विषयसूची
काशी की रचना क्यों हुई?
काशी का विज्ञान
काशी में शिव के रहने की कथा
काशी को वाराणसी क्यों कहते हैं?
काशी विश्वनाथ मंदिर
सप्तर्षि आरती
साउंड्स ऑफ ईशा द्वारा विश्वनाथ षट्कम
सद्‌गुरु के साथ काशी कर्म
काशी करवत
पंचकोशी यात्रा
कालभैरव
काशी में काल भैरव मंदिर
काशी कर्मकांडों का महत्व
गंगा आरती
काशी पर सदगुरु की कवितायें
मणिकर्णिका घाट की कहानी
मणिकर्णिका घाट : अंतिम संस्कार
काशी में अघोरी
काशी का अनुभव कैसे करें?
काशी को फ़िर से पहले जैसा बनाना होगा

काशी की रचना क्यों हुई?

सद्‌गुरु: ‘काशी’ शब्द का अर्थ है - 'प्रकाशमान'। यानी जो प्रकाशित है, प्रकाश का स्रोत है, या कहें तो 'प्रकाश स्तंभ'! मार्क ट्वेन ने कहा था कि काशी इतिहास की दंतकथाओं से भी पुरानी है। इस नगर के अस्तित्व में आने के समय का कोई पता नहीं लगा सकता। जब एथेंस की कल्पना भी नहीं की गयी थी, तब भी काशी थी। जब रोम का कहीं कोई अस्तित्व नहीं था, तब भी काशी थी। जब इजिप्त नहीं था, तब भी काशी थी। ये उतनी पुरानी है। यह एक साधन था जो एक नगर के रूप में बनाया गया था, और जो सूक्ष्म का विराट के साथ मेल कराता है। ये दिखाता है कि छोटा सा मनुष्य ऐसी अद्भुत संभावना रखता है कि वह ब्रह्मांडीय स्वभाव के साथ एक होने के आनंद, उल्लास और उसकी सुंदरता को जान सके।

जब एथेंस की कल्पना भी नहीं कि गयी थी, तब भी काशी थी। जब रोम का कहीं कोई अस्तित्व नहीं था, तब भी काशी थी। जब इजिप्त नहीं था, तब भी काशी थी।

हमारे देश में कई ऐसे साधन हैं, पर एक पूरा शहर बनाने को तो एक पागल महत्वाकांक्षा ही कहा जायेगा - और वो भी उन्होंने हज़ारों साल पहले किया था। इस शहर में 72,000 मंदिर थे और ये संख्या वही है जो हमारे शरीर में नाड़ियों की होती है। इस शहर की रचना एक विशाल मानव शरीर की अभिव्यक्ति है, जिसके ज़रिये ब्रह्मांडीय शरीर के साथ संपर्क किया जा सके। इसी वजह से ये परंपरा बनी थी कि अगर आप काशी चले जाते हैं, तो ये हो जाता है। आप उस जगह को छोड़ना नहीं चाहेंगे क्योंकि जब आप ब्रह्मांडीय स्वभाव से जुड़ जाते हैं तो फिर आप कहीं और क्यों जाना चाहेंगे?

आज जब हम विज्ञान की बात करते हैं तो हमारे दिमाग में आता है - आई फोन! पर अगर आप मानवीय खुशहाली के रूप में विज्ञान को देखना चाहें तो वो काशी ही है। आप इससे बेहतर कुछ नहीं कर सकते। ये कोई धर्म या विश्वास की बात नहीं है। ये मानवीय समझ की बात है कि इस संसार से जो परे है, उस तक पहुँच कैसे बनायें? इस धरती पर किया गया ये सबसे अद्भुत प्रयास है। इसके बारे में कोई सवाल ही नहीं है।

काशी का विज्ञान

सद्‌गुरु: मनुष्य जीवन में सबसे बड़ा काम है अपने शरीर की सीमितताओं को जानना! आप कल पैदा हुए थे और कल मर जायेंगे। आपके पास जीने के लिये बस आज का ही दिन है। ये अस्तित्व का स्वभाव है। और, मौत आने के पहले जीवन खिलना चाहिये। तो हमारे देश में हमने ऐसी हर संभव व्यवस्था बनायी जिसका उपयोग इस मकसद के लिये हो सके। इस तरह के बहुत से तंत्र हैं, व्यवस्थायें हैं। दुर्भाग्य से उनमें से ज्यादातर टूट गये हैं। जिनमें काशी भी शामिल है जो बड़ी मात्रा में अशांत है पर उसका ऊर्जा स्वरूप अभी भी जीवंत है। इसका कारण ये है कि जब इस तरह के स्थानों को प्राणप्रतिष्ठित किया जाता है (जिनमें ध्यानलिंग भी शामिल है), तो भौतिक संरचना सिर्फ एक मचान की तरह होती है। सामान्य रूप से ऐसा माना जाता है कि काशी ज़मीन पर नहीं है बल्कि शिव के त्रिशूल पर स्थित है।

ऐसा माना जाता है कि काशी ज़मीन पर नहीं है बल्कि शिव के त्रिशूल पर स्थित है।

मेरे अनुभव में, मैं जो देखता हूँ वो ये है कि काशी ज़मीन से लगभग 33 फुट ऊपर है। अगर हममें कुछ भी समझ होती तो हमने 33 फुट से ऊँचा कुछ भी नहीं बनाया होता, पर हमने बनाया है क्योंकि इस संसार में समझ एक बहुत ही कम मिलने वाली चीज़ है। और ज्यामितीय गणनाओं के हिसाब से ऊर्जा संरचनायें 7200 फ़ीट तक की हो सकती हैं। यही कारण है कि काशी को प्रकाश स्तंभ कहा गया क्योंकि जिनके पास देखने के लिये आँखें और समझ थी, उन्हें पता था कि ये एक बहुत ऊँची संरचना है। और, ये सिर्फ ऊँचे होने की ही बात नहीं थी बल्कि इसने आपको उस तक की पहुँच दी जो इस सब से परे है। इसके पीछे सोच ये है कि मनुष्य जो कुछ भी हासिल कर सकता है, वो कई लोगों की हज़ारों सालों के बोध से बनाई गई संगठित व्यवस्था के माध्यम से हासिल कर सके। अगर आपको सब कुछ अपने आप ही समझना हो तो ये वैसे ही है जैसे आप फिर से पहिये की खोज करें और फिर से बहुत सारी दर्दनाक प्रक्रियाओं में से होकर गुज़रें। पर, अगर आपको दूसरों के पाये ज्ञान से समझना है तो आप में विनम्रता होनी चाहिये।

