भारत पर सैंकड़ों सालों तक विदेशी हमलावरों और अंग्रेजों ने हुकूमत की है। उनका उद्देश्य केवल हमला करके और लूटपाट मचा के वापस जाना नहीं था, बल्कि वे यहां के लोगों को पूरी तरह गुलाम बना कर अपनी सेवा में लगाना चाहते थे। ऐसा करने के लिए उन्होंने सबसे पहले यहां की संस्कृति और धर्म को तहस-नहस करना शुरू किया। लेकिन ऐसा करने में वे कभी भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाए, क्या है इसकी वजह..?

 

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तरुण तहलियानीः

आमतौर पर मैं बोलने से कभी घबराता नहीं, लेकिन आज मुझे थोड़ी सी घबराहट हो रही है। इसलिए मैं आप सबसे कहना चाहता हूं कि आप थोड़ा साथ दें। इनर इंजीनियरिंग प्रोग्राम में हिस्सा लेने के लिए मैं पिछली अप्रैल में आया था। उस वक्त सद्गुरु ने इसका आयोजन दिल्ली से बाहर किया था। मैंने यह वादा किया था कि मैं 40 दिनों की क्रिया लगातार करूंगा और उसके बाद यह तय करूंगा कि मुझे कैसा लग रहा है। दरअसल, मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि क्रिया से किस तरह की उम्मीद की जाए! मेरा विदेश आना जाना लगा रहता है। एक बार मैं म्यूनिख एयरपोर्ट पर एक प्रार्थना-कक्ष में था। लोग प्रार्थना कर रहे थे और मैं अपनी क्रिया कर रहा था। मुझे बिल्कुल अलग तरह का अहसास होने लगा। जीवन में तमाम तरह की बुरी लतों के बाद आखिरकार ऐसा पहली बार हो रहा था कि मुझे एक अच्छी लत लगी थी जिसने मुझे अपनी बाकी बुरी लतों से छुटकारा पाने में भी मदद की।

मैं दक्षिण मुंबई में पला बढ़ा हूं। हमारी पढ़ाई लिखाई बड़े अंग्रेजी स्कूलों में हुई। हिंदी को हमने हमेशा तिरस्कार भाव से देखा। संस्कृत हमें बेहद अधूरे तरीके से पढ़ाई गई। मैं अकसर अपने पिता से पूछता हूं कि आखिर हमारा पालन-पोषण इस तरह से क्यों हुआ? ऐसा क्यों है कि जब मैं किसी भारतीय संगीत कार्यक्रम में भाग लेता हूं तो मुझे कुछ समझ नहीं आता, जबकि लिंकन सेंटर में मैं कर्ट मसुर को सुनने जाया करता हूं और अच्छी तरह से जानता हूं कि बीथोवन के साथ क्या चल रहा है।

मेरा पालन पोषण कुछ इस तरह हुआ है कि मैं अपनी संस्कृति, अपनी जड़ों और तमाम दूसरी चीजों से कट गया। हालांकि हमें अच्छे माने जाने वाले स्कूलों में भेजा गया, जैसे दून स्कूल। हमें उस वक्त ऐसा लगता था जैसे हम किसी दूसरे देश के प्राणी हैं। 45 डिग्री की गर्मी में हमें गर्म मोजे पहनने पड़ते थे। हमें ऐसी चीजें गानी पड़तीं जो हमें समझ ही नहीं आती थीं। इसके बाद हमें यह सिखाया गया कि हमें अपना आंकलन इस आधार पर करना चाहिए कि दूसरों से हम कितने आगे हैं। अंदरूनी विकास की प्रक्रिया बहुत कम थी।

जब मैं फैशन डिजाइनिंग के क्षेत्र में आया, तो मुझे गांवों में जाना पड़ा। मैंने लखनऊ के कारीगरों के अलावा यहां-वहां, कई जगह के बुनकरों के साथ भी काम किया। इसके बाद मैं भारत को बिल्कुल अलग तरीके से देखने लगा। अहमदाबाद में मैं साराभाई लोगों से मिला जहां वे अपने घरों में नीचे बैठ थाली में खाते थे और हर तरफ भारत की जनजातीय कला नजर आती थी। डिजाइन के काम के चलते ही मैं पूरे देश की यात्रा करने लगा और इस तरह मुझे एक अलग ही दुनिया नजर आई। एक ऐसी दुनिया, जिसके बारे में मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। हम अपनी संस्कृति और समाज की आखिर किस महानता की बात करते हैं जबकि हम पश्चिम की नकल करने को इतने उतावले रहते हैं। हमारे शासक अपने पीछे जो कुछ छोड़ गए हैं, हम उसे गले लगा रहे हैं। हम अपनी चीजों को भी इस आधार पर आंकते हैं कि वो उनकी चीजों की बराबरी कर पा रही हैं या नहीं। लोग अगर सिर्फ अंग्रेजी बोलने लगें, तो वो खुद को बेहतर समझने लगते हैं। समानता को लेकर हमारी पूरी सोच भाषा पर आधारित है। एकसंस्कृति के तौर पर आखिर खुद के साथ हमने ऐसा क्यों कर लिया?

