आध्यात्मिक होने का मतलब हमेशा विनम्र और सुशील होना समझा जाता है। दुर्भाग्य से सुशील होने का मतलब कोमल या कमजोर होना समझ लिया जाता है।

हिंसा इंसान के भीतर की जरूरत है। दरअसल जरूरत हिंसा की नहीं है, जरूरत है तीव्रता की। हिंसा उस तीव्रता को पैदा कर देती है।

कमजोर लोग सभ्य और सुशील अपनी इच्छा से नहीं होते। चूंकि वे एक प्रभावशाली छाप छोड़ पाने में असफल होते हैं, इसलिए वे सभ्य और सज्जन बन जाते हैं। सज्जनता का महत्व तभी है, जब इन गुणों को आप मजबूरी में नहीं, बल्कि अपनी इच्छा और पसंद से अपनाते हैं। आपके भीतर हिंसा करने की क्षमता है, लेकिन फिर भी आप ऐसा नहीं करते, आप सभ्य बने रहते हैं - ऐसी हालत में आपकी सज्जनता का महत्व है। आपके भीतर हिंसा करने क्षमता ही नहीं है और ऐसे में आप खुद को सुशील और सभ्य बनाए रखते हैं, तो उसका कोई महत्व नहीं है, क्योंकि ऐसी सज्जनता की वजह एक खास तरह की अक्षमता या कमजोरी है।

भगवान शिव को कोमल रूप में चित्रित किया गया

भारत या कहें दुनिया भर में जितने भी देवता हैं, उन सभी में सबसे बलिष्ठ देवता शिव हैं। वे इतने ज्यादा मजबूत और प्रचंड हैं कि इस बात की पूरी संभावना है कि लोग उन्हें पौरुषवान यानी मैचो-मैन समझें, और सुशील और सज्जन न मानें। ऐसे में भारतीय कलाकारों ने उनके सुशील और सज्जन नजर आने के लिए उनके शरीर के सभी बालों को साफ कर दिया। अगर ऐसा न किया जाता तो वह एक योद्धा की तरह आक्रामक लगते और लोगों को यह भरोसा ही नहीं होता कि वे भीतर से सज्जन भी हैं। सामाजिक तौर पर अकसर यह देखा गया है कि सज्जनता को लोग गलती से कमजोरी समझ लेते हैं। हालांकि अब यह चीज बदल रही है, नहीं तो इससे पहले तक आमतौर पर लोग सज्जन कहलाने में शर्मिंदगी महसूस करते थे, लेकिन अब तो सज्जन कहलाना अच्छा माना जाने लगा है।

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एक बार कोई मुझसे पूछ रहा था - ‘सद्‌गुरु, भारत में सभी देवियों के हाथ में हमेशा हथियार क्यों होता है? फिर हमारी भैरवी देवी के हाथ में कोई हथियार क्यों नहीं है?’ दस हाथ और हथियार एक भी नहीं, इसका कारण यह है कि वह हिंसा छोड़ चुकी हैं। महिषासुर पर विजय पाई जा चुकी है। जिसे हिंसा और क्रूरता के साथ संभालना था, उसे निबटाया जा चुका है, तो अब हाथ में हथियार रखने की कोई जरूरत ही नहीं।

आप पूछ सकते हैं कि क्या हिंसा गलत है? यह सही और गलत का सवाल नहीं है। यह जीवन को चलाने का एक बेहद असभ्य तरीका है। कई बार दुर्भाग्य से कुछ खास परिस्थितियों में ऐसा करना जरूरी हो सकता है। आज से पांच सौ साल पहले आप में से हर कोई हर वक्त हिंसा के लिए तैयार रहता था। धीरे धीरे आधुनिक समाज हिंसा से बाहर आया। मैं यह नहीं कहता कि इस धरती पर अब हिंसा नहीं रही, लेकिन पांच सौ साल पहले के समाज की तुलना में हिंसा में बहुत ज्यादा कमी आई है।