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यह व्यवस्था इसलिये बनाई गई थी जिससे बहुत सारे लोगों को एक से दूसरी जगह ले जाया सके। लोगों ने वहाँ आ कर हर तरह के तरीके और यंत्र स्थापित किये। एक समय पर वहाँ 26,000 मंदिर थे - और हरेक का एक अलग तरीका था कि कैसे कोई मनुष्य आत्मज्ञान पा सकता है। धीरे-धीरे इन 26,000 मंदिरों के कई उपस्थान बनते गये और कई मंदिरों के तो अलग-अलग कोने ही अपने आप में अलग पवित्र स्थान बन गये जिससे इन पवित्र स्थानों की संख्या 72,000 तक पहुँच गयी। तब काशी नाम का ये यंत्र अपनी पूरी भव्यता, अपने पूरे वैभव में था। ये कोई एक रात में नहीं हो गया था। कोई नहीं जानता कि मूल संरचना कब बनी थी? यह कहा जाता है कि सुनीरा, जो 40,000 वर्ष पहले हुए थे, यहाँ कुछ पाने के लिये आये थे और उस समय भी ये शहर पहले से ही फल-फूल रहा था।

इसके इतिहास के बारे में कोई नहीं जानता कि ये नगर कितना पुराना है? शिव यहाँ आना चाहते थे क्योंकि ये स्थान बहुत सुंदर था। उनके आने के पहले ही ये एक अद्भुत नगर था। अभी, तीन साल पहले ही, मंदिरों के तीन स्तर मिले हैं - एक के ऊपर एक - जो बहुत लंबे समय से बंद पड़े थे। इसका मतलब ये है कि ये शहर कई बार डूब जाता था और फिर से बनाया जाता था, एक के ऊपर एक। शहर के तीन से पाँच स्तर हैं क्योंकि पृथ्वी की मिट्टी ही अपने आपको एक अंतराल के बाद बदल लेती है।

काशी में शिव के रहने की कथा

सद्‌गुरु: काशी की सबसे ज्यादा मशहूर मूल बात यही है कि खुद शिव वहाँ रहते थे। काशी ही उनका सर्दियों में रहने का ठिकाना था। वे एक तपस्वी की तरह हिमालय के ऊपरी इलाकों में रहते थे, पर जब उनकी शादी एक राजकुमारी के साथ हो गई तब उनको भी समझौते करने पड़े। एक शालीन व्यक्ति होने के नाते उन्होंने मैदानी इलाकों में आने का फैसला किया और वे काशी आये जो उस समय का सबसे शानदार शहर था।

अगर मुझे राजा बनना है तो शिव को यहाँ से जाना होगा क्योंकि उनके यहाँ रहते हुए मैं राजा नहीं बन सकता। लोग उन्हीं के आसपास इकट्ठा होंगे।

एक बहुत सुंदर कथा है। शिव ने कुछ राजनैतिक कारणों से काशी छोड़ी। देवताओं को डर था कि अगर काशी का प्रबंधन अच्छी तरह न किया गया तो ये अपनी विशेषतायें खो देगी और उन्होंने दिवोदास को वहाँ राजा बनने के लिये कहा। पर उन्होंने एक शर्त रखी, "अगर मुझे राजा बनना है तो शिव को यहाँ से जाना होगा क्योंकि उनके यहाँ रहते हुए मैं राजा नहीं बन सकता। लोग उन्हीं के आसपास इकट्ठा होंगे।” तो, शिव और पार्वती काशी छोड़ कर मंदार पर्वत पर चले गये। पर वे वहाँ रहना नहीं चाहते थे। वे काशी आना चाहते थे। उन्होंने पहले अपने संदेशवाहक भेजे। वे लोग वहाँ गये और उनको शहर इतना पसंद आया कि वे वापस ही नहीं गये।

तब शिव ने स्वर्ग की 64 सुन्दर अप्सराओं को कहा, "काशी जाओ और कुछ भी कर के राजा को बिगाड़ दो। जैसे ही हम उसकी कोई गलती ढूँढ लेंगे तो हम उसे बाहर भेज देंगे और मैं वापस आ जाऊँगा"। तो वे अप्सराएँ आईं और चारों ओर फैल गयीं जिससे समाज को बिगाड़ा जा सके। पर उन्हें भी यह शहर इतना पसंद आया कि वे अपना मकसद भूल गयीं और वहीं रहने लगीं।

तब शिव ने सूर्यदेव को भेजा। वे भी आये - काशी में सारे आदित्य मंदिर उन्हीं के लिये हैं - उन्हें ये नगर इतना भाया कि वे भी वापस नहीं गये। सूर्यदेव को अपने आप पर बहुत शर्मिंदगी हुई और उन्हें डर भी लगा कि इस नगर के लिये उनका प्यार इस मिशन के लिये उनकी प्रतिबद्धता से ज्यादा हो जाने की वजह से उन्होंने शिव का काम नहीं किया था। तो वे दक्षिण की ओर मुड़ गये, एक तरफ़ झुक गये और वहीं रह गये।

फिर शिव ने ब्रह्मा को भेजा। उन्हें भी काशी इतनी प्यारी लगी कि वे भी वापस नहीं गये। तब शिव ने सोचा, "मैं अब इन सब लोगों पर विश्वास नहीं कर सकता" और उन्होंने अपने सबसे विश्वसनीय गणों में से दो को भेजा। वे दोनों आये - वे शिव को नहीं भूल सके क्योंकि वे शिव के ही गण थे - पर उन्हें ये स्थान बहुत ज्यादा पसंद आया और उन्होंने सोचा, "यह तो ऐसी जगह है जहाँ शिव को रहना चाहिये, उस मंदार पर्वत पर नहीं"। और फिर वे उस शहर के द्वारपालक बन गये।

