अभी तक आपने पढ़ा कि कृष्ण अपने गुरु संदीपनी के पुत्र पुनर्दत्त को वापस लाने के लिए निकल पड़ते हैं। उसे समुद्री डाकुओं ने पकडक़र बेच दिया था। कृष्ण किसी तरह उस जगह पहुंच जाते हैं, जहां पुनर्दत्त को बेचा गया था। वहां उन्होंने देखा कि पुनर्दत्त नागकन्याओं के चंगुल में फंसा हुआ है। अब पढि़ए आगे -

 

कृष्ण ने पुनर्दत्त को उसके पिता और उसकी संस्कृति के प्रति उसकी जिम्मेदारी की याद दिलाने की कोशिश की। कृष्ण ने उसे उन धर्मों व कर्तव्यों के बारे में याद दिलाया, जिन्हें उसे अपने घर पर जाकर पूरा करना था। यह सुनकर पुनर्दत्त रो पड़ा और फिर बोला, ‘मैं वापस नहीं आ सकता।’

पुनर्दत्त कृष्ण के मुकाबले में कुछ भी नहीं था, इसलिए कृष्ण इस तरीके से लड़ रहे थे कि मुकाबला किसी एक के पक्ष में ना जाए - ना कोई जीते, ना कोई हारे। वे बस तलवारों से चिंगारियां पैदा कर रहे थे।
उधर, वह कन्या कृष्ण को पाने के लिए कई तरह से कोशिश कर रही थी। वह उनको एक पल के लिए भी नहीं छोड़ती थी। कुछ ही दिनों बाद यह आदेश दे दिया गया कि कृष्ण को उस कन्या से विवाह करना होगा। वह तो बस इस ताक में थे कि कैसे इस परिस्थिति का इस्तेमाल पुनर्दत्त के tसाथ वहां से भागने में किया जाए। लेकिन जैसे ही देवी मां को यह पता चला कि कृष्ण पुनर्दत्त के साथ वहां से भागने की योजना बना रहे हैं, उन्होंने नया आदेश सुना दिया।

उन्होंने कहा, ‘कृष्ण का विवाह असिका के साथ नहीं, बल्कि लारिका के साथ होगा, जिसका पति अभी पुनर्दत्त है। इस तरह उसे पुनर्दत्त से मुकाबला करना होगा। इस मुकाबले में दोनों में से एक को मरना होगा।’

कृष्ण ने पुनर्दत्त को बुलाया और कहा, ‘मैं तुमसे मुकाबला नहीं कर सकता। तुम मेरे गुरु के बेटे हो। तुम मेरे धर्म-भाई हो। मैं तुम्हें मार नहीं सकता। न ही तुम मुझे मार सकते हो। बस अब बहुत हो गया। यहां से भाग निकलने का यही सही वक्त है।’

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लेकिन उस वक्त पुनर्दत्त को वहां से निकालने का कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि वह उस वक्त सम्मोहन जैसी स्थिति में था।

आखिर कोई चारा न देख पुनर्दत्त और कृष्ण को मुकाबले के लिए उतरना पड़ा और इसमें दोनों में से किसी एक को मरना ही था। दोनों में से जो भी जीवित बचता, उसे पत्नी के रूप में राजकुमारी मिलती, और वहां आने वाले अगले पुरुष से सामना करने के लिए उसे तैयार रहना होता। मुकाबले से पहले कृष्ण ने कुछ तैयारी कर ली थी। उन्होंने विशालकाय हुक्कू और हुल्लू को - जो लोगों को चाबुक से मारते थे - खास जगहों पर तैनात कर दिया। उन्होंने जहाज पर काम करने वाले कुछ और लोगों को भी कुछ दूसरी जगहों पर खड़ा किया, जहां से वे समय आने पर घाट को काटकर नाव को समुद्र में धकेल सकें।

पुनर्दत्त और कृष्ण अखाड़े में आ गए। इसके लिए वहां पूरा स्वांग रचा गया था और उनको देखने के लिए पूरा शहर उमड़ आया था। रानी मां वहां आईं और उन्होंने मुकाबला शुरू करने का आदेश दिया। दोनो ने तलवारबाजी शुरू कर दी।

