सद्‌गुरुअस्तित्व को समझने के लिए विज्ञान पूरे जोर-शोर से कोशिशें करता रहा है। लेकिन हमारे देखने, सुनने स्पर्श करने की शक्तियां और यहां तक मन भी सिर्फ भौतिक चीज़ों को ही समझ सकते हैं। हमारे द्वारा बनाया गया कोई भी उपकरण भी सिर्फ भौतिक चीज़ों को समझ सकता है। तो फिर वह जो भौतिक से परे है, उसकी प्रकृति क्या है?

अगर आप भौतिकता से थोड़ा आगे जाएं, तो सब कुछ शून्य हो जाता है। शून्य का अर्थ है पूर्ण खालीपन, एक ऐसी स्थिति जहां भौतिक कुछ भी नहीं है। जहां भौतिक कुछ है ही नहीं, वहां आपकी ज्ञानेंद्रियां भी बेकाम की हो जाती हैं। अगर आप शून्य से परे जाएं, तो आपको जो मिलेगा, उसे हम शिव के रूप में जानते हैं। शिव का अर्थ है, जो नहीं है। जो नहीं है, उस तक अगर पहुंच पाएंगे, तो आप देखेंगे कि इसकी प्रकृति भौतिक नहीं है। इसका मतलब है इसका अस्तित्व नहीं है, पर यह धुंधला है, अपारदर्शी है। ऐसा कैसे हो सकता है?  यह आपके तार्किक दिमाग के दायरे में नहीं है। आधुनिक विज्ञान मानता है कि इस पूरी रचना को इंसान के तर्कों  पर खरा उतरना होगा, लेकिन जीवन को देखने का यह बेहद सीमित तरीका है। संपूर्ण सृष्टि मानव बुद्धि के तर्कों पर कभी खरी नहीं उतरेगी। आपका दिमाग इस सृष्टि में फिट हो सकता है, यह सृष्टि आपके दिमाग में कभी फिट नहीं हो सकती। तर्क इस अस्तित्व के केवल उन पहलुओं का विश्लेषण कर सकते हैं, जो भौतिक हैं। एक बार अगर आपने भौतिक पहलुओं को पार कर लिया, तो आपके तर्क पूरी तरह से उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर होंगे।

योगिक विद्या में विज्ञान को कहानियों के रूप में प्रकट किया गया है। लेकिन हमें हमेशा यह बताया गया है कि हमें किसी विद्या पर तब तक यकीन नहीं करना चाहिए, जब तक हम खुद उसका अनुभव न कर लें। एक बार जब मैंने कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों को अपने आंतरिक अनुभव के आधार पर इस अस्तित्व की प्रकृति के बारे में बताया, तो उन्होंने कहा - सद्‌गुरु, आप जो कह रहे हैं, अगर आप उसकी गणितीय व्याख्या कर दें, तो आपके इस विचार को नोबेल पुरस्कार तक दिया जा सकता है। मैं इसके लिए कोई गणितीय समीकरण नहीं लिखना चाहता, लेकिन मेरे लिए यह सत्य है और मैं जो भी हूं, इसने मुझे पूरी तरह से रूपांतरित करके रख दिया है। जो कुछ भी मैं था, वह सब कुछ बदल गया, जब मैंने अपने भीतर उस आयाम को स्पर्श किया। यह सिद्धांत बिल्कुल सही है और हमने अपने भीतर साबित किया है कि यह सत्य है। जिस चीज को साबित करने के लिए वैज्ञानिकों ने खरबों डॉलर के यंत्र बनाए, उसी चीज को आपके भीतर आपके अपने अनुभवों में साबित किया जा सकता है, बशर्ते आप इस जीवन की गहराई में उतरने को इच्छुक हों। अगर आप गहराई से देखें तो आप पाएंगे कि इस ब्रह्मांड की हर चीज के बारे में अनुमान के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया है। यहां तक कि विज्ञान भी अनुमान के आधार पर ही निष्कर्ष निकाल रहा है।

भौतिक से परे होने के कारण शून्य तत्व को सीधे तौर पर दर्शाया नहीं जा सकता। यही कारण है कि योगिक विज्ञान ने हमेशा कहानियों के माध्यम से इसकी ओर इंगित किया है। शिव और शक्ति का  मेल, आभूषणों और अलंकारों से सजा शिव का रूप इसी शून्य की ओर  संकेत करते हैं। हमें सद्‌गुरु बता रहे हैं शिव के रूप और उनके महामंत्र ॐ नम: शिवाय के बारे में...