तब शिव ने दो और लोगों को भेजा - गणेश और एक अन्य जिन्होंने आ कर शहर को संभाल लिया। उन्होंने शहर को तैयार करने और उसकी रक्षा करने का काम ले लिया और सोचा, "वैसे भी अब शिव यहीं आने वाले हैं हमारा वहाँ वापस जाने का क्या काम"! फिर दिवोदास को मुक्ति का लालच दिया गया। वे और किसी लालच में नहीं फँसे थे पर मुक्ति के लालच में आ गये, और उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। तब शिव वापस आये।

ये सब कहानियाँ आपको ये बताने के लिये हैं कि लोग यहाँ रहने की कितनी ज्यादा इच्छा रखते थे, किसी सांसारिक आनंद या खुशी के लिये नहीं पर उन संभावनाओं के लिये जो इस शहर में थीं! यह शहर सिर्फ रहने की एक जगह ही नहीं था बल्कि ये एक ऐसा यंत्र था जो आपको सभी सीमितताओं से परे ले जाने के लिये काम करता था। ये वो यंत्र था जो एक छोटे जीव को विराट ब्रह्मांड के साथ एक होने की संभावना बनाता था।

काशी को वाराणसी क्यों कहते हैं?

सद्‌गुरु: वाराणसी, बनारस या काशी - इसके कई नाम हैं । इस धरती पर ये सबसे पुराना शहर है। मनुष्य की याददाश्त जितनी पीछे जा सके, वे एक ऐसे महान शहर वाराणसी की बात करते हैं जो वरुणा और असी नाम की दो नदियों के बीच बसा था।

काशी विश्वनाथ मंदिर

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सद्‌गुरु: Tइस देश में एक ऐसा समय था जब लोगों को यह यकीन था कि अगर आप इस शहर में प्रवेश भी करें तो आपको मुक्ति मिल जायेगी, क्योंकि ये एक ऐसा शक्तिशाली स्थान था। और इस शहर का हृदय था - विश्वनाथ मंदिर। बहुत समय पहले ये मंदिर तोड़ दिया गया था पर ये माना जाता है कि इसका प्राणप्रतिष्ठापन खुद आदियोगी शिव ने किया था। पिछले कुछ शतकों में, खास तौर पर पिछले 6 - 7 शतकों में काशी को तीन बार नष्ट कर के मिट्टी में मिला दिया गया। काशी में कभी 26,000 मंदिर थे, पर आज 3,000 ही हैं क्योंकि विदेशी हमलों के दौरान बाकी को तोड़ दिया गया। काशी विश्वनाथ मंदिर - जो काशी का मूल है - ज़रूर ही एक अद्भुत स्थान रहा होगा जहाँ सारी दुनिया से लोग आते थे। जब ये अपने पूरे वैभव में था तब दुर्भाग्य से हम जीवित नहीं थे। इसे तीन बार तोड़ा गया और जैसे भी हो, फिर से तीन बार बनाया गया।

फिर जब औरंगज़ेब आया तो उसने देखा कि अगर हम इसे गिराते हैं तो ये लोग उसे फिर से बना लेते हैं क्योंकि ये कोई ऐसा धर्म नहीं है जिसे कुछ नेता चलाते हैं। बल्कि ये ऐसा है जो सभी के घरों में और दिलों में रहता है। ये कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसके लिये अभियान चलायें जायें। ये एक ऐसा संबंध है जो लोगों ने बनाया हुआ है। ये विश्वास से नहीं चलता, पर एक अद्भुत अनुभव और अस्तित्व के साथ संबंध से चलता है। उसने जब ये देखा तो काशी विश्वनाथ मंदिर के मूल भाग पर एक मस्जिद बनाने का निर्णय किया। उसने पूरे मंदिर को नष्ट कर दिया पर एक छोटा सा भाग छोड़ दिया जिससे इस संस्कृति के लोगों को एक चेतावनी और एक पाठ मिले कि मंदिर को अब ठीक नहीं किया जा सकता। वो यही छोटी सी जगह है जहाँ पर अब काशी विश्वनाथ लिंग है पर ये मंदिर के मूल स्थान से बाहर है। ये पहले विश्वेश्वर गर्भ-गृह में था। अब वह स्थान मस्ज़िद का केंद्र स्थान है और उसने सारी सेंट्रल, और उत्तर से दक्षिण तक की जगह ले रखी है।

जब शिवलिंग को हटा कर फेंका गया तो वे इसे ऐसी जगह फेंकना चाहते थे जहाँ ये किसी को मिल न सके। हमें नहीं मालूम कि उन्होंने इसे ऐसे ही फेंक दिया या तोड़ कर फेंका। कुछ लोग कहते हैं कि उसके दो टुकड़े किये गये थे। कुछ लोगों ने शिवलिंग के लिये अपनी भावनाओं और प्यार की वजह से उन टुकड़ों को वापस जोड़ने की कोशिश की। एक और कहानी है, कि वहाँ ज्ञानवापी नाम का एक कुँआ है। ज्ञानवापी का मतलब है ज्ञान का कुँआ। कहते हैं कि लोगों ने शिवलिंग को पूरी तरह से नष्ट होने से बचाने के लिये इस कुँए में छिपा दिया था। जब चीजें शांत हो गयीं तब लोगों ने इसे बाहर निकाला और दक्षिणी कोने में कहीं पर उसे स्थापित किया। मैं नहीं जानता कि जो लिंग आज वहाँ है, क्या वो वही लिंग है?  लोगों के विश्वास को बनाये रखने के लिये उन्होंने इसकी जगह दूसरा लिंग स्थापित किया होगा, नहीं तो ये सोच कर कि मूल लिंग नष्ट हो चुका है, लोग मानसिक रूप से टूट जाते। हो सकता है कि उन्होंने मूल शिवलिंग को संभाल कर रखा भी हो या फिर उसकी जगह दूसरा स्थापित किया हो। हो सकता है कि वह टूट गया था और फिर जोड़ा गया हो, या फिर उन्होंने कोई नया ही लिंग स्थापित किया हो। हमें नहीं मालूम!

