सद्‌गुरुइकोनॉमिक टाइम्स समाचारपत्र के साथ एक विस्तृत साक्षात्कार में, सद्‌गुरु भारत में हिंदू जीवनशैली, घरवापसी और समाज के छिट-पुट तत्वों द्वारा राष्ट्रीय संवाद को आकर्षित करने की कोशिश के बारे में बता रहे हैं। इस ब्लॉग के पिछले भाग में आपने पढ़ा अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच की तथाकथित आपसी असुरक्षा की भावना के बारे में...इस बार पढ़ें गाय की ह्त्या के निषेध से जुड़े कुछ प्रश्नोत्तर...

गाय की ह्त्या : क्या प्रतिबंध लगाना समाधान है?

प्रश्न:

आपने हाल में कहा, ‘मेरे लिए, भोजन सिर्फ भोजन है, उसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। मैं यह समझता हूं कि हम कोई भी ऐसी चीज खा सकते हैं जो हमारा शरीर स्वाभाविक रूप से ग्रहण कर सकता है।’ क्या यह बात गोमांस पर भी लागू होती है? अगर ऐसा है, तो आप महाराष्ट्र और हरियाणा में गाय की हत्या, गोमांस, और बाकी चीजों पर व्यापक प्रतिबंध के बारे में क्या सोचते हैं?

सद्‌गुरु:

आप भोजन में भी धर्म को मिलाना चाहते हैं? आप हर चीज को बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की बहस में नहीं बदल सकते। यह कुछ लोगों द्वारा खेला जाने वाला एक गैरजरूरी खेल है। गोमांस प्रतिबंध किसी धर्म के खिलाफ नहीं है। पहली चीज मैं यह कहूंगा कि प्रतिबंध को प्रतिबंधित कर दें।

कई गांवों में गोमांस नहीं खाया जाता, वहां ऐसा कोई कानून नहीं है, मगर नियम है। अल्पसंख्यक भी उस भावना का सम्मान करते हैं और उसे समझते हैं। अगर कोई खाना चाहता है, तो वह लाकर चुपचाप खा लेता है। दूसरों को भी यह बात पता होती है लेकिन उन्हें कोई परवाह नहीं होती क्योंकि वे अपने घर में खाते हैं।
इस समस्या का जवाब प्रतिबंध नहीं, शिक्षा है। पहली बात, भोजन के रूप में गोमांस खाना शरीर के लिए अच्छा नहीं है। दुनिया का हर देश, हर डॉक्टर आपको यही बताता है। पश्चिमी देशों में लोग गोमांस छोड़ रहे हैं और शाकाहार अपना रहे हैं। हम हजारों सालों से शाकाहारी रहे हैं। अब हम गोमांस की ओर बढ़ रहे हैं। क्या हम उन सेहत की उन सभी समस्याओं से गुजरना चाहते हैं, जिनसे वे गुजरे हैं? क्या हम अरबों रुपये अपने स्वास्थ्य के बिल पर खर्च करना चाहते हैं? क्या आप उस दिशा में जाना चाहते हैं? एफडीए (यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन) अपने नियमों में बदलाव ला रहा है। मगर हम उस ओर जाना चाहते हैं! यह निश्चित रूप से कोई अक्लमंदी का काम नहीं है।

गाय की पूजा क्यों करते हैं?

हमारे देश में माना जाता है कि जिस पशु में भावनाएं हों, आपको उसे नहीं खाना चाहिए। एक गाय किसी इंसान की तरह आपसे प्यार करती है और आपके लिए आंसू बहा सकती है। यह सिर्फ गाय की बात नहीं है, मानवीय भावनाएं दिखाने वाले किसी भी पशु की बात है। क्या आप अपने कुत्ते को काट कर उसे खा सकते हैं? हमारी एक ग्रामीण संस्कृति है, जहां औद्योगीकरण से पहले 90 फीसदी लोग खेती में शामिल थे। गाय सिर्फ एक पशु नहीं है। वह परिवार का हिस्सा होती है। आप गाय का दूध पीते हैं। बच्चों को सिखाया जाता है कि गाय दूसरी मां की तरह होती है। यह हमारी संस्कृति का हिस्सा है। तो जब आप गाय को काटकर खाते हैं, तो भारतीय मानसिकता में यह सुरुचि की दृष्टि से असंभव है।