शिव और शक्ति की क्रीड़ा

योगिक विज्ञान में  भगवान शिव को रूद्र कहा जाता है। रूद्र का अर्थ है वह जो रौद्र या भयंकर रूप में हो। शिव को सृष्टि -कर्ता भी कहा जाता है। आइये जानते हैं कि कैसे शिव के इन्हीं दोनों पक्षों के मेल को ही विज्ञान बिग-बैंग का नाम दे रहा है।

आपको पता है आजकल वैज्ञानिक कह रहे हैं कि हर चीज डार्क मैटर से आती है साथ ही उन्होंने डार्क एनर्जी के बारे में भी बात करना शुरू कर दिया है। योग में हमारे पास दोनों मौजूद हैं - डार्क मैटर भी और डार्क एनर्जी भी। यहां शिव को काला माना गया है यानी डार्क मैटर और शक्ति का प्रथम रूप या डार्क एनर्जी को काली कहा जाता है।

हाल ही में स्कॉटिश यूनिवर्सिटी के कुछ वैज्ञानिक कह रहे थे कि डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बीच एक तरह का लिंक है। उन्हें लगता था कि ये चीजें अलग-अलग हैं। अब वे कह रहे हैं कि वे एक दूसरे से जुड़ी हैं।

अब मैं आपको बताता हूं कि योग कैसे सृष्टि को भीतर से समझाता है। यह एक तार्किक संस्कृति है। अगर आप चाहें तो मैं आपको इसके बारे में सारी जानकारी दे सकता हूं, लेकिन छोडि़ए, बस इस संस्कृति का आनंद लीजिए।

इसकी शब्दावली की अपनी एक खास पहचान है, क्योंकि यह एक ऐसे पहलू के बारे में बात कर रही है जो हमारी तार्किक समझ के दायरे में नहीं है। लेकिन इसे तार्किक ढंग से बताना ज्यादा अच्छा है। तो कहानी कुछ इस तरह है – शिव सो रहे हैं। जब हम यहां शिव कहते हैं तो हम किसी व्यक्ति या उस योगी के बारे में बात नहीं कर रहे हैं, यहां शि-व का मतलब है “वह जो है ही नहीं”। जो है ही नहीं, वह सिर्फ सो सकता है। इसलिए शिव को हमेशा ही डार्क बताया गया है।

शिव सो रहे हैं और शक्ति उन्हें देखने आती हैं। वह उन्हें जगाने आई हैं क्योंकि वह उनके साथ नृत्य करना चाहती हैं, उनके साथ खेलना चाहती हैं और उन्हें रिझाना चाहती हैं। शुरू में वह नहीं जागते, लेकिन थोड़ी देर में उठ जाते हैं। मान लीजिए कि कोई गहरी नींद में है और आप उसे उठाते हैं तो उसे थोड़ा गुस्सा तो आएगा ही, बेशक उठाने वाला कितना ही सुंदर क्यों न हो। अत: शिव भी गुस्से में गरजे और तेजी से उठकर खड़े हो गए। उनके ऐसा करने के कारण ही उनका पहला रूप और पहला नाम रुद्र पड़ गया। रुद्र शब्द का अर्थ होता है – दहाडऩे वाला, गरजने वाला।

भगवान श्री अर्धनारीश्वर भगवान श्री अर्धनारीश्वर

मैंने एक वैज्ञानिक से बिग बैंग के धमाकों के बारे में पूछा – अगर कई धमाकें हों, तो क्या वह एक गर्जना जैसी नहीं होगी? अगर धमाकों की एक श्रृंखला बन जाए तो वह ऐसे ही होगा, जैसे किसी इंजन की आवाज हो। मैंने फिर पूछा – क्या केवल एक ही धमाका था या यह लगातार होने वाली प्रक्रिया थी? वह कुछ सोचकर बोला – यह एक धमाका नहीं हो सकता, यह धमाका एक पल से ज्यादा लंबा चला होगा। फिर मैंने पूछा – तो आप इसे धमाका क्यों कह रहे हैं? क्या यह एक गर्जना जैसा नहीं है? जैसे कि शिव हुंकार भरकर खड़े हो गए हों।

