सद्‌गुरुभारत ने करीब 1100 वर्षों तक विदेशी आक्रमणों को झेला, और इस देश के भीतर भी हज़ारों सालों तक कई सारी अलग-अलग राजनीतिक सत्ताएँ थीं। फिर ऐसा क्या है, कि भारत को हमेशा से यहां के निवासियों ने और विदेशियों ने एक अखंड राष्ट्र के रूप में जाना?


सद्‌गुरु : हज़ारों वर्षों से, भारत उप-महाद्वीप में, असंख्य राजनीतिक सत्ताएँ होने के बावजूद, हम हमेशा इस धरती पर तथा शेष संसार में, एक राष्ट्र के तौर पर ही जाने गए। अनूठे आध्यात्मिक व सांस्कृतिक स्वभाव की वजह से ही ऐसा संभव हो सका। राष्ट्रों को जाति, धर्म, भाषा व नस्लों के आधार पर ही बनाया व एक रखा जाता है। हम सब इनका और इनसे भी कहीं ज़्यादा का रंग-बिरंगा मेल हैं। राष्ट्र के निर्माण में समानता का सूत्र अपनाया जाता है, परंतु भारत इस साधारण नियम को चुनौती देता है। यह संस्कृति ग्रह की सबसे रंगीन और जटिल संस्कृति है। लोगों की छवि, उनकी भाषा, उनका भोजन, उनका पहनावा, उनका गीत व नृत्य - इस देश में हर पचास या सौ किलोमीटर के बाद सब कुछ बदल जाता है।

यहाँ तक कि आज भी, हमने उस मूल सांस्कृतिक व आध्यात्मिक सूत्र को खोया नहीं है, जो इस विविध जनसंख्या को हज़ारों सालों से एक सूत्र में पिरोता आया है।

कुछ साल पहले, वल्र्ड इकनोमिक फोरम में कांफेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री द्वारा, ‘इंडिया एवरीवेयर’ यानि भारत हर ओर, नामक अभियान चलाया गया था। वह बात सच ही है! इंडिया एवरीवेयर! यह किसी एक जगह, किसी एक नियम या विचारधारा का नाम नहीं है।
क़रीबन ग्यारह सौ सालों से भी अधिक समय तक, किसी न किसी आक्रमण के अधीन रहने पर भी, अपार जनसंख्या ने अपनी मूल जड़ों को जीवित रखा। उन्होंने केवल इन जड़ों को संजोया नहीं, बल्कि पूरी तरह से जीवंत रखा। इन लोगों के बीच कुछ निश्चित प्रकार का लोकाचार, चेतना और जागरूकता बनी रही, जिसे कहीं और नहीं पाया जा सकता। आप इसे व्यक्तिगत रूप से तो पा सकते हैं, परंतु अपार जनसमूह के भीतर, सामूहिक तौर पर ऐसी चेतना देखने को नहीं मिलती। दुनिया के किसी भी हिस्से में जीवन के अनेक पहलुओं के लिए, जनसमूह में अवचेतन जागरूकता का ऐसा भाव नहीं मिलता।

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भारत : एक ऐसा रूप, जो कहीं और नहीं

इस देश का हर पहलू और इसका निर्माण, अपनी पहचान और प्रक्रिया में अनूठा रहा है। यहाँ तक कि जब हम अंग्रेज़ों को बाहर निकालने में सफल रहे, तो यह भी एक अनूठे तरीके़ से हुआ - जिसके लिए महात्मा गांधी को धन्यवाद देना होगा। साम्राज्यवादी ताकत के मोर्चाबंद प्रशासन को किसी भी सशस्त्र विद्रोह के बिना देश से बाहर निकाला गया।

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इसके अलावा, 1947 में, देश को आजादी मिलने से पहले, अंग्रेज़ों को दूसरे विश्व युद्ध की मार झेलनी पड़ी, जो उनके अपने अस्तित्व और संस्कृति पर करारी चोट थी। इस दौरान, और पहले विश्व युद्ध के दौरान भी, सैंकड़ों-हज़ारों भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज़ों की ओर से युद्ध किया। उसी समय, हम देश की सड़कों पर, अपनी आजादी के लिए शांतिपूर्ण तरीके़ से लड़ रहे थे।

कई तरह से, हम दोराहे पर हैं। पर हम तो हमेशा से ही दोराहे पर रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है। हम मुख्य मार्ग से जाने में विश्वास नहीं रखते। हम सारे रास्तों से जाने में विश्वास रखते हैं।
ऐसा दृश्य तो कहीं नहीं देखा गया - कि आप दुश्मन के खि़लाफ़ अपने ही देश में विद्रोह कर रहे हों, पर इसके साथ ही, कहीं दूसरी जगह पर, उसके साथ देते हुए लड़ रहे हों। हम भी दीवाने हैं, पर यही दीवानगी तो हमें अनूठा बनाती है। हमने हमेशा अपने सुख या कल्याण से पहले, उसे मंज़ूर किया, जो सही था। दुनिया में हर किसी को यह मूर्खता लगती थी पर कोई नहीं जानता था कि इससे कैसे निबटा जाए।

यहाँ तक कि आज भी यही सच है। यह एक ऐसा देश है, जिसकी विशाल जनसंख्या वह सब कुछ छोड़ सकती है, जिसकी आमतौर पर एक इंसान को चाहना होती है। यहां लोग परम लक्ष्य को पाने के लिए अपने सारे जीवन के सुख, आनंद और अधिकारों को छोड़ सकते हैं। इसी आध्यात्मिक स्वभाव के चलते, हमारी आजादी की लड़ाई भी अनूठी रही, बाद में अनेक देशों ने हमारा अनुकरण करने का प्रयत्न किया।

एक वन्य जीवन!

