सद्‌गुरुआज के स्पॉट में सद्‌गुरु अपने उन अनेक घरों की यादों को साझा कर रहे हैं, जिनमें उन्होंने अपना बचपन और युवावस्था का समय बिताया। साथ ही वे बता रहे हैं कि वो क्या है, जो एक मकान को घर बनाता है?

जब हम ‘घर’ शब्द बोलते हैं तो हमारे मन में वो यादें आने लगती हैं, जिसमें सबका साथ, आराम और प्यार मिला होता है।

उसके बाद मैंने मोटरसाइकिल पर पूरे भारत का भ्रमण किया। इस पूरे सफर में, उन कुछ दिनों को छोड़कर जब मैं कहीं पड़ाव डालता था, बाकी पूरे समय में रास्ते में किसी का भी दरवाजा खटखटाता और कहता, ‘मुझे भूख लगी है।’
चाहे लोगों ने अपने जीवन में कई बार घर बदलें हों, लेकिन अधिकतर लोगों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण वो घर होता है, जिसमें उनका बचपन गुजरा है, जिसमें वे बड़े हुए होते हैं। इसकी वजह शायद यह रही है कि बचपन से किशोरावस्था और फिर जवानी तक जीवन को लेकर हमारी समझ और नजरिया जीवन के दूसरे दौरों की तुलना में कहीं ज्यादा तेजी से बदलती है। यही वो समय होता है जब हम अपन आसपास के माहौल का अनुभव पाने के लिए अलग-अलग तरीकों को आजमाते हैं। इसलिए जो घर इस दौरान हमें सहारा देता और पालता-पोसता है, स्वाभाविक रूप् से उसका प्रभाव व उसकी यादें हमारे मन में बाद के जीवन के किसी भी और अनुभव से कहीं गहरी होती हैं।

सद्‌गुरु के घरों की यादें

मुझे अभी भी अच्छी तरह से याद है वे सारे घर जिनमें बचपन से मैं रहा हूं। मेरे दादाजी का घर एक तरह से जमींदार का घर था, जिसके पीछे कई पीढ़ियों का इतिहास था।

वे मुझे खाना खिलाते। कई बार मैं खाने के बाद निकल पड़ता, कभी वे मुझे नहाने की सुविधा देने के साथ ही कहते कि आराम कर लो।
वह काफी बड़ा और प्रभावशाली था। उस इलाके में जो कुछ भी होता था, वह लगभग उसी घर से शुरू होता था। उसके विपरीत मेरे पिता का घर काफी शांत, आरामदायक, सबके साथ और प्यार से भरपूर था, लेकिन वहां कोई खास चहल-पहल या घटना नहीं होती थी। उसके बाद मैंने मोटरसाइकिल पर पूरे भारत का भ्रमण किया। इस पूरे सफर में, उन कुछ दिनों को छोड़कर जब मैं कहीं पड़ाव डालता था, बाकी पूरे समय में रास्ते में किसी का भी दरवाजा खटखटाता और कहता, ‘मुझे भूख लगी है।’ वे मुझे खाना खिलाते। कई बार मैं खाने के बाद निकल पड़ता, कभी वे मुझे नहाने की सुविधा देने के साथ ही कहते कि आराम कर लो। आमतौर पर न तो वे लोग मेरा नाम जानना चाहते थे और न ही मैंने कभी उनके बारे में जानने की कोशिश की कि वे कौन हैं। इसके बाद भी हमारे बीच एक जबरदस्त समझ होती। मैं कुछ घंटे उनके साथ बिताता, वहां सोता और अगली सुबह फिर सफर पर निकल पड़ता। अलग-अलग तरीकों से हुए इन अनुभवों ने घर को लेकर मुझे अपनी एक समझ बनाने में मदद की।

सबको शामिल करने की क्षमता

घर बनाना इंसान की एक बुनियादी जरूरत है। इंसान उन दूसरे प्राणियों में से नहीं है, जो अपना जीवन जीने में पैदा होते ही काफी हद तक समर्थ होते हैं।

इसी के साथ यह घर तब होता है, जब इसके दरवाजे कई और लोगों के लिए भी खुले रहते हैं, जैसे- परिवार, दोस्त, बिजनेस पार्टनर या कोई और व्यक्ति, जिसके साथ उस घर में रहने वालों का कोई भी संबंध हो।
हमें एक पूर्ण विकसित इंसान बनने के लिए काफी सुधार और बदलाव की जरूरत होती है। हम जिसे घर कहते हैं, वह दरअसल एक ऐसी नर्सरी या इन्क्यूबेटर है, जो हमें इंसान के तौर पर तैयार करता है। इस तैयारी का एक महत्वपूर्ण आयाम है, सबको समाहित कर पाने की क्षमता विकसति करना। घर वो जगह है, जो उसमें रहने व बड़े होने वाले कुछ लोगों का पालन-पोषण करता है। इसी के साथ यह घर तब होता है, जब इसके दरवाजे कई और लोगों के लिए भी खुले रहते हैं, जैसे- परिवार, दोस्त, बिजनेस पार्टनर या कोई और व्यक्ति, जिसके साथ उस घर में रहने वालों का कोई भी संबंध हो।

क्या है घर बनाने का बुनियादी मूल्य?

