सद्गुरुभगवान शिव को भाव विभोर हो कर तांडव करते देख और फिर सालों तक अचल बैठे देख सातों ऋषियों में भी इसके बारे में जानने की चाहत पैदा हो गयी, फिर वे शिव के पास पहुँच गए...

भारत में आध्यात्मिक प्रकृति की बात करें तो हर किसी का एक ही लक्ष्य रहा है - मुक्ति। आज भी हर व्यक्ति मुक्ति शब्द का अर्थ जानता है। कभी सोचा है ऐसा क्यों है? दरअसल, इस देश में आध्यात्मिक विकास और मानवीय चेतना को आकार देने का काम सबसे ज़्यादा एक ही शख्सियत के कारण है। जानते हैं कौन है वह? वह हैं शिव।

15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव विभोर कर देने वाला नत्य किया। वे कुछ देर परमानंद में पागलों की तरह नृत्य करते, फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो जाते।

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आदि योगी शिव ने ही इस संभावना को जन्म दिया कि मानव जाति अपने मौजूदा अस्तित्व की सीमाओं से भी आगे जा सकती है। संसारिकता में रहना है लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है। अपने शरीर और दिमाग को हर संभव इस्तेमाल करना है, लेकिन उसके कष्टों को भोगने की ज़रूरत नहीं है। कहने का मतलब यह है कि जीने का एक और भी तरीका है। हमारे यहां योगिक संस्कृति में शिव को ईश्वर के तौर पर नहीं पूजा जाता है। इस संस्कति में शिव को आदि योगी माना जाता है। यह शिव ही थे जिन्होंने मानव मन में योग का बीज बोया।

योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव विभोर कर देने वाला नत्य किया। वे कुछ देर परमानंद में पागलों की तरह नृत्य करते, फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो जाते। उनके इस अनोखे अनुभव के बारे में कोई कुछ नहीं जानता था। आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और वे इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे उनके पास पहुंचने। लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा क्योंकि आदि योगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर थे। उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्द गिर्द क्या हो रहा है! उन लोगो ने वहीं कुछ देर इंतजार किया और फिर थक हारकर वापस लौट आए।

लेकिन उन लोगों में से सात लोग ऐसे थे, जो थोड़े हठी किस्म के थे। उन्होंने ठान लिया कि वे शिव से इस राज को जानकर ही रहेंगे। लेकिन शिव ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया।

संसारिकता में रहना है लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है। अपने शरीर और दिमाग का हर संभव तरीके से इस्तेमाल करना है, लेकिन उसके कष्टों को भोगने की ज़रूरत नहीं है।

अंत में उन्होंने शिव से प्रार्थना की उन्हें इस रहस्य के बारे में बताएँ। शिव ने उनकी बात नहीं मानी और कहने लगे, ’मूर्ख हो तुम लोग! अगर तुम अपनी इस स्थिति में लाखों साल भी गुज़ार दोगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाआगे। इसके लिए बहुत ज़्यादा तैयारी की आवश्यकता है। यह कोई मनोरंजन नहीं है।’ ये सात लोग भी कहां पीछे हटने वाले थे। शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और तैयारी शुरू कर दी। दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए और ये लोग तैयारियां करते रहे, लेकिन शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज ही करते जा रहे थे। 84 साल की लंबी साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण में चला गया। पूर्णिमा के इस दिन आदि योगी शिव ने इन सात तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने पक चुके हैं कि ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार थे। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।

शिव ने इन सातों को अगले 28 दिनों तक बेहद नजदीक से देखा और अगली पूर्णिमा पर इनका गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव ने स्वयं को आदि गुरु में रूपांतरित कर लिया। तभी से इस दिन को गुरु पूर्णिमा कहा जाने लगा। केदारनाथ से थोड़ा ऊपर जाने पर एक झील है, जिसे कांति सरोवर कहते हैं। इस झील के किनारे शिव दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर बैठ गए और अपनी कृपा लोगों पर बरसानी शुरू कर दी। इस तरह योग विज्ञान का संचार होना शुरू हुआ।