मनुष्य कभी बहुत सुंदर तो कभी भयानक बन सकते हैं। सद्‌गुरु हमें बता रहे हैं कि मनुष्य कोई जीव नहीं है, बल्कि वो जीव बनने की प्रक्रिया में है। वे आदि योगी थे, जिन्होंने योग के माध्यम से इस प्रक्रिया को दिशा देने की शुरुआत की थी...

आदि योगी का अवतरण

करीब 15,000 साल पहले हिमालय के ऊपरी क्षेत्र में एक योगी प्रकट हुए। किसी को मालूम नहीं था कि वह कहां से आए थे या कहां के निवासी थे। वह बस आकर बिना हिले डुले बैठे रहे। लोगों को उनका नाम नहीं मालूम था, इसलिए उन्होंने उन्हें प्रथम योगी या ‘आदियोगी’ कहा। उन्हें देखने के लिए बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे हो गए क्योंकि उनकी मौजूदगी काफी असाधारण थी। लोग किसी चमत्कार का इंतजार करते रहे, लेकिन वह लगातार महीनों तक निश्चल बैठे रहे। वह अपने चारो ओर लोगों की मौजूदगी से बेखबर थे। लोग इतना भी नहीं बता सकते थे कि वह सांस ले रहे हैं या नहीं, सिर्फ उनकी आंखों से टपकते आनंद के आंसू ही इस बात का प्रमाण थे कि वह जिन्दा हैं।

आदियोगी का चमत्कार : भौतिकता से परे की उपस्थिति

यदि कोई बिना कुछ बोले सिर्फ बैठा रहे, तो आप पहले दस मिनट कुछ होने का इंतजार करेंगे। फिर भी यदि वह कुछ नहीं बोलता, तो तीन मिनट के भीतर लोग धीरे-धीरे वहां से जाना शुरू कर देंगे। अगर वह दो घंटे कुछ नहीं बोले, तो आधे लोग वहां से चले जाएंगे। छह घंटे बाद हो सकता है कि सिर्फ तीन-चार लोग ही बच जाएं। आदियोगी के मामले में ठीक ऐसा ही हुआ।

जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं, वह एक तय स्थिति नहीं है। वह दिन के किसी पल कुछ भी हो सकता है। मनुष्य कोई जीव नहीं हैं, वह जीव बनने की प्रक्रिया में है।
लोग बड़ी संख्या में जमा हुए क्योंकि उन्हें किसी चमत्कार का इंतजार था। उनके लिए चमत्कार का मतलब था आतिशबाजी यानि थोड़ी आवाज और रोशनी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उनमें यह देखने की समझ नहीं थी कि चमत्कार तो हो चुका है। अगर कोई लगातार महीनों तक बस बैठा रहे, तो इसका मतलब है कि वह भौतिक नियमों से बंधा हुआ नहीं है।

अलग-अलग तरह की बाध्यता आपके शारीरिक अस्तित्व की प्रकृति है। आप हर कुछ घंटे पर खाना-पीना चाहते हैं, आपको शौचालय जाना होगा। वहां जाने के बाद, आप फिर खाना चाहेंगे। अगर आप खाएंगे तो सोना चाहेंगे। यह शरीर का तरीका है। लेकिन आदियोगी बस महीनों तक वहां बैठे रहे। जो लोग सिर्फ उत्सुकता के कारण उन्हें देखने आए थे और चले गए, वे चमत्कार देखने से चूक गए।

सिर्फ सात लोग ही अड़े रहे

सिर्फ सात जिद्दी लोग वहां डटे रहे। उन्होंने योगी से अनुरोध किया, ‘कृपया हमें वह ज्ञान दीजिए जो आपके पास है।’

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योगी ने उन्हें मना कर दिया, ‘यह मनोरंजन चाहने वाले लोगों के लिए नहीं है। इसके लिए कुछ और चाहिए होता है। तुम सब चले जाओ।’

लेकिन वे अड़े रहे। उनकी जिद को देखकर, वह बोले, “ठीक है, मैं तुम्हें एक शुरुआती कदम बताता हूं। कुछ समय तक इसे करो, फिर देखेंगे।’

इन सातों लोगों ने अभ्यास किया। दिन सप्ताह में बदले, सप्ताह महीनों में, फिर भी योगी उन्हें अनदेखा करते रहे।

