कहना गलत नहीं होगा कि आज पूरी मानव जाति किसी न किसी तरह के कष्टों से पीड़ित है। तो क्या कहीं से बरस रहे हैं कष्ट? कहां से आते हैं ये कष्ट और क्या है उपाय इनसे बचने का?

लोग दो तरह के कष्टों को सहते हैं। आमतौर पर लोग सोचते हैं कि कष्ट या तो शारीरिक होते हैं या मानसिक। शारीरिक पीड़ा कई कारणों से हो सकती है, पर 90 प्रतिशत मानवीय कष्ट, मानसिक होते हैं, जिसका कारण हमारे भीतर ही होता है। लोग हर रोज़ अपने लिए कष्ट पैदा करते हैं - वे गुस्सा, डरए नफरत, ईर्ष्या और असुरक्षा आदि से ग्रस्त हैं। यही दुनिया में अधिकतर लोगों के लिए पीड़ा का कारण है।

कष्ट की प्रक्रिया को समझना होगा

आखिर मानवता क्यों पीड़ित है? हमें इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए कष्ट की प्रक्रिया को देखना होगा।

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हमारे ऊपर कष्ट कहीं से बरसते नहीं हैं, इन्हें हम तैयार करते हैं। और कष्टों के निर्माण की फैक्ट्री आपके मन में है।
आज सुबह, क्या आपने देखा कि सूरज अपनी पूरी आभा के साथ उदित हुआ, फूल खिले, कोई भी सितारा नहीं टूटा, सारे तारामंडल अपना काम सही तरह से कर रहे हैं। सब कुछ व्यवस्थित रूप में, अपने क्रमानुसार चल रहा है। यानी सारा ब्रह्माण्ड बहुत अच्छी तरह कार्य कर रहा है पर कोई एक विचार दिमाग़ में आते ही आपको लगने लगता है कि आपका पूरा दिन बरबाद हो गया।

विचार या भाव जीवन का अनुभव तय करने लगते हैं

कष्ट इसलिए हो रहा है क्योंकि अधिकतर लोग यह नज़रिया ही खो बैठे हैं कि जीवन कहते किसे हैं? उनकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया, अस्तित्व संबंधी प्रक्रिया से कहीं बड़ी है।

अगर आप मनोवैज्ञानिक स्तर से अस्तित्वगत वास्तविकता में जाना चाहते हैं, तो आपको देखना होगा कि आप जो सोचते, या महसूस करते हैं; वह कोई मायने नहीं रखता।
या अगर सीधे सीधे शब्दों में कहें तो आपने अपनी तुच्छ सृश्टि को उस ईश्वर की सृष्टि से भी महान मान लिया है। यही सारे कष्टों की बुनियादी जड़ है। हमने यहां जीवित रहने का अर्थ ही खो दिया है। आपके दिमाग में आया कोई विचार या कोई भाव आपके अनुभव को तय करने लगता है। सारी सृश्टि बहुत अच्छी तरह चल रही है, पर कोई एक भाव या विचार सब कुछ नष्ट कर सकता है। जबकि हो सकता है आपकी भावनाओं और विचारों का आपके जीवन की सीमित वास्तविकता से भी कोई लेना-देना न हो।

मन आपका है ही नहीं

जिसे आप ‘मेरा मन’ कहते हैं, दरअसल वह आपका है ही नहीं। आपका अपना कोई मन ही नहीं है। ज़रा इसे गौर से देखिए। आप जिसे अपना मन कहते हैं, वह तो समाज का कूड़ेदान है।

या अगर सीधे सीधे शब्दों में कहें तो आपने अपनी तुच्छ सृश्टि को उस ईश्वर की सृष्टि से भी महान मान लिया है। यही सारे कष्टों की बुनियादी जड़ है।
आपके मन में, कोई भी जो आपके पास से गुज़रता है, कचरा डाल जाता है। आपके पास यह चुनने की सुविधा भी नहीं है कि आपको किसका कचरा लेना है और किसका लेने से मना करना है। अगर आप किसी व्यक्ति को पसंद नहीं करते तो आपको उस व्यक्ति से दूसरों की तुलना में कहीं अधिक कचरा मिलेगा। आपके पास समचुच चयन नहीं है। अगर आपको कचरे की सामग्री का सही प्रयोग करना आता है तो यह आपके काम आ सकता है। स्मृतियों और सूचनाओं का यह जो ढेर आपने इकट्ठा कर रखा है, यह केवल जीवन-यापन के काम आ सकता है। इसका इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि आप कौन हैं।

अपने विचारों और भावों की अहमियत घटा दें

जब हम आध्यात्मिक प्रक्रिया की बात करते हैं, तो हम मनोवैज्ञानिक स्तर से अस्तित्वगत स्तर पर जाने की बात करते हैं। जीवन इस सृष्टि के बारे में है, जो कि यहां उपस्थित है। इसे पूरी तरह जानने और इसके असली रूप में अनुभव करने के बारे में है। इसे अपने मनचाहे रूप में बिगाड़ना जीवन नहीं हैे।

आपके मन में, कोई भी जो आपके पास से गुज़रता है, कचरा डाल जाता है। आपके पास यह चुनने की सुविधा भी नहीं है कि आपको किसका कचरा लेना है और किसका लेने से मना करना है।
अगर आप मनोवैज्ञानिक स्तर से अस्तित्वगत वास्तविकता में जाना चाहते हैं, तो आपको देखना होगा कि आप जो सोचते, या महसूस करते हैं; वह कोई मायने नहीं रखता। आपके विचारों का वास्तविकता से कोई लेना.देना नहीं है। जीवन में इसका कोई ख़ास महत्व नहीं है। यह व्यर्थ की बातों के सिवा कुछ नहीं, जिसे आपने यहां-वहां से बटोर रखा है। अगर आपको यह सब महत्वपूर्ण लगता है, तो आप इससे परे कभी देख ही नहीं सकते। आपका ध्यान स्वाभाविक तौर पर उसी ओर जाता है, जिसे आप अहमियत देते हैं। अगर आपके लिए आपके विचार और भाव महत्वपूर्ण होंगे तो आपका सारा ध्यान उनकी ओर ही होगा। पर यह सिर्फ एक मनोवैज्ञानिक वास्तविकता है। इसका अस्तित्व से कोई लेना-देना नहीं है।

हमारे ऊपर कष्ट कहीं से बरसते नहीं हैं, इन्हें हम तैयार करते हैं। और कष्टों के निर्माण की फैक्ट्री आपके मन में है। अब समय आ गया है आप इस फैक्ट्री को बंद कर दें।