सप्तर्षि आरती

सद्‌गुरु: हम जब काशी गये तो विश्वनाथ मंदिर में शाम को होने वाली एक खास प्रक्रिया को देख कर मैं दंग रह गया। ये प्रक्रिया सप्तर्षियों के लिये है जो आदियोगी शिव के पहले 7 शिष्य थे। जब सप्तर्षियों को जगह- जगह जा कर सिखाने के लिये कहा गया और वे जा रहे थे तब उन्होंने शिव से पूछा, "हम आपसे दूर रहेंगे तो आपकी पूजा कैसे करेंगे और आप तक कैसे पहुँचेंगे"? तब शिव ने उन्हें एक प्रक्रिया बतायी और कहा, "तुम लोग जहाँ भी रहोगे, ये करना और मैं तुम्हारे साथ होऊँगा"। विश्वनाथ मंदिर में वो बात आज तक जारी है। ये एक विस्तृत प्रणाली है। जो लोग आज इसे कर रहे हैं, वे इसके बारे में कुछ नहीं जानते पर वे प्रक्रिया को जारी रखे हुए हैं।

इन पुजारियों को अपनी ही ऊर्जा के बारे में कुछ नहीं मालूम और न ही ये कि क्या किया जा सकता है, पर उन्होंने प्रक्रिया को जारी रखा है और वहाँ एक अद्भुत घटना बनायी है। ये एकदम जबर्दस्त था।

ये एक मोबाईल फोन को इस्तेमाल करने जैसा है - आपको वास्तव में मालूम नहीं है कि ये कैसे काम करता है पर आप इसे चलाना सीख लेते हैं और ये आपके लिये काम करता है। इसी तरह, इन लोगों को सप्तर्षि आरती की तकनीक के बारे में कुछ नहीं मालूम पर ये जानते हैं कि इसे करना कैसे है? उन्होंने प्रणाली को वैसा ही रखा है और इस प्रक्रिया को वे शाम के समय डेढ़ घंटे तक करते हैं। उन्होंने वहाँ बहुत सारी ऊर्जा बना ली है। मैं बस वहाँ बैठा था और यकीन नहीं कर सका कि पुजारी ये प्रक्रिया कर रहे हैं। मैं कभी सोच नहीं सकता था कि वे ये कर सकेंगे। मैं जानता हूँ कि इसे करने का क्या अर्थ है, पर ऐसे नहीं। ईशा में ये करने के लिये हमें बहुत सारी चीजें करनी होंगी क्योंकि हमारे पास ऐसी प्रक्रिया नहीं है। हम, लोगों को उस तरह की परिस्थिति में ले जाते हैं और बहुत सारी ऊर्जा बनाते हैं जिससे लोग इसका अनुभव कर सकें। इन पुजारियों को अपनी ही ऊर्जा के बारे में कुछ नहीं मालूम और न ही ये कि क्या किया जा सकता है पर उन्होंने प्रक्रिया को जारी रखा है और वहाँ एक अद्भुत घटना बनायी है। ये एकदम जबर्दस्त था।

देखिये क्या हुआ जब सद्‌गुरु ने काशी विश्वनाथ के पुजारियों को ईशा योग सेंटर, कोयम्बटूर में आदियोगी की उपस्थिति में, योगेश्वर लिंग के लिये शक्तिशाली सप्तर्षि आरती करने के लिये आमंत्रित किया।

साउंड्स ऑफ ईशा द्वारा विश्वनाथ षट्कम

साउंड्स ऑफ ईशा द्वारा अर्पित विश्वनाथ षट्कम की भेंट सुनिये

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सद्‌गुरु के साथ काशी कर्म

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ईशा सेक्रेड वॉक्स द्वारा आयोजित काशी कर्म एक यात्रा है, जो काशी के पवित्र नगर में से हो कर निकलती है। इसमें भाग लेने वाले लोग आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण स्थानों पर जाते हैं और यात्रा में उन्हें सद्‌गुरु के साथ एक खास सत्संग का अवसर मिलता है।

काशी कर्म के बारे में और ज्यादा जानकारी के लिये कृपया यहाँ क्लिक करें।.

काशी करवत

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सद्‌गुरु: जब तक आप मुक्ति की इच्छा रखते हुए उसके लिये कोशिश कर रहे हैं, तब तक आप क्या कर रहे हैं और कैसे कर रहे हैं, ये महत्वपूर्ण नहीं है। जब तक आपका मूल मकसद अपने आपको मिटा देना है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इसे कैसे करते हैं? काशी में एक खास मंदिर है, जहाँ अगर आप आत्मज्ञान पाना चाहते हैं तो उनके पास एक लकड़ी चीरने की आरी थी, जिसे स्थानीय भाषा में करवत कहते हैं। आज भी, वहाँ के लिंग को करवत लिंग कहते हैं। लोग बहुत दूर से आते थे और वे करवत चाहते थे, मतलब मंदिर में लिंग के सामने अपने दो टुकड़े करवाना चाहते थे। ये लिंग उसी मकसद के लिये बनाया गया था। वे करवत से मनुष्य को उसके सिर के ऊपरी भाग से दो टुकड़ों में चीर डालते थे। शुरुआत में एक खास बिंदु तक ही काटा जाता था जिससे सहस्रार चक्र खुल जाये। ये बहुत ही सावधानी के साथ उन लोगों द्वारा किया जाता था जो जानते थे कि जीवन को मुक्त करने के लिये क्या किया जाये? आप जो भी हैं, उसके दो आयामों को अलग करने के लिये और आपको मुक्त करने के लिये ये होता था। पर, अब ऐसी कोशिश न करें। इस पर काफी समय से पाबंदी लगा दी गयी है। मैं आपको सिर्फ ये बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि वे मुक्ति पाने के लिये किस हद तक जाने को तैयार थे - क्योंकि मुक्ति को इतना महत्वपूर्ण माना जाता था - आपको इसी जीवन में आत्मज्ञान पा लेना चाहिये।

वे करवत से मनुष्य को उसके सिर के ऊपरी भाग से दो टुकड़ों में चीर डालते थे। शुरुआत में ये एक खास बिंदु तक ही काटा जाता था जिससे सहस्रार चक्र खुल जाये।

बहुत से साधु-संत हैं जिन्होंने काशी करवत का ज़िक्र किया है, जैसे मीराबाई और सूरदास। कृष्ण को मीराबाई धमकी देती हैं, "अगर तुम नहीं आये तो मैं काशी करवत को चली जाऊँगी"। वे कृष्ण को ही धमकी दे रही हैं, "अगर तुम मेरे सामने प्रगट नहीं हुए तो मैं काशी जा कर अपने आपको आरी से कटवा लूँगी"। ब्रिटिश राज में इस पर पाबंदी लगा दी गयी थी पर फिर भी लोग जाकर आरी पर गिरते थे। फिर आरी को हटा दिया गया। ये कहा जाता है कि वो आरी आज भी किसी ब्रिटिश म्यूजियम में रखी है।

