माँ कुंती ने देवों के बीज को अपने गर्भ में धारण करके पांडवों को जन्म दिया था। इस श्रृंखला में पढ़ते हैं पांडवों के जन्म की कहानी...

सद्‌गुरुपांडु ने कुंतीभोज की दत्तक पुत्री कुंती और माद्रा की राजकुमारी माद्री से विवाह किया। वह एक युवा राजा थे, जिनकी दो युवा पत्नियां थीं। वह अब तक बहुत से युद्ध जीत चुके थे, मगर उनकी कोई संतान नहीं थी। राजा और राज्य के भविष्य के लिए, संतान का न होना एक बड़ी समस्या थी। भावी राजा कौन होगा? जैसे ही दूसरे लोगों को पता चलता कि सिंहासन का कोई उत्तराधिकारी राजकुमार नहीं है, तो कोई भी उस राज्य को हड़पने की महत्वाकांक्षा रख सकता था। यह एक राजनीतिक समस्या थी।

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एक दिन, पांडु शिकार खेलने गए। उन्हें वहां हिरणों का एक जोड़ा प्रेम में रत दिखा। उन्हें लगा कि यह बेखबर जोड़ा आसान शिकार होगा और उन्होंने तीर चला दिया। वह इतने अच्छे तीरंदाज थे कि उन्होंने एक ही तीर से दोनों का शिकार कर लिया। उस हिरण, जो वास्तव में हिरण का रूप धरे एक ऋषि थे, ने मरने से पहले श्राप दिया, ‘शिकारियों में एक नियम होता है कि वे किसी गर्भवती पशु या प्रेमरत पशु को नहीं मारते क्योंकि उनके जरिये एक भावी पीढ़ी दुनिया में आती है। तुमने इस नियम को तोड़ा। इसलिए अगर तुम कभी भी प्रेम के वशीभूत होकर अपनी पत्नी को छुओगे तो तत्काल तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।’ इसलिए पांडु के बच्चे नहीं थे। उनकी दो पत्नियां थीं, मगर इस श्राप के कारण वह उनके करीब नहीं जा सकते थे।

एक बार फिर से पिछली पीढ़ी की तरह कुरु वंश संतानविहीन था। पांडु इस स्थिति से इतने निराश हुए कि वह राज्य में अपनी सारी दावेदारी और अधिकार त्याग कर अपनी पत्नियों के साथ वन में रहने चले गए। वह जंगल में रहने वाले ऋषि-मुनियों से बातचीत करके खुद को व्यस्त रखने और यह भूलने की कोशिश करते कि वह एक राजा हैं। मगर उनके अंदर की निराशा गहराती चली गई। एक दिन हताशा के चरम पर पहुंच कर वह कुंती से बोले, ‘मैं क्या करूं? मैं आत्महत्या करना चाहता हूं। अगर तुम दोनों में से किसी ने संतान नहीं पैदा की, तो कुरुवंश खत्म हो जाएगा। धृतराष्ट्र के भी बच्चे नहीं हैं। इसके अलावा, वह सिर्फ नाम के राजा हैं और चूंकि वह नेत्रहीन हैं, इसलिए उनके बच्चों को वैसे भी राजा नहीं बनना चाहिए।’

जब वह हताश होकर आत्महत्या की बात करने लगे, तो कुंती ने उन्हें अपने बारे में कुछ बताया। वह बोलीं, ‘एक उपाय है।’ पांडु ने पूछा, ‘क्या?’ कुंती बोलीं, ‘जब मैं छोटी थी, तो दुर्वासा ऋषि मेरे पिता के पास आए थे और मैंने उनका आदर-सत्कार किया था। वह मुझसे इतने खुश हुए कि उन्होंने मुझे एक मंत्र दिया। उन्होंने कहा कि इस मंत्र से मैं किसी भी देवता का आह्वान करके अपने पास बुला सकती हूं और उनकी संतान को पैदा कर सकती हूं।’