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योग का जन्म

आज जिस भी चीज़ को हम योग के नाम से जानते हैं, उसकी शुरुआत कई सालों पहले भगवान शिव द्वारा की गयी थी। वैज्ञानिक तथ्य भी यह बताते हैं कि करीब पचास हज़ार साल पहले मानव चेतना में एक जबरदस्त उछाल आया था।

आधुनिक मानवशास्त्र और विज्ञान के मुताबिक आज से करीब पचास हजार साल और सत्तर हजार साल पहले के बीच कहीं कुछ घटित हुआ। इन बीस हजार सालों के दौरान कुछ ऐसा हुआ, जिसने अचानक मानव जाति में बुद्धि को एक अलग स्तर तक पहुंचा दिया। इंसानों में बुद्धि और चेतना का अचानक विस्फोट सा हुआ, जो सामान्य विकास के क्रम में नहीं है। उस समय कुछ ऐसी प्रेरक घटनाएं हुईं जिसने उस समय के मानव की बुद्धि और चेतनता के विकास को एकदम से तीव्र कर दिया। योगिक परंपरा के मुताबिक यही वो समय था जब हिमालय क्षेत्र में योगिक प्रक्रिया की शुरुआत हुई थी।

आदियोगी ने अपने सात शिष्यों यानी सप्तऋषियों के साथ दक्षिण का रुख किया। उन्होंने जीवन-तंत्र की खोज करनी शुरू कर दी, जिसे आज हम योग कहते हैं। मानवता के इतिहास में पहली बार किसी ने इस संभावना को खोला कि अगर आप इसके लिए कोशिश करने को इच्छुक हैं, तो आप अपनी पूरी चेतना में अपनी वर्तमान अवस्था से दूसरी अवस्था में विकसित हो सकते हैं। आदियोगी ने बताया कि आपका जो वर्तमान ढांचा है, यही आपकी सीमा नहीं है। आप इस ढांचे को पार कर सकते हैं और जीवन के एक पूरी तरह से अलग पहलू की ओर बढ़ सकते हैं।

एक ऋषि दक्षिण अमेरिका तो एक दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में चले गए। एक शिष्य ने कभी अपना मुंह नहीं खोला और न ही कोई उपदेश दिया, लेकिन उनकी मौजूदगी ने बड़े-बड़े काम किए।

उस ज्ञान के प्रसार के लिए इन सात लोगों को भेजा गया। योगिक कथाओं में कई तरह से इसका वर्णन है।

भगवान शिव के अलंकार

हमारी परंपरा में भगवान शिव को कई सारी वस्तुओं से सजा हुआ दिखाया जाता है। उनके माथे पर तीसरी आंख, उनका वाहन नंदी, और उनका त्रिशूल इसके उदाहरण हैं। क्या सच में शिव के माथे पर एक और आंख है? और क्या वे हमेशा नंदी और त्रिशूल को अपने साथ रखते हैं? या फिर इन्हें चिन्हों की तरह इस्तेमाल करके हमें कुछ और समझाने की कोशिश की गई है? आइये जानते हैं ।

शिव की तीसरी आंख

शिव को हमेशा त्रयंबक कहा गया है, क्योंकि उनकी एक तीसरी आंख है। तीसरी आंख का मतलब यह नहीं है कि किसी के माथे में दरार पड़ी और वहां कुछ निकल आया! इसका मतल‍ब सिर्फ यह है कि बोध या अनुभव का एक दूसरा आयाम खुल गया है। दो आंखें सिर्फ भौतिक चीजों को देख सकती हैं। अगर मैं अपना हाथ उन पर रख लूं, तो वे उसके परे नहीं देख पाएंगी। उनकी सीमा यही है। अगर तीसरी आंख खुल जाती है, तो इसका मतलब है कि बोध का एक दूसरा आयाम खुल जाता है जो कि भीतर की ओर देख सकता है। इस बोध से आप जीवन को बिल्कुल अलग ढंग से देख सकते हैं। इसके बाद दुनिया में जितनी चीजों का अनुभव किया जा सकता है, उनका अनुभव हो सकता है। आपके बोध के विकास के लिए सबसे अहम चीज यह है – कि आपकी ऊर्जा को विकसित होना होगा और अपना स्तर ऊंचा करना होगा। योग की सारी प्रक्रिया यही है कि आपकी ऊर्जा को इस तरीके से विकसित किया जाए और सुधारा जाए कि आपका बोध बढ़े और तीसरी आंख खुल जाए। तीसरी आंख दृष्टि की आंख है। दोनों भौतिक आंखें सिर्फ आपकी इंद्रियां हैं। वे मन में तरह-तरह की फालतू बातें भरती हैं क्योंकि आप जो देखते हैं, वह सच नहीं है। आप इस या उस व्यक्ति को देखकर उसके बारे में कुछ अंदाजा लगाते हैं, मगर आप उसके अंदर शिव को नहीं देख पाते। आप चीजों को इस तरह देखते हैं, जो आपके जीवित रहने के लिए जरूरी हैं। कोई दूसरा प्राणी उसे दूसरे तरीके से देखता है, जो उसके जीवित रहने के लिए जरूरी है। इसीलिए हम इस दुनिया को माया कहते हैं। माया का मतलब है कि यह एक तरह का धोखा है। इसका मतलब यह नहीं है कि अस्तित्व एक कल्पना है।