इनमें से कुछ लोग तो रहने के लिए आते हैं, जैसे दामाद या बहू आदि। कभी-कभी मेरे जैसे घुम्मकड़ भी आ जाते हैं, जो घर के भीतर घुस आते हैं। कई मायनों मेें मैं एक घरविहीन इंसान हूं। अधिकतर समय मैं दूसरे लोगों के घरों में रहता हूं, अपने उन दो घरों में नहीं रहता, जो मैंने भारत और अमेरिका में बनाए हैं। हो सकता है कि जब जीवन मुझे अशक्त बना दे तो शायद मैं घर पर रहूं।

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एक घर वही है जो इंसान में सबको समाहित करने की भावना का गहराई से पोषण करे। आपको सबको साथ लेकर चलना और स्वीकारना सीखना चाहिए।
मैं ऐसे घरों में भी रहा हूं, जहां चार सौ से ज्यादा परिवारजन रहते थे। हो सकता है कि ये लोग वहां रहने वाले हर व्यक्ति का नाम भी न जानते हों, लेकिन उन्हें इस बात का थोड़ा पता था कि वे कौन हैं। एक ही छत के नीचे रहते हुए उनकी कई पीढ़ियां गुजर गईं। लोग उसी घर में पैदा हुए, बड़े हुए, उनकी शादी हुई, बच्चे हुए, उसी घर में बूढ़े हुए और मर गए। लेकिन अब ऐसा नहीं है, हर नई पीढ़ी नए घर में चली जाती है। आज कई वजहों से लोग अपना घर बदलते रहते हैं। कुछ पीढ़ियों पहले यह स्थिति नहीं थी। जब समाज आमतौर पर खेती पर निर्भर हुआ करता था, तब लोगों की गतिशीलता काफी सीमित हुआ करती थी। लेकिन आज की जीवनशैली, हमारे काम करने की परिस्थितियां और समग्र रूप ये यह दुनिया पहले से काफी अलग है। हो सकता है कि आज के दौर में घरों के भौतिक ढांचे और कलात्मकता में बदलाव आ गया हो, लेकिन किसी जगह को घर बनाने वाले बुनियादी मूल्य अब भी वही हैं। एक घर वही है जो इंसान में सबको समाहित करने की भावना का गहराई से पोषण करे। आपको सबको साथ लेकर चलना और स्वीकारना सीखना चाहिए। अगर आप पूरी दुनिया के लिए ऐसा नहीं कर सकते तो कम से कम उनके लिए तो यह कीजिए, जिनसे आपकी दुनिया है।

चीज़ों को स्वीकारना सीखना जरुरी है

जो लोग हमारे साथ रहते हैं वे बिल्कुल उस तरह से नहीं होते, जैसा हम चाहते हैं, और न ही वे कभी वैसे होंगे। अगर आप इसे समझ लें तो आज जीवन को जैसा और जितना आप जानते हैं, उससे परे आप उसे जान पाएंगे।

अगर कोई आपको छू भी दे तो वह खत्म हो जाता है या फिर आप। हम लोग ऐसी ही संस्कृति की ओर आगे बढ़ रहे हैं। हम लोग खुशकिस्मत हैं कि इस पीढ़ी में अभी भी सबको साथ लेकर चलने का कुछ भाव बचा हुआ है।
एक घर को आपको जीवन के लिए इस तरह से तैयार करना चाहिए कि जब आप दुनिया में बाहर निकलें तो आप कहीं ज्यादा दूसरों को शामिल करने वाले हों। एक साथ रहने से आपको अवसर मिलता है कि आप कई चीजों को स्वीकारना सीख सकें। लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ता है, आप किसी दूसरे को अपनी सीमाओं में प्रवेश दे पाने की क्षमता को खोने लगते हैं। अगर कोई आपको छू भी दे तो वह खत्म हो जाता है या फिर आप। हम लोग ऐसी ही संस्कृति की ओर आगे बढ़ रहे हैं। हम लोग खुशकिस्मत हैं कि इस पीढ़ी में अभी भी सबको साथ लेकर चलने का कुछ भाव बचा हुआ है। और यह चीज हमारे घरों में हमारे भीतर भरी गई थी, जहां हमारे भाई-बहनों, दोस्तों और परिवारीजनों ने कई तरीके से हमको प्रभावित करने या हम पर छाने की कोशिश की थी, और वह बिल्कुल ठीक था।