हिंसा दूसरे तरीकों से बाहर आ रही है

दरअसल, आज हम अपने हिंसक रवैये को दूसरे तरीकों से बाहर निकाल रहे हैं। हम जिस तरीके से गाड़ी चलाते हैं, जिस तरीके से वीडियो गेम खेलते हैं - उसमें हम बिना किसी को हकीकत में मारे पूरी दुनिया को मार डालते हैं।

ध्यान का अभ्यास करने के साथ-साथ आप पूरी जागरूकता के साथ अपनी शारीरिक गतिविधियों को भी निर्मल बना सकते हैं।
लोगों के मन में जब कभी भी ऐसे हिंसक ख्याल आते हैं तो वे ऐसे ही किसी तरीके से उनसे उबर जाते हैं। तलवारों और भालों की लड़ाई आज खेल के मैदानों तक जा पहुंची है, जहां हम बॉल और बैट की मदद से या ऐसी ही दूसरी चीजों से एक दूसरे को जीतने की कोशिश करते हैं। इसका मतलब है कि हमारे क्रियाकलाप अब पहले से ज्यादा सुसंस्कृत हो रहे हैं, लेकिन उनमें प्रचंडता बनी हुई है। फुटबॉल का मैच भी इतना ही प्रचंड होता है जितना कोई युद्ध, लेकिन अच्छी बात यह है कि इसके अंत में किसी की जान नहीं जाती।

अगर आप कहते हैं कि हिंसा बुरी बात है तो इसका मतलब है कि आप खुद के एक हिस्से को नकार रहे हैं। आप इससे कभी निजात नहीं पा सकते, क्योंकि यह आपको छोड़ेगा नहीं। यह अलग-अलग तरीकों से आपके भीतर आएगा। बाहर जो लोग शांत हैं, वे घर में हिंसक होते हैं। अगर वे शारीरिक हिंसा कर पाने में अक्षम हैं तो वे शब्दों के जरिये हिंसा करेंगे। वे अपने विचारों और भावों में और कई दूसरे तरीकों से हिंसक होते हैं। तो हिंसा को नकारने से बात नहीं बनेगी। हिंसा इंसान के भीतर की जरूरत है। दरअसल जरूरत हिंसा की नहीं है, जरूरत है तीव्रता की। हिंसा उस तीव्रता को पैदा कर देती है। अगर आपकी किसी के साथ भिड़ंत हो जाए तो आपको लगेगा कि वे पल आपके जीवन के सबसे ज्यादा प्रबल और तीव्र पल थे।

हर किसी के अन्दर तीव्रता की जरुरत है

तीव्रता की यह जरूरत हर इंसान में हमेशा मौजूद है। तीव्रता की इस जरूरत को अगर आप निर्मल नहीं बनाते हैं और ध्यान, भक्ति और प्रेम जैसे दूसरे तरीकों से हिंसा के इन भावों को संभालने की कोशिश नहीं करते तो हिंसा कई तरीकों से आपके भीतर से फूटेगी। हो सकता है आपके भीतर शारीरिक हिंसा करने की क्षमता न हो लेकिन यह हिंसा अलग अलग तरीकों से बाहर आएगी और आपकी जिंदगी को नरक बना देगी। यह आपके जीवन के हर क्षेत्र में प्रवेश कर जाएगी और फिर जिस तरीके से आप चीजों को लेते या संभालते हैं, उससे आपको पता चलेगा कि आप सभ्य हैं या हिंसक।