भगवान त्रिनेत्र, त्र्यम्बक और सोमशेखर के नामों से भी जानें जाते हैं भगवान त्रिनेत्र, त्र्यम्बक और सोमशेखर के नामों से भी जानें जाते हैं

चंद्रमा

शिव के कई नाम हैं। उनमें एक काफी प्रचलित नाम है सोम या सोमसुंदर। वैसे तो सोम का मतलब चंद्रमा होता है मगर सोम का असली अर्थ नशा होता है। नशा सिर्फ बाहरी पदार्थों से ही नहीं होता, बल्कि केवल अपने भीतर चल रही जीवन की प्रक्रिया में भी आप मदमस्त रह सकते हैं।

अगर आप जीवन के नशे में नहीं डूबे हैं, तो सिर्फ सुबह का उठना, अपने शरीर की जरूरतों को पूरा करना, खाना-पीना, रोजी-रोटी कमाना, आस-पास फैले दुश्मनों से खुद को बचाना और फिर हर रात सोने जाना, जैसी दैनिक क्रियाएं आपकी जिंदगी कष्टदायक बना सकती हैं। अभी ज्यादातर लोगों के साथ यही हो रहा है। जीवन की सरल प्रक्रिया उनके लिए नर्क बन गई है। ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे जीवन का नशा किए बिना उसे बस जीने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्रमा को सोम कहा गया है, यानि नशे का स्रोत।

अगर आप किसी चांदनी रात में किसी ऐसी जगह गए हों जहां बिजली की रोशनी नही हो, या आपने बस चंद्रमा की रोशनी की ओर ध्यान से देखा हो, तो धीरे-धीरे आपको सुरूर चढ़ने लगता है। क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया है? हम चंद्रमा की रोशनी के बिना भी ऐसा कर सकते हैं मगर चांदनी से ऐसा बहुत आसानी से हो जाता है। अपने इसी गुण के कारण चंद्रमा को नशे का स्रोत माना गया है। शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं क्योंकि वह एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं। फिर भी वह बहुत ही सजग होकर बैठते हैं। नशे का आनंद उठाने के लिए आपको सचेत होना ही चाहिए।

शिव का वाहन नंदी

नंदी अनंत प्रतीक्षा का प्रतीक है। भारतीय संस्कृति में इंतजार को सबसे बड़ा गुण माना गया है। जो बस चुपचाप बैठकर इंतजार करना जानता है, वह कुदरती तौर पर ध्यानमग्न हो सकता है। नंदी को ऐसी उम्मीद नहीं है कि शिव कल आ जाएंगे। वह किसी चीज का अंदाजा नहीं लगाता या उम्मीद नहीं करता। वह बस इंतजार करता है। वह हमेशा इंतजार करेगा। यह गुण ग्रहणशीलता का मूल तत्व है। नंदी शिव का सबसे करीबी साथी है क्योंकि उसमें ग्रहणशीलता का गुण है। किसी मंदिर में जाने के लिए आपके अंदर नंदी का गुण होना चाहिए। ताकि आप बस बैठ सकें। इस गुण के होने का मतलब है – आप स्वर्ग जाने की कोशिश नहीं करेंगे, आप यह या वह पाने की कोशिश नहीं करेंगे – आप बस वहां बैठेंगे। लोगों को हमेशा से यह गलतफहमी रही है कि ध्यान किसी तरह की क्रिया है। नहीं – यह एक गुण है। यही बुनियादी अंतर है। प्रार्थना का मतलब है कि आप भगवान से बात करने की कोशिश कर रहे हैं। ध्यान का मतलब है कि आप भगवान की बात सुनना चाहते हैं। आप बस अस्तित्व को, सृष्टि की परम प्रकृति को सुनना चाहते हैं। आपके पास कहने के लिए कुछ नहीं है, आप बस सुनते हैं। नंदी का गुण यही है, वह बस सजग होकर बैठा रहता है। यह बहुत अहम चीज है – वह सजग है, सुस्त नहीं है। वह आलसी की तरह नहीं बैठा है। वह पूरी तरह सक्रिय, पूरी सजगता से, जीवन से भरपूर बैठा है, ध्यान यही है।