फिर भी, अगर कोई गोमांस खाता है, तो मैं उसे वह खाने के नुकसानदायक नतीजों के बारे में समझा सकता हूं। मगर उसे ऐसा न करने के लिए कहना सरकार या मेरा काम नहीं है। अब भारत गोमांस का निर्यात कर रहा है, जो एक बड़ा कारोबार बनता जा रहा है। अगर आप देश के करीब 80 फीसदी लोगों की भावनाओं को नजरअंदाज करते हुए लाखों गायों को मारते हैं और गोमांस का निर्यात करते हैं, तो यह लोगों को स्वीकार नहीं होगा।

गाय के मांस का निषेध : कानून नया है, पर नियम पुराना

प्रश्न:

क्या यह इतना ही सरल है, क्योंकि जिन राज्यों में भाजपा कभी सत्ता में नहीं थी, वहां पार्टी सरकार बनाती है और गाय के मांस पर प्रतिबंध लगाती है...

सद्‌गुरु:

महाराष्ट्र में गाय के मांस पर प्रतिबंध लगाने का विधान पहले से वहां था, बस राष्ट्रपति के अनुमोदन का इंतजार था। राष्ट्रपति पहले कांग्रेस में ही रहे हैं और अगर उन्हें लगता है कि यह सही है, तो आप केंद्र सरकार के पीछे क्यों पड़े हैं? इसका क्या तुक है?

प्रश्न:

हरियाणा में?

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सद्‌गुरु:

वहां अभी यह कानून लागू नहीं हुआ है। उन्होंने घोषणा कर दी है मगर उसे विधानसभा में पेश होना है। वहां भाजपा के सत्ता में आने के काफी पहले से कानून था।

मैं यह इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मैं उनका बचाव करना चाहता हूं, मगर अब सरकार और प्रधानमंत्री देश के प्रतिनिधि हैं। उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा है कि वह एक खास धर्म के पैरोकार हैं। लेकिन यदि आप कुछ चीजों पर सवाल उठाते हुए और उन पर कीचड़ उछालते हुए राष्ट्र का निर्माण करने वाले मूलभूत संस्थानों को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं, तो आप देश को कमजोर बना देंगे और उसे एक बनाना रिपब्लिक बना देंगे।

लोकतंत्र संस्थानों से बनता है। सिर्फ किसी के हौवा खड़ा करने की वजह से अगर आप हर संस्थान को कमजोर बनाना चाहते हैं, तो देश कमजोर हो जाएगा। प्रधानमंत्री भी एक संस्थान है। अगर वह कहता है कि आप सब को हिंदू होना है, तो हम उसे बाहर कर सकते हैं। मगर राष्ट्रपति का अनुमोदन लेने का नियम हमेशा से रहा है, फिर आप उनका विरोध कैसे कर सकते हैं। बहुसंख्यकों को खुश करने के लिए विधानसभा द्वारा उसे पारित कर दिया गया और अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए उसे लटका दिया गया। देश चलाने का यह तरीका नहीं है। देश को इस तरह चलाना बंद कीजिए। आप क्या करना चाहते हैं, इस बारे में स्पष्ट रहें।

कई गांवों में गाय का मांस नहीं खाया जाता, वहां ऐसा कोई कानून नहीं है, मगर नियम है। अल्पसंख्यक भी उस भावना का सम्मान करते हैं और उसे समझते हैं। अगर कोई खाना चाहता है, तो वह लाकर चुपचाप खा लेता है। दूसरों को भी यह बात पता होती है लेकिन उन्हें कोई परवाह नहीं होती क्योंकि वे अपने घर में खाते हैं। लेकिन अगर आप सड़क पर गाय को काटकर किसी के घर के सामने टांग देंगे तो वे इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे क्योंकि यह उनकी सुरुचि और भावनाओं के अनुकूल नहीं है। वे भी इस बात का सम्मान करते हैं। मगर अब इसे यह रंग दिया जा रहा है कि आपको गाय का मांस खाना होगा, वरना आप धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं। क्या मुझे धर्मनिरपेक्ष होने के लिए गाय का मांस खाना होगा? आप देश की या मेरी धर्मनिरपेक्षता पर सवाल नहीं उठा सकते। जब दुनिया के किसी देश ने लोकतंत्र के बारे में नहीं सोचा था, उस समय यहां के राजा लोकतंत्र चला रहे थे।