फिर कृष्ण कुश्ती लड़ते-लड़ते पुनर्दत्त को अखाड़े के एक किनारे पर ले गए, वहां उसे उठाया और अखाड़े से बाहर फेंक दिया। हुक्कू और हुल्लू वहीं प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने पुनर्दत्त को लपका, उसको लेकर घाट की ओर दौड़े और उसे नाव में चढ़ा दिया।
पुनर्दत्त कृष्ण के मुकाबले में कुछ भी नहीं था, इसलिए कृष्ण इस तरीके से लड़ रहे थे कि मुकाबला किसी एक के पक्ष में ना जाए - ना कोई जीते, ना कोई हारे। वे बस तलवारों से चिंगारियां पैदा कर रहे थे। पहले तो लोगों ने यह सोचकर भरपूर मजा लिया कि दोनों बराबर की टक्कर के हैं। लेकिन कुछ देर बाद यह उनको नीरस लगने लगा और मुकाबले को किसी दिशा में ना जाते देखकर उन्होंने चिल्लाना शुरू कर दिया। वे खून की मांग करने लगे।

कृष्ण जानते थे कि वो इस तरह युद्ध को लंबे समय तक जारी नहीं रख सकते, इसलिए उन्होंने पुनर्दत्त की तलवार पर इस तरह वार किया कि यह उसके हाथ से छूट गई। उन्होंने अपनी तलवार भी ऐसे गिरा दी, मानो यह अचानक लगे झटके की वजह से उनके हाथ से छूट गई हो। इसके बाद दोनों बाहों से लड़ने लगे। उनके बीच यह मल्लयुद्ध चलता रहा, दोनों एक-दूसरे को उठाकर पटकते रहे, लेकिन कोई भी इस मुकाबले को किसी नतीजे पर लेकर नहीं जा रहा था। भीड़ ने फिर चिल्लाना शुरू कर दिया और वे खून की मांग करने लगे। फिर कृष्ण कुश्ती लड़ते-लड़ते पुनर्दत्त को अखाड़े के एक किनारे पर ले गए, वहां उसे उठाया और अखाड़े से बाहर फेंक दिया। हुक्कू और हुल्लू वहीं प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने पुनर्दत्त को लपका, उसको लेकर घाट की ओर दौड़े और उसे नाव में चढ़ा दिया।

रानी का पति यानी वहां का राजा, ‘मृत्यु के देवता’ के नाम से जाना जाता था। रानी द्वारा सुनाया गया कोई भी मृत्युदण्ड उसके द्वारा एक धार्मिक परंपरा की तरह सम्पन्न किया जाता था। जब रानी ने यह सब देखा, तो उसने आदेश दिया, ‘इसका अभी कत्ल कर दो।’ राजा अपनी तलवार के साथ आगे बढ़ा और कृष्ण ने भी अपनी तलवार उठा ली। जब वे युद्ध कर रहे थे, तब कृष्ण ने ऐसा दिखावा किया मानो वह पीछे की ओर हट रहे हैं और धीरे-धीरे घाट की ओर बढऩा शुरू कर दिया। उनके आदमियों ने घाट काट दिया था और वे बस तैरते हुए दूर जाना शुरु ही करने वाले थे।

कुछ ही दिनों बाद यह आदेश दे दिया गया कि कृष्ण को उस कन्या से विवाह करना होगा। वह तो बस इस ताक में थे कि कैसे इस परिस्थिति का इस्तेमाल पुनर्दत्त के साथ वहां से भागने में किया जाए।
उसी वक्त वह छोटी कन्या दौड़ती हुई आई और कृष्ण से लिपट गई। कृष्ण ने उसे भी साथ ले जाने का फैसला किया। वे सभी नाव में बैठ गए और उसे जहाज की ओर खेने लगे।

कुछ पुरुष और महिला सिपाही नाव की ओर तैरकर आने की कोशिश करने लगे। लेकिन जो भी नजदीक आया, उसको बस मौत मिली। वे सभी जहाज पर चढऩे लगे और जैसे ही जहाज वहां से रवाना होने वाला था, रानी मां आ गई और घाट के पास आकर बोली, ‘असिका, वापस आ जाओ।’ अचानक वह कन्या, जो कृष्ण के प्रेम में थी, लगभग मूर्छित अवस्था में आ गई और जहाज से कूद कर वापस टापू की ओर तैरने लगी। कृष्ण के भाई ने कहा, ‘तुम उस लडक़ी को रोक सकते थे।’ कृष्ण ने जवाब दिया, ‘हम नागकन्या को यहां से नहीं ले जा सकते। हम उसे जहां भी लेकर जाएंगे, वह वहां बेचैन ही रहेगी। उसे अपनी जमीन पर वापस जाने दीजिए।’

अंतत: कृष्ण अपने गुरु पुत्र पुनर्दत्त को वापस ले आए और अपनी गुरुदक्षिणा के तौर पर संदीपनी को सौंप दिया।