पंचकोशी यात्रा

पवित्र काशी मंडल के चारों ओर की जाने वाली पंचकोशी यात्रा, तीर्थयात्रियों द्वारा की जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण यात्राओं में से एक है।

इस यात्रा के रास्ते पर 108 पवित्र स्थान हैं जिनकी यात्रा तीर्थयात्री पैदल करते हैं। इसमें पाँच मुख्य गाँव हैं जहाँ तीर्थयात्री आराम कर सकते और रात में रुक सकते हैं। राजाओं द्वारा कई सौ साल पहले बनवाई हुई धर्मशालायें आज भी यहाँ हैं।

जब पंचकोशी यात्रा पर कोई घड़ी की सुई की दिशा में चलता है तो सभी मंदिर सड़क की दाहिनीं ओर ही मिलते हैं, जिनसे पंचकोशी गोलाकार की बाहरी सीमा बनती है।

मणिकर्णिका घाट पर गंगा में डुबकी लगा कर पंचकोशी यात्रा की शुरुआत की जाती है। इस रास्ते पर आने वाला पहला मुख्य मंदिर है -आदिकर्मदेश्वर मंदिर। यहाँ के लिंग का प्राणप्रतिष्ठापन ऋषि कर्मदेश्वर ने किया था।

काशी खंड पुराण में ये कहा गया है कि यक्ष और गण हमेशा जल स्रोतों के पास पेड़ों पर रहते थे। तो इस रास्ते पर उनके मंदिर भी इसी तरह बने हैं।

दूसरा मंदिर है - भीमचंदी मंदिर। इस दुर्गा मंदिर की स्थापना एक गंधर्व ने की थी जो यहाँ देवी की पूजा करते थे। जो भी भक्त उनकी कृपा चाहते हैं, उनकी रक्षा देवी अपने बच्चे की तरह करती हैं, और उन्हें अच्छे स्वास्थ्य और खुशहाली का आशीर्वाद देती हैं।

देहली विनायक मंदिर इस रास्ते पर तीसरा मंदिर है। ये काशी विश्वनाथ मंदिर से सीधी रेखा में आता है और यहाँ आधी यात्रा पूरी हो जाती है। कहते हैं कि काशी में प्रवेश करने के पहले भगवान राम ने यहाँ ध्यान किया था।

चौथा मंदिर रामेश्वरम मंदिर है। ये वरुणा नदी के तट पर है और यात्रा का सबसे उत्तरी बिंदु है।

शास्त्रों में कहा गया है कि काशी मंडल के सभी लिंग 42 प्रकार के हैं। कपिलधारा मंदिर में ये सभी 42 प्रकार एक ही रूप में हैं। पाशापानी विनायक और कपिलधारा मंदिर के साथ ही पंचकोशी यात्रा पूरी हो जाती है।

कालभैरव

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सद्‌गुरु: भैरव वे हैं जो आपको डर के परे ले जायें। कालभैरव यानी समय का डर, मृत्यु का डर नहीं, क्योंकि डर का आधार ही काल है, यानी समय। अगर आपके पास असीमित समय हो तो कोई डर नहीं होगा, है कि नहीं? अगर आपको काल का डर न हो तो कोई डर नहीं होगा, आप हर एक डर से मुक्त होंगे।

जो कई जीवन कालों में होना है, वो सब आपको एक सेकंड के छोटे से भाग में हो जायेगा पर उसकी तीव्रता इतनी होगी कि आप सहन नहीं कर पायेंगे।

कालभैरव शिव का एक भयंकर रूप है। एक समय था जब ये भरोसा था कि अगर आप काशी आते हैं तो आप सारा जीवन चाहे कितना ही बेकार जिये हों, आपको मुक्ति फिर भी मिलेगी। तो सभी तरह के फालतू किस्म के लोग, जिन्होंने खराब जीवन जिया था, शानदार मृत्यु के लिये काशी आने लगे। तो शिव ने कहा, "इस पर कुछ तो नियंत्रण होना चाहिये"। तो उन्होंने  कालभैरव का रूप लिया जिससे वे वो प्रक्रिया कर सकें जिसे भैरवी यातना कहते हैं। इसका मतलब है कि जब मृत्यु का पल आता है, तो आप जो कुछ भी रहे हों, आपके कई जीवन काल एक ही पल में बहुत ज्यादा तीव्रता के साथ गुज़र जायेंगे और आपको जो भी दर्द और आनंद मिलने हैं, वे सब एक साथ हो जायेंगे। जो कई जीवन कालों में होना है, वो सब आपको एक सेकंड के छोटे से भाग में हो जायेगा पर उसकी तीव्रता इतनी होगी कि आप सहन नहीं कर पायेंगे। यातना का मतलब है अत्यधिक पीड़ा, भयानक दर्द! ये वो है जो आपको नर्क में होता है, पर कालभैरव आपको यहीं कर देंगे।

जब आप इस तरह का काम करना चाहते हैं तो आपको उचित परिधान की ज़रूरत होती है। तो शिव ने सही परिधान पहना और भैरवी यातना की रचना करने के लिये तैयार हो गये। वो इतना जबर्दस्त दर्द बना देते हैं कि जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी, पर सिर्फ एक पल के लिये, जिससे कि पिछला कुछ भी आपके पास बाकी न रहे।

काशी में काल भैरव मंदिर

पूरे काशी मंडल की रक्षा करने के लिये काशी की 8 मूल दिशाओं में 8 कालभैरव मंदिर स्थित हैं। ये मंदिर हैं : उन्मत्त भैरव, क्रोधाना भैरव, कपाल भैरव, असितंगा भैरव, चंड भैरव, रुरु भैरव, भीषण भैरव और संहार भैरव।

काशी खंड पुराण में बताया गया है कि काशी क्षेत्र शिव के त्रिशूल पर खड़ा है। तीन मुख्य मंदिर इस त्रिशूल के तीन बिंदु हैं। ये तीन मंदिर मंडल के लिये आधार का काम करते हैं। ये हैं - उत्तर में ओमकारेश्वर, केंद्र में विश्वेश्वर और दक्षिण में केदारेश्वर। हर मंदिर अपना प्रभाव क्षेत्र या खंड बनाता है।