केवल तानाशाहों को छोड़ दें तो राजा भी कोई फैसला करने से पहले प्रजा की सलाह लेते थे। लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता हमारे लिए नई चीज नहीं हैं। हम एक धर्मविहीन देश हैं। हर व्यक्ति अपनी पसंद के धर्म का अनुसरण कर सकता है, जब तक कि वह उसे मुझ पर न थोपे। मगर अब आप उसे मुझ पर थोप रहे हैं। मैं गरीब हूं, आप मुझे भोजन देते हैं और कहते हैं, ‘अपने भगवान को छोड़ दो, मेरे भगवान के पास आ जाओ।’ यह बहुत बेवकूफाना तरीके से हो रहा है। इसका संबंध इस वर्ग से लोगों या उस वर्ग के लोगों से नहीं, बल्कि देश से है। मेरी चिंता यह है कि इस देश के 5 करोड़ लोगों को पोषण नहीं मिलता। मेरे भगवान और आपके भगवान के नाम पर आप सब कुछ नष्ट कर रहे हैं। आजादी को एक जीवंत संभावना होना चाहिए। जब आप गरीब होते हैं तो आपको सिर्फ खाने की परवाह होती है। भूख कोई मजाक नहीं है। मैं किस स्वर्ग में जाऊंगा, यह जरा भी अहमियत नहीं रखता।

प्रधानमंत्री का कार्यकाल अब तक कैसा रहा है?

प्रश्न:

क्या आपको लगता है कि एक नई तरह के राजनीतिक दल की जरूरत है जो हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करे, मगर धर्म के उदारवादी सिद्धांतों का समर्थन करे। क्या आपको लगता है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा खुद को ऐसी पार्टी बना सकती है?

सद्‌गुरु:

आपको लोकतंत्र की समस्याओं को समझना होगा। आपको वहां तक पहुंचने के लिए संख्या बल की जरूरत होती है। जब आपको संख्या मिलती है, तो आपके पास गुणवत्ता का विकल्प नहीं होता। एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बुरी बात यही है। मेरे ख्याल से मीडिया का फोकस इस पर होना चाहिए कि नेतृत्व क्या बोल रहा है, न कि किसी ऐसे की बातों पर, जो देश की बहस में कोई महत्व नहीं रखता। फिलहाल जिस व्यक्ति को कोई नहीं जानता, अगर उसे मीडिया का ध्यान चाहिए तो उसे बस यह कहना है, ‘सभी मुसलमानों को मार दो।’ सारे राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल वहां पहुंच जाएंगे और बताएंगे कि वह व्यक्ति कौन है। वह एक चींटी तक नहीं मार सकता लेकिन अगर वह कहता है ‘मैं सारे मुसलमानों को मारना चाहता हूं,’ तो अगले तीन दिनों तक सारी बहस उस जोकर के इर्द-गिर्द घूम रही होगी, जो किसी लायक नहीं है। यह सब बंद होना चाहिए। अगर वाकई किसी जिम्मेदार पद पर बैठा कोई इंसान ऐसा कहता है, तो उससे निपटना चाहिए। लेकिन कोई जोकर कहीं पर कुछ कह देता है, तो असल में वह देश की बहस की दिशा मोड़ रहा है, जिसे होने नहीं देना चाहिए।