 

तीन गुणों को दर्शाता भगवान शिव का त्रिशूल तीन गुणों को दर्शाता भगवान शिव का त्रिशूल

शिव का त्रिशूल

शिव का त्रिशूल जीवन के तीन मूल पहलुओं को दर्शाता है। योग परंपरा में उसे रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं, जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। उन्हें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना भी कहा जा सकता है। ये तीनों प्राणमय कोष यानि मानव तंत्र के ऊर्जा शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियां हैं – बाईं, दाहिनी और मध्य। नाड़ियां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। तीन मूलभूत नाड़ियों से 72,000 नाड़ियां निकलती हैं। इन नाड़ियों का कोई भौतिक रूप नहीं होता।  यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है। प्राण या ऊर्जा 72,000 विभिन्न रास्तों से होकर गुजरती है। इड़ा और पिंगला जीवन के बुनियादी द्वैत के प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू – तर्क-बुद्धि और सहज-ज्ञान हो सकते हैं।

 

सर्प

योग संस्कृति में, सर्प यानी सांप कुंडलिनी का प्रतीक है। यह आपके भीतर की वह उर्जा है जो फिलहाल इस्तेमाल नहीं हो रही है। कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो आपको पता भी नहीं चलता कि उसका कोई अस्तित्व है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी आपको महसूस होता है कि आपके अंदर इतनी शक्ति है। जब तक वह अपनी जगह से हिलती-डुलती नहीं, उसका अस्तित्व लगभग नहीं के बराबर होता है।

इस कारण सांप को कुंडलिनी के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, क्योंकि कुंडली मारे सांप को भी देखना बहुत मुश्किल होता है, जब तक कि वह आगे नहीं बढ़ता। इसी तरह, आप कुंडलिनी में कैद इस ऊर्जा को सिर्फ तब देख पाते हैं जब वह हिलती-डुलती है। शिव के साथ सांप को दिखाने की यही वजह है। यह दर्शाता है कि उनकी ऊर्जा शिखर तक पहुंच चुकी है।  आध्यात्मिकता या रहस्यवाद को सांपों से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि इस जीव में बोध का एक खास आयाम विकसित है। यह एक रेंगने वाला जीव है, जिसे जमीन पर रेंगना चाहिए मगर शिव ने उसे अपने सिर पर धारण किया है। इससे यह पता चलता है कि वह उनसे भी ऊपर है। यह दर्शाता है कि कुछ रूपों में सांप शिव से भी बेहतर हैं। सांप ऐसा जानवर है जो आपके सहज रहने पर आपके साथ बहुत आराम से रहता है।

ॐ नम: शिवाय

https://soundcloud.com/soundsofisha/aum-namah-shivaya-1-hr

“ॐ नम: शिवाय” वह मूल मंत्र है, जिसे कई सभ्यताओं में महामंत्र माना गया है। इस मंत्र का अभ्यास विभिन्न आयामों में किया जा सकता है। इन्हें पंचाक्षर कहा गया है, इसमें पांच मंत्र हैं। ये पंचाक्षर प्रकृति में मौजूद पांच तत्वों के प्रतीक हैं और शरीर के पांच मुख्य केंद्रों के भी प्रतीक हैं। इन पंचाक्षरों से इन पांच केंद्रों को जाग्रत किया जा सकता है। ये पूरे तंत्र (सिस्टम) के शुद्धीकरण के लिए बहुत शक्तिशाली माध्यम हैं।

लेकिन अगर आपके अंदर एक खास तरह की तैयारी नहीं है तो बेहतर होगा कि आप खुद मंत्रोच्‍चारण न करें। आप इस मंत्रोच्‍चारण को खूब ध्‍यान से सुनें, यही लाभदायक होगा।