काशी कर्मकांडों का महत्व

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सद्‌गुरु: काशी में चारों ओर कर्मकांड हैं। ये हमेशा से कर्मकांडों का केंद्र रहा है। अगर कुछ किया जा सकता है तो वह अपने अंदर ही किया जा सकता है - ये सोच कर्मकांड करने की सबसे अच्छी रीत है। जब आप आध्यात्मिक प्रक्रियाओं में दीक्षित हो गये हों तो आपको इसी सोच, इसी रीत पर निर्भर करना चाहिये। पर आम लोगों के लिये, जो ऐसी सोच नहीं रखते, ये सब कर्मकांड हैं। वे यह नहीं जानते कि अपने अंदर कुछ कैसे किया जाये, पर वे ये अच्छी तरह से जानते हैं कि कुछ करना ज़रूरी है। जब ऐसी बात हो और काशी जैसा साधन उपलब्ध हो, जिसके साथ जटिल कर्मकांड जुड़ें हों तो ये सब बहुत उपयोगी हो जाता है, क्योंकि ये बड़ी संख्या में लोगों को संभाल लेता है।

गंगा आरती

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सद्‌गुरु: आपके जीवित रहने के लिये पानी एक महत्वपूर्ण तत्व है। आपके शरीर का 70% भाग सिर्फ पानी ही है। अगर एक दिन आपको पीने के लिये पानी न मिले तो पानी आपके लिये भगवान हो जायेगा, है कि नहीं? तो नदी में बहने वाले पानी को हम अपने अस्तित्व का, जीवन का स्रोत मानते हैं।

काशी में गंगा नदी के तट पर, हर शाम को सूर्यास्त के समय, गंगा आरती पारंपरिक रूप से की जाती है। ये एक बहुत सुंदर दृश्य होता है जिसका आनंद आप ले सकते हैं, और अगर आप होने दें तो यह आपके लिए एक शक्तिशाली प्रक्रिया हो सकती है। योग के सबसे मूल पहलू को भूत शुद्धि कहते हैं, जो पाँच तत्वों से एक खास स्वतंत्रता पाने के लिये है क्योंकि ये सारी सृष्टि आखिर तो पाँच तत्वों का ही खेल है। भूत शुद्धि में हरेक पहलू - मिट्टी, हवा, आग, पानी और आकाश - के साथ साधना की जाती है। हम सिर्फ पाँच तत्वों को झुक कर प्रणाम ही नहीं करते, जिससे वे हमारे लिये अच्छी तरह से काम करें पर हम ऐसी प्रणाली भी सीखते हैं जिनसे वे अच्छी तरह काम करें। अगर ये पाँच तत्व अच्छी तरह से मेल रखते हुए, आपके लिये काम करते हैं तो ही आपका शरीर और जीवन सही ढंग का होता है।

काशी पर सदगुरु की कवितायें

काशी

ये है एक प्रकाश स्तंभ!
नापी न जा सके जिसकी ऊँचाई।
ब्रह्मांडीय पहुँच इस सौभाग्यशाली नगरी की
करती है आकर्षित सब तरह के लोगों को।।
कलाकार और व्यापारी, विद्वान और पुजारी,
वास्तुकार और नाविक, सौदागर और भिखारी।
हर तरह के जिज्ञासु आये इस नगर में,
अनादि अनंत के स्रोत का रसपान करने को।।
इस पवित्र स्थान का स्पर्श पाने, माँ गंगा भी,
यहाँ आने के लिये ली एक विचित्र मोड़।।
जिसके आकर्षण से लुभा गये परम प्रभु शम्भू भी,
धन्य काशी, खो गयी लोगों की यादों के ढेर में।।
अब इसको आक्रमणकारियों की भीड़ ने,
कृपाहीन, अशालीन बना कर छोड़ दिया है।
नहीं रही कोई पवित्रता इसे संभालने वालों में,
दिखता है तो बस निम्नतम लालच
और भयानक असहनशीलता भरा पाखंड।।
इच्छा बस अब यही है कि,
ये सौभाग्यशाली, धन्य नगरी काशी
फिर से खड़ी हो अपनी बुलंदी में
और कर दे आलोकित सब को अपने पवित्र प्रकाश से।।

 

काशी

पत्थर और धातु के गुम्बद और स्तंभ,
महल और बैठकें, आनंद और कामकाज के लिये।
इस लोक के और उसके परे के भी,
उद्देश्य पाने के लिये विद्यालय और मंदिर।।
ये सब होते हैं एक नगर में, जो लोग बनाते हैं,
पर एक ऐसा नगर जो स्वयं ही प्रकाश स्तंभ हो,
ऐसा शमशान जहाँ लगातार चितायें जलती हों,
और जहाँ सिर्फ मुक्त होने की अभिलाषा हो,
वो नगर जहाँ मृत्यु जीवन से भी ज्यादा पवित्र हो।।
एक नगर, जो बना ही है मृत्यु और मुक्ति के लिये,
जहाँ इस ज्ञान से जीवन चले कि कोई कल नहीं,
जो स्वयं ही प्रकाशित एक प्रकाश स्तंभ हो,
जहाँ सिर्फ ये सब ही नहीं, पर वो भी हो,
जो है ही नहीं - शिव, तो ये वही काशी है।।

मणिकर्णिका घाट की कहानी

सद्‌गुरु: इस बारे में बहुत सी कहानियाँ हैं कि मणिकर्णिका घाट कैसे बना? शिव के कहने से पार्वती ने अपने कानों की बालियाँ गिरा दीं। शौर्यवान विष्णु ने उन्हें पकड़ना चाहा पर वे पृथ्वी के अंदर चलीं गयीं। तो उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से उस जगह को खोदना शुरू किया। वे खोदते रहे, खोदते रहे, इतना कि उनके बहते पसीने ने ही उस गड्ढे को भर दिया पर पार्वती की बालियाँ उन्हें नहीं मिलीं क्योंकि वे जितना खोदते जाते थे, बालियाँ उतनी ही गहरी अंदर जाती थीं। तब शिव ने विष्णु से कहा, "ठीक है, ये सारा शहर मेरा है, पर ये जगह आपकी होगी क्योंकि आपने अपना पसीना यहाँ डाला है। तो वो जगह मणिकर्णिका हो गयी।

मणिकर्णिका घाट : अंतिम संस्कार

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प्रश्न: यह कहा जाता है कि अगर आपका अंतिम संस्कार मणिकर्णिका घाट पर होता है तो आपको आत्मज्ञान प्राप्त हो जायेगा। क्या ऐसा है?

