलती।
जूतों के अंदर पाँव घुसेड़ते वक्त रोज उनकी उँगलियाँ एक दूसरे पर सवार हो जातीं। दिन भर जूतों को खोलने का मौका ही नहीं मिलता। उनके पाँव बुरी तरह दुखते। दर्द बरदाश्त से बाहर हो जाता तो शंकरन पिल्लै दुनिया भर को कोसते फिरते।

यह बदहाली देखकर साथी जवान ने एक दिन उनसे कहा, ‘अगर तुम इस बात को अधिकारियों के ध्यान में लाते तो तुम्हें सही नाप के जूते मिल जाते। दोस्त, क्यों रोज-रोज ये तकलीफ झेलते हो?’

शंकरन पिल्लै के मुँह से कड़े शब्दों में यह जवाब निकला, ‘तुम देख रहे हो न, सुबह उठते ही कवायद करनी होती है, फिर कितने सारे मुश्किल के कामों का तांता... हड्डियाँ टूट जाती हैं। क्या इन कामों में किसी से भी खुशी मिलती है? रात को इन जूतों को खोलने पर पता है, किस तरह का आनंद मिलता है? फौज में भर्ती होने के फलस्वरूप मिल रही इस अकेली खुशी को भी गँवाने के लिए कहते हो?’

अपनी छाती पर हाथ रखकर बोलिए... शंकरन पिल्लै की तरह अपनी खुशी को ही गिरवी रखने के बाद, आपके मन में भी ऐसी ही तड़प महसूस हो रही है न... ‘हाय, इन जूतों से कब निजात मिलेगी?’

‘खुशी से जीना है’ यही लालसा तो आपकी सभी इच्छाओं के मूल में छिपी हुई है?

आप जो माँगते हैं वह तो मिल जाता है। लेकिन उसे किसलिए माँगा... वह... केवल वही खुशी नहीं मिलती।

ऐसा क्यों? गलती कहाँ है? जरा सोचिए।

ये श्रृंखला आगे जारी है...