घरों का एक विशेष आयाम

दुनियाभर में ज्यादातर घर आराम, सुविधा, सबके साथ, आपसी प्यार और सहभागिता के लिए बने हैं, लेकिन भारत में इन सबके अलावा एक और विशेष आयाम भी है। एक समय था, जब हर घर प्रतिष्ठित किया जाता था।

जब मेरी मां ने घर बनाया तो उसका पूजा का कमरा टाॅयलेट से भी थोड़ा छोटा हो गया। और जब मेरी बेटी ने अपना घर बनाया तो उसका पूजा का कमरा दीवार की सिर्फ एक रैक तक सिमट कर रह गया।
तब अपने यहां ऐसी जगहों पर लोगों का रहना वास्तव में गलत समझा जाता था, जो जगह उनके कल्याण, प्रगति, भीतरी निखार के लिए जरूरी माहौल न उपलब्ध करा सके। इसलिए हर घर एक प्रतिष्ठित स्थान होता था। हालांकि उस परंपरा के अवशेष अब भी हैं, लेकिन पिछली कुछ पीढ़ियों में काफी कुछ बदल गया है। उदाहरण के लिए मेरी परदादी का पूजा का कमरा घर का सबसे बड़ा कमरा हुआ करता था। वहां वो गाती थीं, नाचती थीं, हंसती-रोती थीं। फिर मेरी दादी का पूजा कक्ष सिकुड़कर परदादी के कमरे का आधा हो गया। जब मेरी मां ने घर बनाया तो उसका पूजा का कमरा टाॅयलेट से भी थोड़ा छोटा हो गया। और जब मेरी बेटी ने अपना घर बनाया तो उसका पूजा का कमरा दीवार की सिर्फ एक रैक तक सिमट कर रह गया।

सिकुड़ते पूजा घर

मेरे आंखों के सामने ही पिछली चार-पांच पीढ़ी में दैवीयता का महत्व सिकुड़कर इतना कम हो गया कि घर के सबसे बड़े कमरे से कम होते-होते दीवार की एक रैक तक पहुँच गया। मुझे विश्वास है कि अगली पीढ़ी तक यह रैक भी गायब हो जाएगी।

कुछ साल पहले तक आपके लिए सोचने का काम आपका गुरु या आपका पुरोहित या आपका पंडित अथवा ग्रंथ करते थे, लेकिन आज बहुत सारे लोग खुद अपने बारे में सोच रहे हैं।
यह सब इसलिए हुआ क्योंकि पहले हमारे पास एक प्राण प्रतिष्ठा का विज्ञान था जिससे किसी स्थान की ऊर्जा को शक्तिशाली तरीके से इस तरह बदला जा सकता है, ताकि वहां रहने वालों का जीवन रूपांतरित हो सके, लेकिन समय के साथ हम उस विज्ञान को अपनी अगली पीढ़ी को नहीं समझा पाए और बुनियादी स्वरूपों पर आ गए। जाहिर सी बात है, जिस चीज में उन्हें कोई तर्क नजर नहीं आएगी, उसे वे लोग नकार देंगे। कुछ साल पहले तक आपके लिए सोचने का काम आपका गुरु या आपका पुरोहित या आपका पंडित अथवा ग्रंथ करते थे, लेकिन आज बहुत सारे लोग खुद अपने बारे में सोच रहे हैं। अब वह सीधा सोच रहे हैं या नहीं, यह अलग सवाल है, लेकिन कम से कम वह अपने लिए सोच रहे हैं।

तर्क से संस्कृति के हर पहलू को समझ नहीं सकते

एक बार जब आप अपने लिए सोचना शुरू कर देते हैं तो फिर आप ऐसी किसी चीज को हजम नहीं कर पाते, जो तर्क की दृष्टि से सही न हो, फिर भले ही वह आधिकारिक तौर पर कही गई बात ही क्यों न हो।