यह पहेली, जिसे हम भारत कहते हैं, यह बहुत ही जीवंत और सजग रूप से उलझी हुई है। सब कुछ ग़लत दिखता है, पर फिर भी सब कुछ संभल जाता है! हमारा बगीचा सँवरा हुआ नहीं है। हम एक वन की तरह हैं। हमारे अस्तित्व के इसी आर्गेनिक यानी जीवंत स्वभाव के चलते, पिछली सहस्राब्दी में आने वाले आक्रमणकारी यह नहीं समझ सके कि वे हमसे कैसे निपटें। वे यह पता नहीं लगा सके कि वे हमारी पहचान मिटाने के लिए, हमारे भीतर से क्या नष्ट कर सकते थे। क्योंकि यह कोई एक चीज़ नहीं है; यह बहुत उलझा हुआ मामला है। ये सबसे जटिल और उलझी हुई शानदार चीज़ है, जो मनुष्य ने आज तक बनाई है। क्योंकि इससे मानवता का अलग ही आयाम उपजता है। बस हमें नतीजे पैदा करने के लिए इसे अपने बस में करना होगा।

भारतीय संस्कृति : उलझी हुई पर व्यवस्थित है

अपनी सारी अव्यवस्था के बावजूद, यह संस्कृति कहीं गहराई में बहुत व्यवस्थित है। यह बहुत ही व्यवस्थित रूप में काम करती थी। आज भी पूरे देश में पूरी तरह से अराजक नहीं है, क्योंकि यहाँ उसी गहन सांस्कृतिक संगठन का प्रभाव है। सतह पर उभरे परेशानियों के बावजूद, कुछ न कुछ तो गहराई में है, जिसने सबको एक साथ बाँध रखा है। मैं इसे सरकार, कानून या इंफ्रास्ट्रक्चर की देन नहीं मानता। कहीं न कहीं, कुछ ऐसा है, जिसकी वजह से सब कुछ सही तरह से चलता रहता है। हमें बहुत व्यवस्थित रूप में चीज़ें उथल-पुथल करना आता है।

इस दौरान, और पहले विश्व युद्ध के दौरान भी, सैंकड़ों-हज़ारों भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज़ों की ओर से युद्ध किया। उसी समय, हम देश की सड़कों पर, अपनी आजादी के लिए शांतिपूर्ण तरीके़ से लड़ रहे थे।
तभी तो यह देश ऐसा है। जो लोग व्यवस्थित रूप से सोचते हैं, वे अव्यवस्था में मौजूद संभावना को नहीं समझ सकते। सँवरे हुए बगीचे की देन को वन तो अव्यवस्थित ही लगेगा। एक बाग को लगातार सँवारना पड़ता है। अगर आप इसे कुछ महीने नहीं सँवारेगें तो यह हाथ से निकल जाएगा। पर वन तो लाखों सालों से वन ही है, और वह इसी तरह रहेगा। यह उसी जटिलता की ताकत है, जो उसके आसपास उगती है। अगर आप इसी जटिलता या उलझन से परेशान होंगे, तो आप इसे सुलझाना चाहेंगे। अगर आप इसे सरल करेंगे, तो आप ऐसे मूर्ख पैदा करेंगे, जिन्हें जीने के लिए प्रयोगशाला जैसे माहौल की ज़रूरत होगी। आज, हमने इसी तरह के लोग और समाज पैदा कर दिए हैं - अगर वे साँस लेंगे, तो वे मर जाएँगे। उन्हें अपने आसपास के वातावरण से नहीं बल्कि सिलेंडर की मदद से साँस लेनी पड़ती है। यह मनुष्य के अस्तित्व के ढाँचे को ज़रूरत से ज़्यादा जटिल बनाने की वजह से हुआ है।

आज भारत में थोड़ी व्यवस्था लाने की जरूरत है

मैं उस अव्यवस्था की बड़ाई नहीं कर रहा, जिसे इस देश में से हटाना ज़रूरी है। हमारी संस्कृति की खू़बसूरती इसी में है कि यह असंगठित है, पर अगर आप इस असंठन या अव्यवस्था में तालमेल नहीं देख पाते, तो एक बेसुरा मन, शरीर और सामाजिक अवस्था, मनुष्य से उसकी सारी संभावनाएँ छीन सकते हैं। पर एक बुनियादी ढाँचा है, जिसे कभी नष्ट नहीं होना चाहिए। यह ढांचा उलझा हुआ और अव्यवस्थित दिखता है, पर अगर आपके पास देखने का एक अलग नज़रिया होगा, तो ये उस रूप में नहीं दिखेगा।