सद्‌गुरु: इस विज्ञापनबाजी को वास्तविकता मत समझिये। वैसे, ये सब केवल विज्ञापनबाजी ही नहीं है क्योंकि अगर कोई उत्पाद है तो ही विज्ञापनबाजी हो सकती है। कई बार, समाज में, विज्ञापनबाजी ही उत्पाद से ज्यादा बड़ी हो जाती है। दुनिया में हर तरफ यही हो रहा है।

काशी में रहने का मतलब ये है कि आप अपने परिवार या सुख या भावनाओं की ओर नहीं जा रहे हैं। आप अपनी आंतरिक खुशहाली के लिये काम कर रहे हैं।

Yआप किसी ओर के झुकाव को मकसद समझने की गलती कर रहे हैं। जब हम कहते हैं कि आपका अंतिम संस्कार मणिकर्णिका में होना चाहिये तो इसका मतलब ये है कि आपके जीवन का आखरी भाग काशी में बीतना चाहिये। ये झुकाव है। काशी में रहने का मतलब ये है कि आप अपने परिवार या सुख या भावनाओं की ओर नहीं जा रहे हैं। आप अपनी आंतरिक खुशहाली के लिये काम कर रहे हैं। हम ऐसी काशी की बात कर रहे हैं, जहाँ उर्जात्मक मदद मिलती है, और इसके अलावा काशी में अद्भुत क्षमताओं, ज्ञान और समझ वाले लोग भी थे जो आपकी मदद कर सकें ताकि आप इस दुनिया से बहुत शालीनता के साथ जा सकें।

प्रश्न: ये भी कहा जाता है जिस दिन मणिकर्णिका घाट पर कोई अंतिम संस्कार नहीं होगा, उस दिन संसार का अंत हो जायेगा। क्या ये सच है?

सद्‌गुरु: अगर कोई मरने को नहीं है तो संसार का अंत हो ही जायेगा, है कि नहीं? हर दिन किसी को तो मरना है - ये जीवन प्रक्रिया का एक भाग है। गौतम बुद्ध ने ऐसा किया - जब एक स्त्री उनके पास आयी और बोली, "कृपया मेरे मृत बच्चे को जीवित कर दीजिये', तो उन्होंने कहा, "जा कर ऐसे किसी घर से राई के दाने ले कर आओ, जिस घर में कोई मौत न हुई हो"। वो अपने दुख में सब जगह गयी और तब उसे समझ में आया कि हर घर में कोई न कोई मरा ही है। अगर संसार में ऐसा समय आता है जब कोई न मरे तो इसका मतलब यही है कि संसार खत्म होने वाला है। लोगों को मरना ही है क्योंकि लोगों का जन्म हो रहा है।

काशी में अघोरी

प्रश्न: काशी में ऐसे अघोरी हैं जो मृत शरीरों के साथ अजीब चीज़ें करते हैं या और चीजों के साथ प्रयोग करते हैं। लोग उनसे नफरत करते हैं।

सद्‌गुरु: लोग शायद वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, जीव विज्ञान की प्रयोगशालाओं में नहीं गये हैं। वैज्ञानिक कई सारे प्राणियों (जानवरों, पक्षियों, कीड़ों) के साथ बहुत अजीब, भयानक चीज़ें कर रहे हैं। ये सब कुछ अच्छे के लिये किया जाता है। कभी-कभी कोई उपयोगी बात सामने आ भी जाती है, पर बाकी समय तो हम प्रयोगशालाओं में अजीब तरह के ही काम कर रहे होते हैं। अगर आप हाईस्कूल में जीव विज्ञान पढ़ते हैं तो आप मेढकों को काटते हैं और कई सारी चीजें देखते हैं। ये सब बहुत ही अजीब, भयानक होता है। पर हम सबने ये किया है, आज भी लोग कर रहे हैं जैसे कि सीखने का बस यही एक तरीका हो।

जब मृत शरीर जलने लगता है, तब प्राण को तुरंत ही बाहर निकलना होता है। अघोरी उस जीवन ऊर्जा का उपयोग करना चाहते हैं जो उस समय शरीर से निकलती है, और वे उससे अपने लिये कुछ करना चाहते हैं।

मृत शरीर में भी प्राण शेष होते हैं। अगर आप मणिकर्णिका और हरिश्चन्द्र घाट जायें, जहाँ अंतिम संस्कार होते हैं, तो आपको वहाँ अघोरी बैठे हुए मिलेंगे जो सब देखते रहते हैं। जो लोग भी वहाँ मृत शरीर ले कर आते हैं, उनसे वे पूछते हैं, "यह व्यक्ति कितनी उम्र का था? ये कैसे मरा"? इसीलिये कई लोग जो ये सब बताना नहीं चाहते, वे मृत शरीर को प्लास्टिक में ढक कर लाते हैं, जिससे कोई देख न सके। अगर कोई उन्हें मृत व्यक्ति की उम्र आदि के बारे में पूछते भी हैं तो भी वे जवाब नहीं देते। पर अघोरी जानना चाहते हैं। वे इस तरह का व्यक्ति चाहते हैं जो युवा हो, जिसका जीवन अच्छा, उत्साह वाला रहा हो और जो किसी कारण से मर गया हो। जब मृत शरीर जलने लगता है, तब प्राण को तुरंत ही बाहर निकलना होता है। अघोरी उस जीवन ऊर्जा का उपयोग करना चाहते हैं जो उस समय शरीर से निकलती है, और वे उससे अपने लिये कुछ करना चाहते हैं। लोग उन्हें ये नहीं करने देते क्योंकि वे अपने प्रिय व्यक्ति के शरीर को इस तरह से इस्तेमाल होने देना नहीं चाहते। तो अघोरी शरीर को छीन कर भागते हैं।