एक बड़ी ही सुंदर घटना है। स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस जब महासमाधि में चले गए तो वह उनके संदेशों का प्रसार पश्चिमी देशों में करना चाहते थे। लेकिन इसके लिए वह गुरु-पत्नी शारदा देवी की इजाजत लेना चाहते थे। इजाजत लेने जब विवेकानंद शारदा देवी के पास गए तो वह रसोई में कुछ बना रही थीं और अपने काम में पूरी तरह मशगूल थीं। बिना ऊपर देखे उन्होंने विवेकानंद की बात सुनी। विवेकानंद ने कहा - ‘मैं गुरुजी के संदेश को पश्चिमी देशों में फैलाना चाहता हूं। क्या मैं ऐसा कर सकता हूं?’ गुरु माता ने नजर उठाए बिना कहा - ‘नरेन क्या तुम वो चाकू उठाकर मुझे दे सकते हो?’ उन्होंने चाकू उठाया और उन्हें दे दिया। वह एक खास किस्म के शख्स थे और इसीलिए उन्होंने चाकू देने का काम भी एक खास तरीके से ही किया। गुरु माता ने चाकू लेकर एक तरफ रख दिया और बोलीं, ‘तुम जा सकते हो।’ विवेकानंद ने पूछा, ‘आपने मुझसे चाकू क्यों मांगा, जबकि आपको उसकी जरूरत ही नहीं थी। आपका तो सारा काम हो चुका था।’ मां ने कहा, ‘मैं यह देखना चाहती थी कि तुम चाकू को कैसे उठाकर दोगे। तुम अब जा सकते हो और जाकर गुरु के संदेश का प्रचार-प्रसार कर सकते हो।’

अपने शरीर की हरकतों और अपने शब्दों को कोमल बनाएं

तो यह है सुशीलता और सज्जनता। इसलिए नहीं कि कोई आपको देख रहा है, इसलिए नहीं कि आप पर नजर रखी जा रही है, बल्कि आपका हर कदम अपने आप ही पूरी सुशीलता और सज्जनता के साथ उठता है। आप इस धरती पर कैसे चलते हैं, आप यहां कैसे सांस लेते हैं, दूसरे लोगों को कैसे देखते हैं, इन सभी मामलों में आपको अपने कार्य करने के तरीकों को निखारना होगा, निर्मल बनाना होगा। अगर आप अपने कर्मों को इस तरीके से निर्मल बना लेते हैं तो हथियारों की जरूरत अपने आप खत्म हो जाएगी।

मैं साक्षी भाव रखने की बात नहीं कर रहा हूं कि आप हर काम के साक्षी बनें। मैं बात कर रहा हूं, अपने शारीरिक और शाब्दिक कर्मों को निर्मल और कोमल बनाने की। इससे धीरे-धीरे आपके भावनात्मक और मानसिक कर्म भी निर्मल होते जाएंगे। यह उतना ही आसान है जितना अपने पैरों-हाथों को हिलाना-डुलाना, लेकिन यह हो नहीं रहा है। कोई आश्रम में घूम रहा था। मैंने उसकी ओर देखा और कहा कि यह शख्स ईशा का नहीं है। मेरे कहने का मतलब यह था कि निश्चित रूप से वह शख्स ध्यान नहीं कर रहा था और यह बात उसके चलने के अंदाज से जाहिर हो रही थी।

किसी के भी जीवन में ऐसी निर्मलता तभी आती है, जब वह ध्यानमय हो जाता है या अपने शारीरिक कर्मों को कोमल बनाने की कोशिश करता है जिससे कि वह ध्यान की अवस्था की और बढ़ने लगे। दोनों तरफ से एक साथ शुरुआत करना बड़ी अच्छी बात है। ध्यान का अभ्यास करने के साथ-साथ आप पूरी जागरूकता के साथ अपनी शारीरिक गतिविधियों को भी निर्मल बना सकते हैं। शारीरिक गतिविधियां यानी जिस तरीके से आप अपने हाथ हिलाते हैं, जिस तरीके से आप अपना शरीर हिलाते हैं, जैसे आप सांस लेते हैं, जिस तरह से आप बोलते हैं। ध्यान रखें कि इसमें आडंबर करने की जरूरत नहीं है। इसमें सचेतन रहने की जरूरत है। अगर यह चीज आपके जीवन में प्रवेश कर गई तो ध्यानस्थ होने में आपका शरीर आपका सहयोग करने लगेगा।