सद्‌गुरु:

हमें किसी देश पर विजय पाने और उसे उपनिवेश बनाने के बीच के अंतर को समझना होगा। विजय का मतलब होता है किसी को हरा देना और उसके सिर पर चढक़र बैठ जाना। उपनिवेश का अर्थ है- वहां के लोगों को अपने तौर तरीकों के अनुसार बदल लेना, जिससे लोग बिना यह सोचे कि वे किसी और की सेवा कर रहे हैं, आपकी सेवा करते रहें। जो चीजें हमारे देश की ताकत थीं, उनका अंग्रेजों ने भरपूर मजाक बनाया। मैकॉले ने संसद को जो पत्र लिखे हैं, उन्हें आप देखिए। उसने कहा-भारत में तीन ऐसी चीजें हैं, जिनके चलते उसे जीता नहीं जा सकता। पहली चीज है उसकी शिक्षा-व्यवस्था, दूसरी चीज है यहां की आध्यात्मिक प्रक्रियाएं और तीसरी चीज है यहां की पारिवारिक और सांस्कृतिक ताकत। अगर हम इन तीन चीजों को कमजोर नहीं कर पाए, तो हम इस धरती को कभी जीत नहीं पाएंगे, इसे कभी सही मायने में अपना उपनिवेश नहीं बना पाएंगे। दरअसल, अंग्रेज जहां भी गए, वहां उन्हें पूरी कामयाबी मिली। आप ऑस्ट्रेलिया चले जाइए, आपको वहां दूसरा इंग्लैंड नजर आएगा। ऐसे देशों की मूल संस्कृति केवल किताबों में या संग्रहालयों (म्यूजियम) में ही मिलेगी। अफ्रीका के तमाम हिस्सों में, दक्षिण अमेरिका में, उत्तरी अमेरिका में, हर जगह उन्हें पूरी कामयाबी मिली। हालांकि मैं और आप आज अंग्रेजी बोल रहे हैं, लेकिन सच यही है कि हमारे देश में कामयाबी उन्हें पूरे तौर पर कभी नहीं मिल सकी। दरअसल, इसकी वजह थी हमारी आध्यात्मिक प्रक्रिया, हमारे आध्यात्मिक मूल्य बेहद शक्तिशाली रहे हैं।

मुस्लिम शासकों के हमलों के दौरान भी ऐसा ही हुआ। अबू सैयद मुहम्मद जब यहां आया तो उसके साथ उसके कुछ विद्वान भी आए। इनमें से एक था अल-बरूनी, जिसे उसने बंदी बनाया था। अल-बरूनी एक महान गणितज्ञ, वैज्ञानिक और एक अच्छा इंसान था, लेकिन वह एक पक्का मुसलमान था। यहां की संस्कृति को देखकर वह चकित रह गया। यहां के लोगों की संस्कृति और विचार के स्तर को देखकर वह यकीन नहीं कर पा रहा था। हर चीज को देखने का जो लोगों का नजरिया था, उसे देखकर वह हैरान था।

प्राचीन काल में एक नालंदा विश्वविद्यालय था, जो पूरी तरह से बौद्ध शिक्षा के लिए समर्पित था। अगर नालंदा विश्वविद्यालय की तुलना आप आज के आधुनिक विश्वविद्यालयों से करेंगे तब भी यह आपको असाधारण ही लगेगा। आक्रमणकारियों ने उस विश्वविद्यालय की सारी किताबों में आग लगा दी। कहा जाता है कि किताबें इतनी अधिक थीं कि तीन महीनों तक जलती रहीं। लेकिन फिर उन्हें पता चला कि वहां तीन हजार से भी ज्यादा ऐसे बौद्ध-भिक्षुक थे, जिन्हें किताबें जबानी याद थीं और वे उन्हें सुना सकते थे। इसलिए उन्होंने उन तीन हजार भिक्षुकों को भी जला दिया। जब उन्होंने किताबों और भिक्षुकों दोनों को जला कर खत्म कर दिया तो बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो गया।

लेकिन जीने की जो हिंदू पद्धति थी, उसे खत्म करने का बस एक ही तरीका था। दरअसल, यह कोई धर्म नहीं था। इसमें कोई एक मत या एक आध्यात्मिक प्रक्रिया नहीं थी, बल्कि यह तो आध्यात्मिक प्रक्रियाओं का एक ऐसा महल था, जिसमें लाखों दरवाजे थे। इसे खत्म करने का बस एक ही तरीका था कि आप इस देश में रह रहे हर इंसान को मार दें। क्योंकि यहां पोप जैसा कोई एक पद नहीं था, कोई एक ऐसी जगह नहीं थी जहां कि सारा ज्ञान केंद्रित हो। ज्ञान तो हर तरफ बिखरा हुआ था। यही वजह है कि भारत का कुछ अंश अब भी बाकी बचा हुआ है, वर्ना 250 से 300 साल का समय किसी भी देश के लोगों को वश में करने और उन्हें पूरी तरहसे बदल देने के लिए काफी होता है। आठ से दस पीढिय़ों में सब कुछ खत्म किया जा सकता है। केवल एक ही जगह ऐसी रही, जहां वे लोग कामयाब नहीं हो सके और वह था भारत। यह बात और है कि आज आप थोड़े बहुत साहब हो गए हैं। वैसे अब आप वापस अपने रास्ते पर लौट रहे हैं।

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