ध्यानलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा - त्रिकोणीय आकार

ध्यानलिंग की स्थापना तीन वर्षों के गहन कार्य के बाद पूर्ण हुई, जिसमें एक ऊर्जा त्रिकोण का निर्माण शामिल था जिसमें भारती, सद्गुरु की पत्नी विज्जी, तथा केंद्र बिंदु के रूप में स्वयं सद्गुरु शामिल थे। भारती के लिए यह प्रक्रिया भ्रांति और दृढ निश्चय के बीच का अनुभव रहा।

भारती: मुझे कभी स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया कि मुझे ध्यानलिंग की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया से जोड़ा गया था। मैं अब तक नहीं समझ सकी ये समावेश हुआ कैसे? अगस्त या सितंबर माह की पूर्णिमा को, मुझे बुलाया गया और उसी शाम, मैंने सद्गुरु के साथ ध्यान किया, उनके साथ उनकी पत्नी भी तीसरे व्यक्ति के रूप में शामिल थीं। मैं ध्यान के लिए बैठी तो मन में कुछ संशय थे और अपनी भूमिका को ले कर चिंता भी थी। परंतु सद्गुरु की उपस्थिति में एक बार आँखें बंद करती हूँ, तो सारे शक और चिंताएं कहीं गायब हो जाती हैं। ऐसा लगा जैसे किसी तेज़ प्रवाह ने वश में कर लिया और फिर ध्यानस्थ होने में समय नहीं लगा। उस पूर्णिमा के दिन कुछ और भी घटा। वह प्रक्रिया मुझ पर हावी हो गई और मेरे भीतर, मेरे अस्तित्व से अनावश्यक तनाव और आंतरिक परेशानियों को बाहर निकालने में सफल रही।

धीरे-धीरे, मेरा अधिकतर समय ध्यान में या फिर विज्जी के साथ बीतने लगा क्योंकि सद्गुरु इस बात पर बल देते थे कि हमारे दोनों के ऊर्जा शरीर, आपस में विलीन हो कर, एक हो जाएँ ताकि ऊर्जा का एक सशक्त त्रिकोणीय बल बन सके। इस दौरान, सद्गुरु लिंगरंध्रम् पर काम करने लगे। पारे युक्त ताँबे की एक नली को, सात चक्रों की विशेषताओं से ऊर्जान्वित किया जाना था, जिसे प्रतिष्ठा के दिन प्राण-प्रतिष्ठा पूरी होने से पहले, लिंग के भीतर रख कर सीलबंद किया जाना था। यह लिंग की प्रतिष्ठा से जुड़ा महत्वपूर्ण चरण था। हर चक्र को गहन साधनाओं से ऊर्जान्वित किया गया, जो कई-कई दिनों तक चलती थीं, वहाँ ऊर्जा की ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। हर चक्र को ऊर्जा से भरपूर करने के बाद, सद्गुरु चाहते थे कि इस प्रक्रिया को ब्रह्मचारियों तथा आश्रम के निवासियों के बीच भी बाँटा जाए। ये सत्संग अपने-आप में किसी गहरे आनंद से कम नहीं थे, जहाँ बहुत कम अंतराल में उनके साथ कई दिनों की साधना बाँटी गई।