जहां तक मेरा सवाल है, मैंने पहले भी यह कहा है और अब भी दुहराता हूं, मैं किसी भी इंसान या किसी खास पार्टी का प्रशंसक नहीं हूं। मगर मैं इस बात की बहुत सराहना करता हूं कि पिछले छह से आठ महीनों में, हालांकि प्रधानमंत्री आपके ख्याल में एक कट्टर पृष्ठभूमि से आते हैं, उन्होंने एक भी गलत बात नहीं कही है। चुनावी भाषणों से लेकर एक प्रधानमंत्री के बयानों तक, उन्होंने जिस तरह खुद को रातोरात रूपांतरित किया है, यह वाकई किसी इंसान के लिए असाधारण है। चुनावी माहौल में वह जिस लहजे में भाषण दे रहे थे और एक प्रधानमंत्री के रूप में वह जिस तरह बोल रहे हैं और जैसा आचरण कर रहे हैं, मेरे ख्याल से अगर हर किसी में इतना अनुशासन आ जाए, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। इसी अनुशासन की जरूरत है। निश्चित रूप से बहुत से लोगों में यह अनुशासन नहीं है, मगर हम उन्हें इतना बड़ा क्यों बना रहे हैं।

यह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया है इसलिए आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि उन्होंने जो कहा, वह सिर्फ कहा है। आप बस उन्हें नजरअंदाज कर सकते हैं। वे वैसे भी शक्तिहीन हैं, वे क्या कर सकते हैं? क्या साक्षी महाराज यह कानून बना सकते हैं कि आप चार बच्चे पैदा करें? उन्हें अकेला छोड़ दीजिए। खबरों का कमर्शियल असर उसके राष्ट्रीय असर से ज्यादा अहम हो गया है, जो मेरे ख्याल से बहुत गंभीर मुद्दा है और इसे सुलझाए जाने की जरूरत है।

मीडिया की भूमिका : केवल तथ्यों को लोगों तक पहुंचाए

प्रश्न:

आप मीडिया को किस तरह के आचरण की सलाह देंगे?

सद्‌गुरु:

जब आप मीडिया कहते हैं, तो उसमें कारोबार का एक तत्व होता है। मैं समझ सकता हूं, कि यह व्यवसाय से जुड़ा है। मगर मीडिया को समझना चाहिए कि वह 100 फीसदी कारोबार नहीं हो सकता। लोकतंत्र के निर्माण में मीडिया बहुत ही अहम है। इसीलिए मीडिया को कुछ विशेषाधिकार दिए जाते हैं। अगर आप सिर्फ कारोबार कर रहे हैं, तो ऐसे विशेषाधिकार वापस ले लिए जाने चाहिए। फिर हम देखेंगे कि वह कैसे काम करता है।

अगर उसे मीडिया का ध्यान चाहिए तो उसे बस यह कहना है, ‘सभी मुसलमानों को मार दो।’ सारे राष्ट्रीय टेलीविजन चैनल वहां पहुंच जाएंगे और बताएंगे कि वह व्यक्ति कौन है।
मीडिया को समझना चाहिए कि उसके पास जबर्दस्त ताकत और विशेषाधिकार है, जो लोकतंत्र का आधार है ताकि वह किसी अति का शिकार न हो। मगर जब मीडिया खुद संतुलित होने की बजाय चरम रास्ता अपनाएगा, तो क्या होगा? मीडिया को तथ्यों की जानकारी देनी चाहिए ताकि लोग किसी की राय से प्रभावित होने की जगह अपनी राय बना सकें। आज, अखबारों में सब बस राय होती है। खबर कहां है? मुझे खबर दीजिए, मैं खुद अपनी राय बना लूंगा।

प्रश्न:

क्या आपको लगता है कि आपको और दूसरे आधुनिक विचारों वाले नेताओं को प्रधानमंत्री से मिलकर छिटपुट गुटों द्वारा धर्म पर कब्जा करने के इस मुद्दे को उठाना चाहिए और उनसे अनुरोध करना चाहिए कि इन तत्वों पर लगाम लगाएं? क्या दूसरे धर्मों द्वारा उत्पीड़ित महसूस करके इस मुद्दे को उठाने का इंतजार करने की बजाय इन लोगों पर लगाम कसना नेताओं की जिम्मेदारी नहीं है?

सद्‌गुरु:

मैं अभी आपसे बात कर रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि मैं जो कहूंगा, आप वही लिखेंगे।

प्रश्न:

सरकार को विवादों से कैसे निपटना चाहिए?