वे जीवन के इस भाग का उपयोग करना चाहते हैं। अंतिम संस्कार के कारण शरीर में से जो ऊर्जा निकली है, वे उस ऊर्जा का उपयोग करना चाहते हैं। वे ये काम किसी जीवित व्यक्ति पर नहीं करना चाहते क्योंकि ये मनुष्य की बली देने जैसा हो जायेगा। इसलिये वे मृत शरीर की राह देखते हैं। आप अगर इसके विज्ञान को नहीं जानते तो आप नहीं सोच सकते कि ये सब अजीब है। हाँ, इस तरह से चीज़ें करने का ये एक बहुत अतिवादी तरीका है। ये सब के लिये नहीं है। ये कुछ ऐसा है जो इस तरह से किया जाना चाहिये कि ये समाज के ध्यान में न आये। पर, आज दुर्भाग्य से लोग हर जगह पर भारी मात्रा में होते हैं। एक समय ऐसा था कि जब अघोरी यहाँ होते थे तब शायद ही दूसरा कोई वहाँ होता था। तो वे, अपने विकास और अपनी खुशहाली के लिये जो चाहे वो कर सकते थे।

प्रश्न: पर अगर आप विज्ञान के बारे में बात करते हैं तो मैं कह सकता हूँ, "उन बंदरों का उपयोग हुआ पर आखिर में हमें कुछ दवायें भी मिलीं"। पर, किसी अघोरी ने दुनिया को क्या दिया है जो हम उन्हें ऐसा काम करने के लिये मंजूरी दें जो लोगों को अच्छा नहीं लगता?

सद्‌गुरु: किसी समाज के लिये क्या लाभदायक है और क्या नहीं, ये इतिहास के अलग-अलग समय में बदल जाता है। हम विज्ञान के बड़े फायदों के बारे में जो बात कर रहे हैं वो अब सिर्फ एक खास संदर्भ में ही है। अब ये होना शुरू हो गया है कि सभी पर्यावरणवादी लोग हर वैज्ञानिक चीज़ को रोकने की कोशिश कर रहे हैं क्योंकि लोगों को अब ये समझ में आने लगा है कि विकास के नाम पर हम अपनी खुशहाली के स्रोत को ही नष्ट कर रहे हैं।

समाज में आज जो सच है, कल उससे मुँह मोड़ लिया जायेगा, उसे गलत कहा जायेगा। आज जो चीज़ बहुत महान है, परसों उसे सबसे भयानक चीज़ कह दिया जायेगा। सामाजिक संरचना में ये हमेशा होगा। आपको आज यकीन दिलाया जायेगा कि यही ठीक है और आपकी अगली पीढ़ी खड़ी हो कर कहेगी, "आपने जो किया वो सबसे बड़ी बेवकूफी है"।

अघोरी समाज में शामिल हो कर नहीं रहते। उन्हें सिर्फ अपने अस्तित्व और उसकी प्रकृति से मतलब है। वे ये परवाह नहीं करते कि समाज क्या कहता है और इसीलिये वे हमेशा समाज से दूर ही रहे हैं। पर, आज समाज ने हर चीज़ पर कब्जा कर लिया है। उनके लिये कोई जगह ही नहीं छोड़ी है। वे किसी को कोई नुकसान नहीं पहुँचा रहे। क्या कभी आपने सुना कि किसी अघोरी ने किसी पर हमला किया हो? नहीं, वे जो कुछ करते हैं सिर्फ अपने खुद के साथ करते हैं। लोग नशा करते हैं, शराब पी कर अपनी जान गँवा देते हैं, सिगरेट बीड़ी पी कर आपके मुँह पर धुआँ उड़ाते हैं। अघोरी ये सब नहीं करते। वे दूर-दराज के एकांत स्थानों पर होते हैं। अपने ऊपर ही काम कर रहे होते हैं, किसी और के साथ नहीं।

वे ऐसी जगह में विकसित होना चाहते हैं, जहाँ, आपके लिये जो सबसे ज्यादा घृणास्पद है, उससे वे नज़दीकी कर लेते हैं क्योंकि जिस पल आप कुछ पसंद या नापसंद करते हैं, तो आप अस्तित्व को बाँट देते हैं और जब आप अस्तित्व को बाँट देते हैं, तो उसके साथ मिल नहीं सकते, एकाकार नहीं हो सकते। आप जिसे सहन नहीं कर सकते, वे उसके साथ होते हैं क्योंकि वे वो सब कुछ ले लेना चाहते हैं जो वे पसंद करते हैं या नापसंद करते हैं। उनके लिये सब एक ही है। ये उनका ब्रह्मांड के साथ मिलने का तरीका है। ये आपके लिये या मेरे लिये कामगर नहीं होगा पर ये उनके लिये काम करता है। मैं ऐसी किसी चीज़ के खिलाफ नहीं हूँ जो काम करती है। अगर ये काम करती है तो मेरे लिये ये ठीक है।

काशी का अनुभव कैसे करें?

प्रश्न: अगर कोई काशी आता है तो वो सबसे ज़रूरी चीज़ कौन सी है जिसका अनुभव उसे लेना चाहिये?

सद्‌गुरु: सबसे ज्यादा जरूरी ये है कि यहाँ आपको थोड़ा तैयार हो कर आना चाहिये। अगर आप काशी आ रहे हैं तो कम से कम तीन महीनों के लिये किसी सरल, आसान ध्यान विधि में दीक्षित हो कर आईये। कुछ समय तक ध्यान कीजिये। अपने आपको थोड़ा ज्यादा संवेदनशील बनाईये और फिर आईये। अपनी सब मान्यतायें घर पर छोड़ कर आईये। किसी भी मान्यता पर यकीन मत कीजिये।

काशी को फ़िर से पहले जैसा बनाना होगा

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सद्‌गुरु: काशी एक शानदार जगह है। हमें इसे एक बार फिर से इसकी पूर्ण महिमा में बहाल करना होगा, क्योंकि मनुष्यों ने धरती पर काशी जैसी शानदार और गहरी चीज़ बनाने की हिम्मत कभी नहीं की है। लेकिन दुर्भाग्य से, इसने समय और आक्रमणों की मार झेली है, और बहुत कुछ टूट-फूट चुका है। इसे फ़िर से स्थापित करने का समय आ गया है। यह धर्म के बारे में नहीं है। यह हमारी जिम्मेदारी है। यदि हम मानव कल्याण के बारे में चिंतित हैं, तो इन्सान की खुशहाली के लिए बनाए गए तरीकों, साधनों और उपकरणों को फ़िर से बहाल किया जाना चाहिए।