अगर आप किसीको जानना चाहते हैं तो चीरफाड़ या विश्लेषण उसका सही तरीका नहीं हैं, फिर भी हमारी बुद्धि लगातार यही करती रहती है।
हम लोग आधिकारिक बातों को सच मानने की बजाए सच को आधिकारिक बात मानने की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। यह अपने आप में एक अच्छा बदलाव है, लेकिन इस बदलाव के बीच की जगह बंजर हो सकती है। यह चीज हमारे घरों में दिखती है, जहां ऐसी तमाम चीजें जो हमारी विरासत, इतिहास व संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थीं, कई छोटी-छोटी चीजें ऐसी कहानियां कहती थीं, जिसे हर कोई सही-सही नहीं समझा या बता सकता था, उन्हें अगली पीढ़ी नकारती जा रही है, क्योंकि उनके लिए इन चीजों के कोई मायने नहीं हैं। हमारी बुद्धि की यही प्रकृति है कि यह हर चीज की चीरफाड़ करती है। अगर आप किसीको जानना चाहते हैं तो चीरफाड़ या विश्लेषण उसका सही तरीका नहीं हैं, फिर भी हमारी बुद्धि लगातार यही करती रहती है। हो सकता है कि बहुत सारी चीजों में कोई तार्किक भाव न निकलता हो, लेकिन शायद उनका जीवन से जुड़ाव काफी महत्वपूर्ण हो। उसी तरह जैसे आपके घर में, हो सकता है, कुछ लोग, कोई ढांचा, या कोई चीज तर्कसंगत नहीं लगती हो, लेकिन आपके लिए वह आपकी दुनिया हो।

नापसंद की चीज़ों के साथ रहना एक बहुत बड़ा सबक है

घर आपको तैयार करने वाली ऐसी जगह होनी चाहिए, जो आपको अंततः इस बात का अहसास दिला सके कि किसी इंसान का अंतिम व वास्तविक घर उसके भीतर है।

एक व्यक्ति को जो चीज पंसद आती है, वह दूसरे को नापसंद हो सकती है, इसी तरह दूसरे की पसंद, पहले को बुरी लग सकती है। फिर भी चूंकि आप एक ही घर में रहते हैं, आप उन्हीं शर्तों पर रहते हैं।
अगर आप इस जीवन में इस बात का अहसास नहीं कर पाए कि आपका असली घर आपके भीतर है तो फिर आप जिस घर को जानेंगे, वह आपकी कब्र ही होगी। जो चीज आपको तर्कसंगत नहीं लगती, उसका यह मतलब नहीं है कि उसका अस्तित्व ही नहीं होना चाहिए। घर हमारे अंदर लगातार इस समझ को बढ़ावा देता है। एक व्यक्ति को जो चीज पंसद आती है, वह दूसरे को नापसंद हो सकती है, इसी तरह दूसरे की पसंद, पहले को बुरी लग सकती है। फिर भी चूंकि आप एक ही घर में रहते हैं, आप उन्हीं शर्तों पर रहते हैं। इसके लिए आपको उसे पसंद करने की कोशिश करने की भी जरूरत नहीं है। जिन चीजों को आप पसंद नहीं करते, उनके साथ रहना और जीना जिंदगी का एक बहुत बड़ा सबक है। एक घर हमें ये देता है। अगर आप चाहते हैं कि हर कोई और हर चीज सौ फीसदी आपके हिसाब से हो, तो कोई भी इंसान आपके साथ नहीं रहना चाहेगा।

समृद्धि से नहीं, समावेश से बनता है घर

मेरी कोशिश है कि जितना संभव हो सके, ज्यादा से ज्यादा घरों को प्रतिष्ठित किया जाए। इसके जरिए हम ऐसी आवश्यक ऊर्जा तैयार करने की कोशिश करते हैं, जो आपको यह अहसास कराने में सक्षम बनाती है कि दीवारें, खुशबू, उसकी साज-सज्जा या वहां की ध्वनियाँ या खाने का स्वाद किसी जगह को घर नहीं बनाता।

अगर आप भीतर की ओर मुड़ गए तो आपके भीतर सबको साथ लेकर चलने का एक प्रबल भाव होगा। एक घर को उसी भाव को हमारे भीतर पोषित करना चाहिए।
दरअसल घर एक ऐसी जगह है, जो आपको अपने भीतर की तरफ मुड़ने में सहयोग देती है और आपको इस बात का अनुभव करने में मदद करती है कि अगर इंसान का वास्तव में कोई घर है तो वह उसके भीतर है। यह घर न मेरा है, न आपका। अगर आप भीतर की ओर मुझते हैं तो आप व्यापक रूप से समावेशी हो जाएंगे - सबको, सबकुछ खुद में शामिल करने वाले। केवल जब हम अपने आप को अपने तन और मन के तौर पहचानते हैं तभी हमारे सामने ‘मैं’ या ‘आप’ जैसी स्पष्ट चारदीवारियां आती हैं। अगर आप भीतर की ओर मुड़ गए तो आपके भीतर सबको साथ लेकर चलने का एक प्रबल भाव होगा। एक घर को उसी भाव को हमारे भीतर पोषित करना चाहिए। घर ढांचों या इमारतों की समृद्धि से नहीं, बल्कि लोगों में सबको साथ लेकर चलने की भावना से बनता है।

Love & Grace