सद्‌गुरु:

मैंने अंदर की जो बात सुनी है, जहां भी संभव है, प्रधानमंत्री इन सब चीजों पर लगाम लगा रहे हैं। मगर वह शायद उस पर टिप्पणी नहीं करना चाहते। अगर मैं उस पद पर होता, तो शायद मैं भी टिप्पणी नहीं करता क्योंकि आप फिर भी उसे एक राष्ट्रीय मंच दे रहे हैं। प्रधानमंत्री जैसे ही इन चीजों पर टिप्पणी करते हैं, उतना ही इन जोकरों को एक राष्ट्रीय मंच मिल जाता है।

मेरे ख्याल से वह उन्हें वह मंच नहीं देना चाहते मगर आंतरिक तौर पर, पार्टी के भीतर वह उन पर काबू करने के लिए कदम उठा रहे हैं। मगर वह उन्हें काबू में नहीं कर सकते क्योंकि उनका उन पर कोई नियंत्रण नहीं है। अगर 10 लोग होते हैं, तो वह अपने आप में एक पार्टी होती है। उनमें से ज्यादातर की पार्टी में 10 लोग भी नहीं हैं। इन गुटों में से कई 8-10 लोगों का गुट है। वे बस बकवास करते हैं और फिर अगले तीन दिनों तक मीडिया के कैमरे उन्हीं पर टिके रहते हैं। मुझे यकीन है कि मीडिया को इस बात की जानकारी होती है कि ये लोग कौन हैं और उनकी कोई अहमियत नहीं है। उनका कोई महत्व नहीं होता मगर हम अनावश्यक रूप से उनका कद बढ़ाते हैं। और हम प्रधानमंत्री से टिप्प‍णी करने की उम्मीद कर रहे हैं। मुझे खुशी है कि प्रधानमंत्री के अंदर इस पर टिप्पणी न करने की अक्ल है।

गुरु, गॉडमेन और ढोंगियों में क्या अंतर है?

प्रश्न:

हाल के समय में ढोंगी गुरुओं के धार्मिक/आध्यात्मिक पंथों की काफी आलोचना हो रही है, जैसा कि पीके जैसी फिल्मों में दिखाया गया है, एक विचारधारा उन लोगों की आलोचना करती है जो खुद को गॉडमेन बताते हैं। इस तरह की विचारधारा के बारे में आप क्या कहेंगे?

सद्‌गुरु:

‘गॉडमेन’ मीडिया का गढ़ा हुआ शब्द है। कोई खुद को गॉडमैन नहीं कहता। मैंने यह फिल्म नहीं देखी है मगर लोगों से इसके बारे में सुना है। इस दुनिया में खूब भ्रष्टाचार है। पुलिस में भ्रष्टाचार, राजनीति में भ्रष्टाचार और बदकिस्मती से धार्मिक नेताओं में भी भ्रष्टाचार। देश में ईमानदारी का सामान्य स्तर कम हुआ है। आजकल मर्सीडीज चलाने वाला व्यक्ति लाल बत्ती पर आगे बढ़ने से पहले रुककर सोचता है, मगर मोपेड पर चलने वाला एक आम आदमी लाल बत्ती पर नहीं रुकता। हम अपने घरों में भ्रष्टाचार पैदा कर रहे हैं।

बहुत से आध्यात्मिक गुरु बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं। हमारे देश के प्रशासन में बड़ी कमियां हैं मगर फिर भी लोग शांतिपूर्वक रह पाते हैं। कृपया आध्यात्मिक गुरुओं को थोड़ा तो श्रेय दें। उनमें से कुछ फीसदी ही लोगों का शोषण करते हैं। मेरा यकीन कीजिए, यह एक छोटी संख्या है मगर उन पर लोग इतना भरोसा करते हैं, कि वह स्पष्ट दिखता है। हालांकि थोड़ी सफाई की जरूरत है। जिन्हें जेल में होना चाहिए, उन्हें जेल में ही होना चाहिए। सच्चाई हर किसी के लिए खुशहाली लाएगी।