चौरासी सालों तक सप्त ऋषियों ने साधना की

चौरासी सालों की साधना के बाद, जिस दिन ग्रीष्म संक्रांति शीत संक्रांति में बदल गई, जब पृथ्वी के संबंध में सूर्य की दिशा उत्तरी से दक्षिणी हो गई – आदियोगी ने उन पर एक नजर डाली। उन्होंने देखा कि वे लोग वाकई दीप्तिमान मनुष्य बन गए थे, जो पूरी तरह उनके ज्ञान को ग्रहण करने के काबिल हो गए थे। अब वह उन्हें अनदेखा नहीं कर सकते थे।

जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं, वह एक तय स्थिति नहीं है। वह दिन के किसी पल कुछ भी हो सकता है। मनुष्य कोई जीव नहीं हैं, वह जीव बनने की प्रक्रिया में है।
उन्होंने उन लोगों को अगले अट्ठाइस दिनों तक, उस पूर्णिमा से अगले पूर्णिमा के दिन तक परखा। फिर उन्होंने उन्हें सिखाने का फैसला किया। सूर्य दक्षिण की ओर चला गया था, इसलिए उन्होंने दक्षिण की ओर मुख किया और इन सात लोगों के साथ जीवन की प्रक्रिया की खोज शुरू की, जिसे हम आज ‘योग’ कहते हैं। दक्षिण की ओर मुड़ने के कारण उन्हें दक्षिणमूर्ति कहा गया, जिसका अर्थ होता है ‘दक्षिण की ओर देखने वाला’। उस पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है क्योंकि उस दिन पहला गुरु जन्मा था और आदियोगी, आदिगुरु बन गए थे।

गुरु पूर्णिमा : आदियोगी ने इस संभावना को पहली बार प्रस्तुत किया

यह दिन बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि मानवता के इतिहास में पहली बार, किसी ने इस संभावना को खोला कि यदि आप इस दिशा में कोशिश करना चाहते हैं, तो पूरी चेतनता में अपनी वर्तमान अवस्था से विकसित होकर दूसरी अवस्था में जा सकते हैं। उस समय तक लोग यही सोचते थे, ‘भगवान ने हमें इसी तरह बनाया है और यही अंतिम सत्य है।’ पहली बार आदियोगी ने इस संभावना को खोला कि आपकी मौजूदा बनावट का ढांचा आपकी सीमा नहीं है, आप इस ढांचे को पार करके अस्तित्व के एक बिल्कुल अलग आयाम में जा सकते हैं।

चार्ल्स डारविन ने हमें बताया कि हम सब वानर थे, फिर हमारी पूंछ गिर गई और हम मनुष्य बन गए। आप यह कहानी जानते हैं। जब आप वानर थे, तो आपने मनुष्य बनने की इच्छा नहीं की थी – प्रकृति बस आपको आगे धक्का देती रही। लेकिन एक बार मनुष्य बनने के बाद, विकास अनजाने में नहीं होता। आप सिर्फ जागरूक या सचेत होकर विकसित हो सकते हैं। एक बार मनुष्य हो जाने के बाद, आपके लिए कुछ विकल्प और संभावनाएं खुल गई हैं, आपके जीवन में एक आजादी आ गई है।

मनुष्य एक प्रक्रिया है

‘मनुष्य’ एक स्थापित या तय स्थिति नहीं है, बल्कि यह परिवर्तनशील स्थिति है। आप एक पल देवतुल्य हो सकते हैं और अगले ही पल निर्दयी हो सकते हैं।

जब आप वानर थे, तो आपने मनुष्य बनने की इच्छा नहीं की थी – प्रकृति बस आपको आगे धक्का देती रही। लेकिन एक बार मनुष्य बनने के बाद, विकास अनजाने में नहीं होता।
आपने अपने बारे में ही देखा होगा – इस पल आप अच्छे होते हैं, अगले पल बुरे होते हैं, अगले पल खूबसूरत होते हैं और अगले ही पल बदसूरत होते हैं। जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं, वह एक तय स्थिति नहीं है। वह दिन के किसी पल कुछ भी हो सकता है। मनुष्य कोई जीव नहीं हैं, वह जीव बनने की प्रक्रिया में है। वह एक अनवरत प्रक्रिया, एक संभावना है। इस संभावना का लाभ उठाने के लिए, एक पूरा तंत्र है जिससे हम समझ सकते हैं कि यह जीवन कैसे काम करता है और हम इसके साथ क्या कर सकते हैं। इसे हम योग कहते हैं।

ये ब्लॉग एक श्रृंखला "शरीर - एक अनुपम उपकरण" का हिस्सा है, और ये श्रृंखला आने वाले ब्लोग्स में जारी रहेगी