इस दौरान, और पहले विश्व युद्ध के दौरान भी, सैंकड़ों-हज़ारों भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज़ों की ओर से युद्ध किया। उसी समय, हम देश की सड़कों पर, अपनी आजादी के लिए शांतिपूर्ण तरीके़ से लड़ रहे थे।
इस संस्कृति में आध्यात्मिक पथ पूरी तरह से अव्यवस्थित दिखाई देते हैं, क्योंकि वे किसी का भी दमन नहीं करना चाहते। इस समय हमारे देश में बहुत अधिक अव्यवस्थित होने के लिए स्थान मौजूद नहीं है। अगर एक वर्ग किलोमीटर में एक व्यक्ति भी हो, तो आप पूरी तरह से अव्यवस्थित हो सकते थे। आप अलग तरह से बर्ताव कर सकते थे। पर जब इतने ज़्यादा लोग हों, तो आपको हर कदम सोच-समझ कर उठाना पड़ता हैं। हमारे आसपास जैसी जगह और लोग मौजूद हैं, मुझे लगता है कि थोड़ी सी व्यवस्था लाने की कोशिश, जीवन को संतुलित बनाएगी। क्योंकि अगर आप जीवन को पूरे आवेग से घटने देंगे, तो चीज़ें ध्वस्त होने लगेंगी।

उचित संतुलन साधें

ये देश और यहां के देशवासी अपनी क्षमता से बहुत पीछे चल रहे हैं। जब कभी मैं यात्रा पर निकलता हूँ, तो मैं जिस तरह के लोगों से भेंट करता हूँ, जिनमें उच्च-स्तरीय वैज्ञानिक, शिक्षाविद्, तथा जाने-माने विश्वविद्यालयों के छात्र शामिल हैं, तो मुझे लगता है कि हमारे देशवासियों जैसे तेज़ दिमाग और हुनरमंद लोग पूरी दुनिया में नहीं हैं। उनकी अक्लमंदी का स्तर तो बहुत ऊँचा है पर उनके पास उसे प्रयोग में लाने की क्षमता बहुत कम है क्योंकि वे अव्यवस्थित रवैए और हालात के बीच हैं। तो एक एक संतुलन साधना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसा संतुलन जिसमें - जीवन को उचित रूप से घटने देने के लिए स्वतन्त्रता दी जाए, और इसके साथ ही वह इतनी व्यवस्थित भी हो कि आप भीतर छिपी बुनियादी मानवीय क्षमता को नष्ट न करें।

भारत हर ओर

आज, शेष जगत, इस देश को ग्रह की सबसे बड़ी आर्थिक संभावना के तौर पर देख रहा है। आशा करता हूँ कि हम उन्हें निराश नहीं करेंगे। हम दुनिया की इस अपेक्षा का कितना अच्छी तरह उत्तर दे पाते हैं, यह हम पर ही निर्भर करता है। कि हम कैसा आकार लेते हैं, और अपनी इस अव्यवस्था से कैसे आनंद उठाते हैं, और कैसे इसका इस्तेमाल भी करते हैं। कई तरह से, हम दोराहे पर हैं।

यह पहेली, जिसे हम भारत कहते हैं, यह बहुत ही जीवंत और सजग रूप से उलझी हुई है। सब कुछ ग़लत दिखता है, पर फिर भी सब कुछ संभल जाता है! हमारा बगीचा सँवरा हुआ नहीं है।
पर हम तो हमेशा से ही दोराहे पर रहे हैं। यह कोई नई बात नहीं है। हम मुख्य मार्ग से जाने में विश्वास नहीं रखते। हम सारे रास्तों से जाने में विश्वास रखते हैं। अगर हममें से दस लोग, सामने दिखाई दे रहे मोड़ों के पास हों, और अगर वहाँ से आगे दस रास्ते जाते दिखें, तो हम सभी अलग-अलग राह से जाएँगे। देख कर ऐसा लग सकता है, कि हम कहीं नहीं जा रहे जबकि यह सच नहीं है।

कुछ साल पहले, वल्र्ड इकनोमिक फोरम में कांफेडरेशन ऑफ़ इंडियन इंडस्ट्री द्वारा, ‘इंडिया एवरीवेयर’ यानि भारत हर ओर, नामक अभियान चलाया गया था। वह बात सच ही है! इंडिया एवरीवेयर! यह किसी एक जगह, किसी एक नियम या विचारधारा का नाम नहीं है। यह चारों ओर है क्योंकि यह कु़दरत की तरह है। इसे आप थोड़े समय में नहीं रच सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने अस्तित्व के कुछ हज़ार सालों की अविध में ऐसी आर्गेनिक यानी जीवंत और उलझी हुई अव्यवस्था पाई है। यह उनके लिए अव्यवस्था या अराजकता है, जो इसे सादी मानसिकता के साथ देखते हैं। अन्यथा यह एक असीम संभावना है। हम इसे यूँ ही अव्यवस्थित छोड़ दें, या इसे असीम संभावना में बदलना चाहें - अब यही सवाल हमारे सामने है।